व्यंग्य लेख
शाही घर में विकास की पैदाइश क्या हुई, जहाँ देखो वहीं उसे लेकर बहस-मुवायशा जोर पकड़ गया. शहर हो या क़स्बा, गांव हो या दुकान हर जगह आशावादी लोग निराशा वादी द्रष्टिकोण अपनाये नज़र आने लगे चौराहों, नुक्कड़ों और चबूतरों पर बैठे लोग जय जय करने के बजाय भ्रष्ट्रासुर, धोखेबाज़,लम्पट ना जाने क्या क्या संज्ञा देकर आम जनता में मची त्राहि-त्राहि व पीड़ा की चर्चा में जुट गए , इस भीड़ में मुझे तो बहुतेरे ऐसे लोग भी दिखाई पड़े जो चुनाव के दौरान नारों की बूँदा-बाँदी में खुद को भिगोते ही नहीं थे बल्कि लोट तक जाते थे ,वो जो वादों की बिजलियाँ में मात्र उम्मीदों की किरण देखते ही नहीं थे बल्कि अपने मिलने जुलने वाले व पड़ोसियों को भी किरणें दिखाकर लुभाते थे, साहब के भाषणों की मूसलाधार वर्षा और दावों की गर्जना का गुणगान करते नहीं थकते थे जिनकी मेहनत व त्याग-तपस्या से परिणाम भी बेहतर आये.चुनाव ऋतु समाप्त होने के बाद इनसे जुड़े सारे लोग जो बड़ी उम्मीदें भी बाँध बैठे थे, अच्छे दिनों के आने की उम्मीद सबको थी आज वो सारे निराश थे,मैंने एकाएक हुए इस बदलाव को जब ऐसे लोगों से मिलकर जानने की कोसिस की तो कुछ लोग तो तमतमा से गए, बोले आपको सब पता है--- मैंने कहा आप कुछ बताएं, मैं आपसे जानना चाहता हूँ. बोले क्या बताएं पहले तो भाषणों की गर्जना कर सावधान होने का फरमान सुना दिया की मैं अच्छे दिन लेकर प्रकट हो रहा हूँ प्रकट भी हुए तो 8 नवम्बर की आधी रात को नोट्बंदी के साथ, बोले आज से 500 व 1000 के नोट कागज का टुकड़ा समझो, अब काला धन वालों की खैर नहीं , मैं विकास करके ही दम लूंगा, सच मानिए हममें से किसी को नहीं पता था की विकास शाही खानदान में जय के यहाँ पैदा करेंगें इतना सुनते ही मैं आशावादी लोगों की निराशा का कारण काफी हद तक समझ चुका था मैंने ढाढस बंधाते हुए कहा आप सबकी पीड़ा को मैं समझ सकता हूँ वो रात मैं भी आज तक नहीं भूल पाया हूँ मुझे भी वो रात जिन्दगी भर याद रहेगी.
अब मेरे सामने भी अच्छे दिनों की पहली किस्त के रूप में प्रगट हुई नोट बंदी वाली 8 नवम्बर की रात्रि वाला सारा द्रश्य ताज़ा हो चला था क्योंकि वो रात मेरे व मेरी बेगम के लिए भी कई छुपी यादें लेकर प्रकट हुई थी .हुआ यूँ था की बेगम रोजमर्रा की तरह उस दिन भी अपनी दीदी एकता कपूर का ही कोई सीरियल देखने में मस्त थी और मुझे रह रह कर अच्छे दिन का सपना आ रहा था, इसलिए मैं चाहता था की किसी तरह सीरियल खत्म हो और मुझे न्यूज़ चैनल देखने का मौका मिले. खैर देर से सही किन्तु मौका आया और मैं मौका मिलते ही न्यूज़ चैनल पर जा धमका. फरमान जारी था कुछ इस तरह ‘आज अर्धरात्रि से 500 व 1000 के नोट कागज का टुकड़ा मात्र रह जाएगा. अब काला धन वालों की खैर नहीं , मैं विकास करके ही दम लूंगा आदि आदि अभी फरमान जारी ही था की बेगम को चक्कर आ गया, मैं उनकी हालत देख परेशान हो गया, रात का समय करू भी तो क्या करू, कुछ समझ में ना आये, खैर चेहरे पर पानी छिड़का और थोड़ा पानी पिलाया भी, ऊपर वाले के रहमोकरम से वो हिलीं, बोली मेरा ब्लड प्रेसर बढ़ गया था, मैंने पूंछा पहले तो कभी नहीं ऐसा हुआ थोडा रुककर बोलीं आपको हमने बताया ही कहाँ था. मायके जब भी जाती थी तो मम्मी तो मुझे रुपये देती ही थी सारे भाई भी हर बार मेरे हाँथ में रूपये रखते थे. वो सारा रुपया मैंने जोडकर रखा हुआ है सारे के सारे नोट 500 व 1000 के ही हैं. रहस्य