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13.8.10

अस्त पंद्रह अगस्त

अखिलेश उपाध्याय/ कटनी

स्वतंत्रता के बाद हमारे देश ने विघिन्न क्षेत्रो में आश्चर्यजनक  तरीके से प्रगति की है लेकिन अभी भी बहुत कुछ करना बाकि है. विदेशी शासन से तो हम मुक्त है किन्तु अधिकार, प्रभुता और धन के मद के कारण अपने ही स्वार्थ, लोभ, आलस और दुर्वृत्तियो के गुलाम हो गए है. भ्रष्टाचार, अनुशासनहीनता, अराजकता, चोरबाजारी, निरंतर बढती कीमते, गरीबी, छुआछूत जैसे अनेक दैत्य हमारे देश की जनता  को खाए जा रहे है.

भौतिक साधनों के विकास के लिए हमने कई योजनाये बनाई  अच्छे मानव और अच्छा समाज बनाने के लिए भी हमने कई योजनाये बनाई किन्तु अच्छे मानव और अच्छा समाज बनाने की ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया. इसी का परिणाम है देश के नैतिक मूल्य का ह्रास हो रहा है.


योजनाये ढीले-ढीले ढंग से चलाई जा रही है और उनका लाभ गरीबो को पहुचने से पहले ही समाप्त हो जाता है. योजनाओं के सफल सञ्चालन के लिए अच्छे और सुयोग्य व्यक्ति चाहिए जिसका इस समय नितांत आभाव है.

इस समय देश की सबसे बड़ी आवश्यकता है निःस्वार्थ और सेवापरायण व्यक्ति की जो न के बराबर है. सारे राष्ट्र को सन्मार्ग पर चलाना , समाज के नैतिक स्तर को ऊचा बनाये रखना, जनता में त्याग और सेवा की भावना को कूट-कूट कर भरना यह मुख्यतः धार्मिक नेताओं और जनप्रतिनिधियो का कर्तव्य है.

पहले इन लोगो के सामने बड़े-बड़े राजा और मंत्री पूजीपति और प्रशासक भी माथा टेकते रहे है. आज के समाजसेवक स्वयं  की सेवा में उत्सुक है न की दूसरो की सेवा में ऐसे में न्याय, सत्य और ईमानदारी को प्रोत्साहन मिलने के बजाये काले धन के उत्पादन को बढ़ावा मिल रहा है. तो क्या  हमें हार मानकर बैठ जाना चाहिए ? कदापि नहीं.  क्योकि अब भी हमारे देश में उन बुद्धिजीविओ तथा श्रेष्टजनो की संख्या बाकी है, जिनके पास सुख - सुविधा, मान-प्रतिष्ठा और समय है. उनकी शक्ति व्यर्थ जा रही है क्योकि उनमे से अधिकतर निष्क्रिय और सुशुप्त है और अपने ही भोग विलास में डूबे है लेकिन उनकी यह जिमेदारी बनती है की वे देश में उदात्त और  कर्मठ नागरिको को बनाए.


गांधीजी के समय में विचारक, लेखक, वकील, डाक्टर, अध्यापक, पत्रकार आदि सभी ने स्वतंत्रता संग्राम में बहुत मूल्यवान भूमिका निभाई लेकिन आजादी पा जाने के बाद उनकी अन्तःप्रेरणा  लुप्त हुई सी जान पड़ती है.  दुर्भाग्यवश हमारे देश में गन्दी राजनीती और विकृत धर्म का गठबंधन हो गया है. हमें जीवन का पुनर्गठन करना है. गीता के इन उपदेशो के आधार पर की जो  परमात्मा के दिए हुए सुखो को अकेले ही भोगता है जो संसार  चक्र को चलने में योगदान नहीं करता वह चोर है पापी है वह व्यर्थ ही जीता है .

आईए  हम स्वामी विवेकानंद के इन अमर शव्दों को ह्रदय में बिठाले-
इतनी तपस्या के बाद मै जान पाया हूँ की सर्वोच्च सत्य यह है की वह (परमेश्वर) प्रत्येक प्राणी  में स्थिर है. यह सब उसी के असंख्य रूप है वही इश्वर की सच्ची आराधना कर रहे है. हर जगह उसके हाथ, पैर और कान दिखाई देते है. परमात्मा के ईसी विराट रूप की जो हमारे चारो ओर है, सेवा आराधना हमें सर्व प्रथम करनी है.

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