Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

16.10.17

मोदी जी, हमारे विश्वविद्यालय, विद्यालय कम, नकलालय ज्यादा हैं : वेद प्रताप वैदिक

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पटना विश्वविद्यालय के शताब्दि समारोह में हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अचानक पता नहीं क्या सूझी, उन्होंने घोषणा कर दी कि देश के 20 विश्वविद्यालयों को अगले पांच साल के लिए वे 10 हजार करोड़ रु. देंगे यानेे इनमें से हर विद्यालय को हर साल 100 करोड़ रु. मिलेंगे। क्यों मिलेंगे ? क्योंकि हमारे प्रधानमंत्रीजी उन्हें विश्व-स्तर का बनाना चाहते हैं। यह छलांग तो अच्छी है लेकिन अभी तो हाल यह है कि भारत का एक भी विश्व विद्यालय विश्व-स्तर का नहीं है। विद्यालय के पहले विश्व शब्द जुड़ा हुआ है। यह शुद्ध मजाक है। उसे पहले विद्यालय तो बनाइए, फिर उसे विश्वविद्यालय बनाना। हमारे विश्वविद्यालय, विद्यालय कम, नकलालय ज्यादा हैं। उनका काम नकलचियों कीं फौज खड़ी करना है।
लार्ड मैकाले के वंशजों की संख्या में वृद्धि करना है। इसी का परिणाम है कि पिछले 70-80 साल में हम दुनिया को एक भी मौलिक दर्शनशास्त्री, अर्थशास्त्री, राजनीतिशास्त्री या समाजशास्त्री नहीं दे सके। जहां तक विज्ञान, चिकित्सा, कानून, गणित जैसे विषयों का सवाल हैं, उनमें भारतीयों ने अपनी प्रतिभा का परिचय तो दिया है, लेकिन क्या किसी विश्वविद्यालय ने नालंदा, तक्षशिला और विक्रमशिला जैसा स्थान दुनिया में पाया है ? नहीं। क्यों ? क्योंकि अंग्रेज के बनाए ढर्रे पर चल रहे हमारे विश्वविद्यालयों को नई दिशा देनेवाला कोई माई का लाल भारत में पैदा ही नहीं हुआ। देश में होनेवाली ज्ञान-विज्ञान की सारी उच्च-शिक्षा और गवेषणा अंग्रेजी में होती है।

आज देश में एक भी विश्वविद्यालय ऐसा नहीं है, जहां कानून, मेडिकल, विज्ञान, गणित और अंतरराष्ट्रीय राजनीति की उच्च शिक्षा हिंदी में होती हो। अन्य भारतीय भाषाओं की बात तो जाने ही दीजिए। क्या यह स्थिति शर्मनाक नहीं है ? किसी भी राष्ट्रवादी सरकार के डूब मरने के लिए यह काफी है। अंग्रेजी के वर्चस्व के कारण हमारे विद्वान पश्चिमी देशों की दबैल में आ जाते हैं। नकल करने लगते हैं। उनकी मौलिक चिंतन की शक्ति को लकवा मार जाता है। वे अपने पश्चिमी बौद्धिक मालिकों पर निर्भर हो जाते हैं। उनके फतवे, उनके प्रमाण पत्र, उनकी शोधवृत्तियां, उनकी नौकरियां, उनकी डिगरियां, उनके पुरस्कार, उनकी मान्यताएं ही हमारे बौद्धिकों को शिरोधार्य हो जाते हैं।

इन नकलचियों से लदे विश्वविद्यालयों पर 10 हजार करोड़ रु. बर्बाद करके आप क्या पाएंगे ? पहले अपनी शिक्षा-प्रणाली को सुधारिए। मैं जानता हूं कि हमारे नेता इस मामले में पूरे दीवालिए हैं। जरा हाल देखिए, अपने वर्तमान नालंदा विश्वविद्यालय का ? मेरे सुझाव पर बने भोपाल के अटलबिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय का ? और वर्धा के गांधी वि.वि. का। शिक्षा पर खर्च बढ़ाने का मैं स्वागत करता हूं लेकिन इस खर्च को हवा में मत उड़ाइए। पहले शिक्षा में मैकाले के किए हुए पंचर को जोड़िए और फिर शिक्षा के पहिए में हवा भरिए। वरना पंचरवाले पहिए में हवा भरते-भरते आप खुद हवा हो जाएंगे।

लेखक डॉ. वेदप्रताप वैदिक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं. 

No comments: