अमरेंद्र प्रताप सिंह, लखनऊ
जैसे इस पूरी दुनिया में कोई भी अवधारणा या धारणा हर किसी पर लागू नहीं होती, कुछ लोग अपवाद स्वरूप उससे इतर हमेशा ही होते हैं वैसे ही हमारा यह मामूली लेख भी हर किसी पर लागू नहीं होता, अपितु अनेक लोग न सिर्फ इससे ऊपर इतर हैं बल्कि उनके साथ सानिध्य प्राप्त कितने ही उन्ही की तरह अपवाद है।
खैर बात कुछ यूं जहन में आई कि इधर कई समकालीन महानतम पत्रकार श्रेष्ठों, पत्रकारिता के मूल्यों में गिरावट से अत्यधिक आहत देवतुल्य पत्रकारिता एवं सर्वोच्च लेखन कला में हो रहे क्रमिक क्षरण के दर्द से कराह रहे, समाधान के बजाय समस्या के विस्तृत विवरण पर पूरा ध्यान एकाग्र रखने वाले सम्भवतः समुद्र मंथन से निकले स्वनामधन्य, शीर्ष स्वप्रशंसक अग्रजों के लेख-विचार कई वेबसाइटों, समाचार पत्र-पत्रिकाओं विशेषकर समाचारों की चयन सम्बन्धी श्रेष्ठता एवं विषय सामग्री के लिए विशेष लोकप्रिय एक प्रतिष्ठित साप्ताहिक समाचार पत्र में पढ़ने को मिले। पढ़कर लगा कि जिस प्रकार के पत्रकारों की आलोचना के कसीदों पर उनका पूरा जोर था उसमें से कई गुण तो हम जैसे तुच्छ ननहऊआ प्राणी में भी विद्यमान है। हालांकि आलोचना लच्छित समूह में हमने स्वयं को बहुत पीछे खड़ा पाया परन्तु यह तो लगा कि चलो कहीं न कहीं गिनती में तो आये। हमारे जैसे तो एकल दौड़ में भी हमेशा द्वितीय आते हैं। लेख निश्चित तौर पर सर्वग्राही, विचारपूर्ण एवं बेहद ऊंचे दर्जे का रहा होगा। तभी तो पूरे तौर कुछ बातें हम जैसे न समझ सकें परन्तु इतनी जिज्ञासा जरूर प्रकट हुई कि इन साक्षात्कार सामग्री रूपी लेखों में वृहद् समस्या चिंतन दरअसल होता किस लिए है।
यदि यह पत्रकारिता के हित में होता है तो फिर इसे समाचार पत्र में छापने की, और यदि छापना ही हो, तो आमजन के अति समक्ष प्रथम पृष्ठ पर स्थान क्यों? इस प्रकार तो आम जनमानस इसे पढ़कर पत्रकारों आदि के बारे में अपने बचे खुचे अच्छे विचारों को भी तिलांजलि दे देगा। और यदि आमजन के बजाय पत्रकारिता विधा के लोगों के विचारार्थ प्रस्तुत होता है तो कुछ सुझाव-चिंतन समाधानोन्मुख भी होना चाहिए। केवल समस्या का रोना ही क्यों? मुझे नहीं याद है कि पिछले कुछ वर्षों में, किसी ख्याति श्रेष्ठ अग्रज ने कोई कार्यशाला, सेमीनार, दक्षता कक्षा या जागरूकता कार्यक्रम नव आगंतुक एवं अल्पज्ञ अनुजों के लिए आयोजित किया हो, जिससे उनमें भी थोड़ी सी आपकी शैली, कला और विद्वता का अंश समाहित हो सके।
हम जैसे ननहऊों ने तो बोधमय जीवन की शुरुआत में ही पाठ्य पुस्तकों, मासिक, साप्ताहिक पत्रिकाओं एवं स्थानीय स्तर पर उपलब्ध समाचार पत्रों में दिए गए लेखों आदि को पढ़कर श्री अरुण शौरी, श्री राजनाथ सिंह सूर्य एवं श्री ह्रदय नारायण दीक्षित आदि को जो कि राजनीति में भी उच्च पदस्थ रहे, उन्हें श्रेष्ठतम पत्रकार ही जाना-माना है। बड़े होकर जिले से लखनऊ आगमन पर साथियों-सहयोगियों की मदद-मुसीबत में राज्य-समाज से लड़ भिड़कर उनकी सहायता करने वालों के रूप में अनेक पत्रकार अग्रजो एवं पत्रकारिता क्षेत्र से आगे बढ़कर सरकार में उच्च पदस्थ सम्मानित पद सूचना सलाहकार एवं सूचना आयुक्तों के रूप में आज के वरिष्ठों को भी पत्रकारिता की प्रोफाइल बढ़ाने वाला श्रेष्ठतम पत्रकार ही जाना-माना है। मुझे नहीं लगा कि उपरोक्त सभी जो पत्रकारिता से अलग अन्य क्षेत्रों में भी प्रशंसित-पुरस्कृत हुए ने पत्रकारिता को कोई हानि पहुंचाई हो, तो फिर इतनी आलोचना किसकी और किस लिए?