खुला तो मैंने कहा इसमें परेशानी की ऐसी कौन सी बात है कोई काला धन तो है नहीं, खैर यहाँ भी मुझे ढाढस ही बधांना पड़ा, रात गयी पर बात नहीं गयी, सुबह होते ही फिर चिता की लकीरें बेगम के माथे पर खिंची नज़र आयीं, लब्बोलुआब यह की किसी तरह धक्के खाकर बैंक से एक हफ्ते बाद मामले को सुलटा पाया. अभी कुछ दिन ही गुज़रे थे इसका असर हर जगह दिखने लगा लोग बैंक में धक्के ही नहीं खाए कुछ खुदा गंज भी पहुँच गए, थोड़े दिन बाद ही फिर महंगाई ने रसोई में कब्जा कर लिया, चूल्हा चौका सब सहम गए, कटोरी से दाल ईमानदारी की तरह गायब हो गई, थाली की रोटियां नैतिकता की तरह कम हो चलीं, तंगहाली के कारण चूहे गरीबों के पेट में घुसकर उछल-कूद मचाने लगे, स्थित यहाँ तक आ पहुँची की आम आदमी यह कहने को आज विवश है कि इससे अच्छे तो अपने पुराने दिन ही थे, कम से कम दाल रोटी तो मिल ही जाती थी, पर अब तो वह भी नहीं बचती नहीं दिखती , जीएसटी की मार से अलग आम व्यापारी खुद को हताहत महसूस कर रहें हैं, जगह जगह इस तरह की छिड़ी चर्चाओं से साफ है इस तरह के अच्छे दिनों को बर्दास्त करने की क्षमता अब लोगों में शायद रही नहीं । हाला की 8 नवम्बर की रात अंधेरे में जब बुरे दिन जाने और काला धन बाहर आने की बात की जा रही थी तो संदेह मुझे भी हो रहा था किन्तु आशायें ज्यादा थीं, निराशावादी भीड़ तो अब बढ़ी है. अभी मैं आप बीती साझा कर लोगों को ढाढस बंधा ही रहा था की एक सज्जन की आवाज कुछ कड़क हो गई , बोले क्या बकबक कर रहे हो यार ! विकास की पैदाइस शाही खानदान में होनी थी सो हो गयी, अच्छे दिन अडानी, अम्बानी, जय, बाबा के आने थे सो आ गए. मैंने चौंकते हुए कहा-भैया ! आप मुझसे क्यों नाराज हो रहे हो मुफ्त का माल तो वो मेनका है जो विश्वामित्र जैसे तपस्वी के तप को भी भंग कर देती है, तो फिर जय विजय को क्या धिक्कारना भाई ! रही बात अदानी अम्बानी की तो कुछ पाने के लिए कुछ लगाना भी पड़ता है आप तो खामखाँ हम पर लाल पीले हुए जा रहें हैं, अच्छा गुस्सा ठंढा करो पहले ये बताओ आपने जन धन खाता खुलवा लिया या नहीं, नहीं खुलवाया तो खुलवा लो उसमे कम-से कम बीस हजार रूपए जमा कर दो, अभी निराश न हो इंतज़ार करो हो सकता है 15 लाख आपके भी खाते में टपक जाएँ, माना कि लालच बुरी बला है पर यह बला इतनी अदा से बुलाती है कि तुमने बुलाया और हम चले आये रे का गाना ताज़ा हो आता है आप सब भी तो अदाओं में ही फँस कर अड़ोसी पड़ोसी सब को फसा दिए, लोगों के जीवन की गाढ़ी कमाई जो बेचारे आड़े वक्त के काम आने के लिए रखे थे वो भी जमा करा दिए, अब क्या बैंक हम आप जैसे आम आदमी का मुँह देखकर कर्ज देगी, हमको आपको तो कागजात के नाम पर इतने चक्कर लगवायेगी कि चक्कर लगाते लगाते ही दिमाग चकरा जाएगा । वह तो ईमानदारी का मुखौटा पहने और सिफारिशों का तमगा लगाए माल्या और जय जैसे लोगो को माला पहनाकर कर्ज देती है, मैं अभी अपनी बातों का ख़त्म भी नहीं कर पाया था की भीड़ से एक आवाज़ आयी लगता है ये भी शाही खानदान का पैरोकार है इतना सुनते ही मैं वहां से खिसक लिया एकदम डरा सहमा लाचार सा यह कहते हुए की मैं भी आप सबके बीच का एक पड़ोसी ही हूँ अपने कौन बहुत अच्छे दिन चल रहें हैं !
रिजवान चंचल
राष्ट्रीय महासचिव जागरण मीडिया मंच
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14.10.17
शाही घर में विकास की पैदाइश
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