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13.6.23

अंग्रेज़ गए, रियासतें गईं, पर ‘राजा‘ बढ़ने लगे!

Ashwini Kumar shrivastava-

- देश में वीआईपी कल्चर कम होने की बजाय लगातार बढ़ता जा रहा 
- ज्यादातर वीआईपी करते हैं जनता के बीच रियासतों के राजा सा बर्ताव 

आजादी के तीन साल के भीतर देश में संविधान लागू कर दिया गया।इस मकसद से कि अब आम जनता ही नहीं बल्कि खुद को वीआईपी समझने वाले लोग भी संविधान और देश के नियम कानून के अनुसार चलें। लेकिन बाद में बनने वाली हर सरकार ने किया संविधान की इस भावना का ठीक उल्टा। 

वीआईपी कल्चर को बढ़ावा देते हुए ऐसे लोगों के लिए हर सरकार ने वेतन- भत्ते, पेंशन, सब्सिडी, सुविधाएं, मकान, गाड़ी, स्टाफ, सुरक्षा आदि में ज्यादा से ज्यादा बढ़ोतरी ही की। 
जबकि होना तो यह चाहिए था कि सरकारें धीरे-धीरे इस वीआईपी कल्चर को खत्म करती रहतीं। अब तो हालात यह हैं कि इस वीआईपी कल्चर ने ही देश में हर कहीं राजा रजवाड़े पैदा कर दिए हैं। जो न सिर्फ आम लोगों के लिए बड़ा सर दर्द बन चुके हैं बल्कि देश के लोकतंत्र के लिए भी बड़ा खतरा हैं। 

कैसे, यह जानने के लिए पहले यह जानना होगा कि संविधान बनाने की जरूरत क्यों पड़ी। दरअसल संविधान बनने से पहले देश में बड़ी तादाद में तमाम ऐसे लोग थे, जो किसी भी नियम- कानून से खुद को ऊपर मानते थे। 

मसलन सैकड़ों रियासतों के राजा- रजवाड़े, धार्मिक कट्टरपंथी नेता, क्षेत्रीय/ भाषाई/ नस्लीय/ जातीय राजनीति करके आपस में लड़वाने वाले नेता, भ्रष्ट नेता, आईएएस, आईपीएस, अफसर, माफिया, धनकुबेर व्यापारी, साधू - संत/ पंडित,  मूल्ला - मौलवी या सेना- पुलिस आदि बलों के ताकतवर लोग आदि। 

इतनी बड़ी तादाद में खुद को नियम कानून से ऊपर मानने वाले ऐसे ही वीआईपी लोगों को देखकर ही संभवतः आजादी देने से पहले तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि भारत लंबे समय तक लोकतंत्र और आजाद देश बना रह पाएगा। उन्हें यह यकीन था कि चाहे जितने नियम - कानून बना दिए जाएं, भारत के ये तथाकथित वीआईपी लोग हर नियम कानून की धज्जियां उड़ा देंगे। 

चर्चिल सही साबित न हों और आजाद भारत में कोई नियम कानून की धज्जियां न उड़ाए, इसके लिए ही आजादी के तीन साल के भीतर संविधान बनाया गया। संविधान बनने से पहले भारत में आजादी के समय ही एक बड़ी अड़चन आ भी चुकी थी, जब सैकड़ों रियासतों का विलय भारत में किया गया था। विलय होने के बावजूद उन रियासतों के राजा आजाद भारत में विशेषाधिकार चाहते थे, जो किसी भी आम नागरिक के मुकाबले उन्हें अलग ही दर्जा दे सके। 

संविधान बनने के बाद सरकार ने कई कड़े कदम उठाकर सबसे पहले उन्हें ही यह एहसास कराया कि आजाद भारत में अब वे भी आम नागरिक ही हैं। उन्हें भी संविधान और कानून के सामने किसी आम आदमी की तरह ही नतमस्तक होना पड़ेगा। हालांकि तब भी कई मांगें सरकार को माननी पड़ी थीं। 

जिनमें से एक उन्हें हर साल प्रिवी पर्स के रूप में सरकारी खजाने से मिलने वाला धन था। यह धन भारत के उन 562 राजाओं को लंबे समय तक सरकार देती थी, जिसे दशकों बाद 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने खत्म कर दिया था। 

फिर भी उन दशकों में इन राजाओं को वाकई यह यकीन नहीं आ रहा था कि अब वे भी आम नागरिक हैं। इसलिए आजादी के वक्त हुए रियासतों के एकीकरण के बावजूद वे हर चुनाव में अपनी अलग ही पार्टी बनाकर चुनाव लड़ते रहे। इस उम्मीद में कि उनका राज एक बार फिर लौट आएगा। 

जनता ने उन्हें पहले ही चुनाव में नकार दिया तो उनकी पार्टी खत्म हो गई लेकिन उसके बाद उन राजा - महाराजाओं ने बैक डोर से एंट्री लेकर कांग्रेस और अन्य दलों के टिकट पर चुनाव लड़ना शुरू कर दिया। 

इससे वह पूरी तरह से आम नागरिक बनने से बच गए और सांसद- विधायक आदि पद लेकर फिर से खुद को किसी रियासत का महाराजा समझने लगे। 

धीमे- धीमे उनकी इसी सोच को उन बाकी श्रेणियों के उन्हीं वीआईपी लोगों ने भी अपना लिया, जिन्हें इतनी बड़ी तादाद में भारत में मौजूद देखकर चर्चिल ने उसे वक्त भारत में लोकतंत्र और आजादी के बने रहने पर संदेह जताया था। 

अगर समय रहते इस वीआईपी कल्चर को खत्म नहीं किया गया तो भारत का लोकतंत्र वापस राजा - महाराजाओं के प्राचीन सामंती तंत्र में न बदल जाए, इसका खतरा भी मंडराता रहेगा।
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