हाँ इससे कुछ अलग कुछ ज्ञात श्रेष्ठों को सामान्यतः विधान सभा, विधान परिषद सत्रों के दौरान टंडन हाल एवं वी आई पी कैफेटेरिया में हँसते बतलाते, विधायक गणों एवं मंत्री परिषद के सदस्यों से मिलते जुलते, विधान सभा के प्रेस रूम एवं एनेक्सी के मीडिया सेंटर में राज्य एवं केंद्र सरकार की नीतियों, नियमों एवं प्रस्तुतियों पर लेखन-मंथन करते, मुख्यमंत्री के आवास पर होने वाले आयोजनों-उदघाटनों से लेकर उनके प्रदेश दौरों के दौरान होने वाली प्रेस मीडिया कांफ्रेंसों पर अपने अलग-अलग विचार प्रस्तुत करते, शासन के बड़े साहब से लेकर मंत्री-नेता एवं विभागीय अफसरों के कार्यक्रमों-प्रेस आयोजनों में थोड़ा बहुत खाते पीते भी देखा है और थोड़ा बहुत जो भी आदर्श, ज्ञान या सीख, स्वयं या उनके माध्यम से प्राप्त की इसका अवसर यहीं पर ही मिला है। कुछ एक बार शाम आदि को भी यूपी प्रेस क्लब आदि में कुछ वरिष्ठों को फुरसत में देखने का सौभाग्य मिला वहां पर भी उनका व्यवहार प्रेम और स्नेह भरा ही था।
कमियां हैं, परन्तु आवश्यक नहीं है कि कमियों के प्रत्यक्ष वर्णन पर ही पूरी ऊर्जा लगाई जाये। कमियां वकील, इंजीनियर, डॉक्टर, चार्टर्ड अकाउंटेंट आदि अन्य प्रोफेशनल्स की जमात में भी कुछ लोगों में होती हैं, परन्तु हमने कभी पब्लिकली उन्हें इसका मुजाहिरा करते नहीं देखा।
तो फिर हमारे प्रोफेशन में ही यह प्रज्ञा-प्रलाप किसलिए। साहित्य की किन ऊंचाइयों का आरोहण करने जा रहे हैं हम इन साक्षात्कार सामग्रियों से, और पाठकों पर प्रभाव की बात करें तो हमें लगता है कि सम्भवतः इसी आत्म संतोषी साहित्य को पढ़-पढ़कर अब चौराहे का एक अदना सा होमगार्ड भी हमें पत्रकारिता कि शुचिता पर लेक्चर देने लगा है। यही है वो परिभाषा जो हमने स्वयं गढ़ी है।
यह ऊपर की पूरी बात हमने इसलिए लिखी कि इस सबको देखने-जानने में हम आज तक यह नहीं समझ सके कि आदर्श से भी ऊपर समुद्र मंथन जैसी किसी क्रिया से निकली देव श्रेष्ठ पत्रकारिता की वह चिड़िया, जिसके दुर्बल होने का रोना इन साक्षात्कार सामग्रियों में आज कल रोया जा रहा है, ऐसी अद्भुत चिड़ी हमें तो कहीं नहीं मिली। अगर मिलती तो उसकी पूंछ के एकाध पंख की क्षणिक हवा खाकर हम भी सबसे पीछे की गिनती के चिड़ीमार सही कुछ न कुछ तो बन जाते-कहलाते ही, तो फिर है कहाँ यह चिड़ी? समाधान पर कोई बात न करके केवल समस्या पर चहचहाने वाली यह श्रेष्ठ पत्रकारिता की चिड़ी मिले तो हमें भी बताना। हो सकता है स्थिति पहले से कुछ बदली हुई हो या कुछ खराब भी हुई हो, परन्तु ऐसा तो कभी नहीं लगा कि पब्लिकली कमियों को रोया जाना चाहिए। मेरी तुच्छ समझ से तो अभी-
’तुम पूछो और मैं न बताऊँ, ऐसे तो हालात नहीं,
एक जरा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं’
Amrendra Pratap Singh
9415027811
sharpmedia24@gmail.com
18.7.16
छुटकही : आखिर कहां है ये चिड़ी!
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