सन २०१४ के लोकसभा चुनाव में जब मोदी को अप्रत्याशित बहुमत मिला था तब भी इस बात की चर्चा हुई थी कि इसमें कमाल उनके प्रचार तंत्र और इवेंट मैनेजरों का है | इसके बाद बिहार चुनाव में नितीश को अंदाजे से बहुत ज्यादा बहुमत मिला तो फिर यही बात कही जा रही है और इस चर्चा के चलते वितंडा विशेषज्ञ प्रशांत किशोर तो रातों रात सुपर स्टार बन गये है | प्रचार की महिमा का यह तथ्य कोई पहली बार नहीं आया | वारसा संधि के एक देश में कम्युनिष्ट निजाम ख़त्म होने के बाद जो पहला चुनाव हुआ उसमे राष्ट्रपति पद पर एक ऐसे उम्मीदवार ने महगे चुनाव प्रचार के जरिये २५ % तक वोट बटोर लिए थे जो वर्षों से अमेरिका में रहकर व्यवसाय कर रहा था और इस बीच एक बार भी अपने देश में आया तक नहीं था |
कल्पना करिए ऐसे देश में जहा नई चुनाव पध्दति के लागू होने के कुछ महीने पहले तक जनता को राजनैतिक रूप से शिक्षित करने के लिए दशकों से केडर क्लास चलते रहे हो उस देश में भी प्रोपोगंडा से जनमत का रुख आसानी से मोड़ लिए जाने की नजीर सामने आई तो साधारण देशो में प्रचार तंत्र की महिमा कितनी शक्तिशाली होगी यह अनुमान लगाया जा सकता है | इसीलिए कहा जाता था कि जनतंत्र और लोकतंत्र में फरक है लोकतंत्र में बुर्जुआजी चुनाव होते है जिनमे साधन संपन्न लोग गरीब उम्मीदवारों और पार्टियों पर आसानी से बढ़त हासिल कर लेते है | अमेरिका पहले से ही इसका सबसे बड़ा माडल बना हुआ था लेकिन भारत में भी इसकी महत्ता काफी पहले ही सामने आ गयी थी | राजीव गांधी ने १९८४ के लोकसभा चुनाव में जानीमानी विज्ञापन एजेंसी रेडीफ्यूजन को हायर किया था जिसने अखवारों के लिए हर दिन लगभग पूरे पूरे पेज के आकर्षक विज्ञापन गढे जिसमे खर्चा तो बहुत हुआ लेकिन इस प्रचार ने कांग्रेस की ऐसी आंधी चलाई जिसमे सारा विपक्ष तिनका बनकर उड़ गया | अटल बिहारी वाजपेई और चंद्रशेखर जैसे दिग्गजों तक को चुनाव हारना पड़ा |
फिर भी प्रोपोगंडा पर उतना भरोसा कायम नहीं हो पाया था जितना मोदी युग में यह कारक शक्तिशाली माना जाने लगा है | बिहार चुनाव के बाद तो हालत यह है कि हर कोई प्रशांत किशोर को पहले से लपक लेना चाहता है | राहुल गांधी उनके साथ अकेले में बैठक कर चुके है | भारतीय जनता पार्टी वाले भी गोपनीय रूप से उनसे फिर तार जोड़ने की मशक्कत में जुटे हुए है | कई और लोग भी उन्ही की तरह विशेषज्ञता के दावे के साथ चुनाव मेनेज करने का ठेका लेने के लिए आगे आ गये है और उन्हें भी तमाम क्लाइंट मिलने के आसार है | इससे खतरनाक सन्देश यह जा रहा है कि उम्मीदवार और पार्टियां लोगो में मुद्दों पर आधारित वस्तुनिष्ठ विवेक जागृत कर उन्हें अपने पक्ष में मोड़ने की कोशिश करने की बजाय उन्हें भड़कीले चुनाव की चकाचौंध फैलाकर अपना मतलब सिध्द करने का प्रयास करने लगे है |
यह प्रयास लोकतंत्र की तासीर को एकदम पलट कर रख देने वाला है जिसके दूरगामी नतीजे भारत जैसे गहरे वैषम्य वाले देश के लिए बहुत नुकसानदेह हो सकते है | बिहार के चुनाव में महागठबंधन की सफलता के पीछे प्रशांत किशोर का प्रचार संयोजन एक कारण जरूर है लेकिन महागठबंधन की सफलता का एक मात्र श्रेय उनको देना एकदम भ्रामक है | अगर ऐसा होता तो जदयू सबसे बड़ा दल बनता , राजद नहीं | जदयू ने राजद से ज्यादा सीटों पर चुनाव भी लड़ा था और प्रशांत किशोर ने भी मुख्य रूप से जदयू के पक्ष में ही प्रचार किया था | सच्चाई यह है कि प्रशांत किशोर से ज्यादा लालू का जादू मतदाताओं के सर चढ़कर बोला क्योकि लालू को यह मालूम था कि पिछड़ी जातियों में कौन सी भाषा और मुहावरे बैकवर्ड प्राइड को जगाने और बढाने का काम करेंगे |
चूँकि बिहार में बैकवर्ड सबसे ज्यादा है और उन्हें व् मुसलमानों को जोड़कर लालू ने उस करिश्मे को अंजाम दिया जिसका अनुमान कोई नहीं लगा पाया था | यही नहीं लालू ने सवर्ण प्रभुत्व के खिलाफ वंचित जातियों के सनातन प्रतिकार को भी पूरी उग्रता से जगाने में सफलता हासिल की जिससे जीतनराम मांझी और राम विलास पासवान जैसे महारथी शिखंडी की हालत में पहुच गये और दलितों का वोट भी महागठबंधन ने झटक लिया | इसलिए लालू की भूमिका को कमतर नहीं आंका जाना चाहिए | यह इसलिए भी जरूरी है क्योकि इससे पता चलता है कि लोकतंत्र में मुख्य रूप से राजनीतिक प्रक्रियाये ही निर्णायक होती है | प्रोपोगंडा व् अन्य कारक केवल सपोर्टिंग है |
kp singh
bebakvichar2012@gmail.com
25.11.15
लोकतांत्रिक चुनावों में प्रोपोगंडा के महत्व को बढ़ा चढ़ा कर दिखाने की कोशिश
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