संजय सक्सेना,लखनऊ
लखनऊ से लगा जिला बाराबंकी वैसे तो अफीम की खेती के लिए जाना जाता है,लेकिन अब यह जिला विलुत्प होते गिद्धों को पुनःजीवनदान देने के चलते चर्चा में आ गया है। हाल ही में एक व्यक्ति ने विलुप्त होने केे कगार पर पहुंच चुके गिद्धों का वीडियो बनाकर सोशल मीडिया में डाला तो यह खूब वायरल हुआ। गिद्ध एक ऐसा पक्षी है जो देखने में भले ही बहुत कुरूप लगता हो,लेकिन सृष्टि के लिए इसकी उपयोगिता अन्य तमाम पक्षियों और जानवरों से कहीं अधिक है।
मुर्दाखोर गिद्ध को प्रकृति का सफाईकर्मी कहा जाता है। वे बड़ी तेजी और सफाई से मृत जानवर की देह को सफाचट कर जाते हैं और इस तरह वे मरे हुए जानवर की लाश में रोग पैदा करने वाले बैक्टीरिया और दूसरे सूक्ष्म जीवों को पनपने नहीं देते। लेकिन गिद्धों के न होने से टीबी, एंथ्रेक्स, खुर पका-मुंह पका जैसे रोगों के फैलने की काफी आशंका रहती है। इसके अलावा चूहे और आवारा कुत्तों जैसे दूसरे जीवों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई। इन्होंने बीमारियों के वाहक के रूप में इन्हें फैलाने का काम किया। आंकड़े बताते हैं कि जिस समय गिद्धों की संख्या में कमी आई उसी समय कुत्तों की संख्या 55 लाख तक हो गई। इसी दौरान (1992-2006) देश भर में कुत्तों के काटने से रैबीज की वजह से 47,300 लोगों की मौत हुई।
बहरहाल, बात करीब 30-35 वर्ष पुरानी है। 1990 के उत्तरार्द्ध में जब देश में गिद्धों की संख्या में तेजी से गिरावट होने लगी उस दौरान गिद्धों की मौत के कारणों पर अध्ययन करने के लिये वर्ष 2001 में हरियाणा के पिंजौर में एक गिद्ध देखभाल केंद्र स्थापित किया गया। कुछ समय बाद वर्ष 2004 में गिद्ध देखभाल केंद्र को उन्नत करते हुए देश के पहले ‘गिद्ध संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र’ की स्थापना की गई। जब गिद्धों की संख्या में गिरावट का कारण तलाशा गया तो पता चला कि इसकी वजह डिक्लोफिनेक दवा है, जो पशुओं के शवों को खाते समय गिद्धों के शरीर में पहुँच जाती है। इसके बाद पशु चिकित्सा में प्रयोग की जाने वाली दवा डिक्लोफिनेक को वर्ष 2008 में प्रतिबंधित कर दिया गया। जिसका असर भी दिखाई देने लगा।
इसी की एक बानगी है बाराबंकी जिले के महमूदपुर गांव में इतनी बड़ी संख्या में गिद्धों का दिखाई देना। डाइक्लोफेनिक दवा की मारक क्षमता को मात देकर गिद्ध अब फिर से इस आबोहवा में लौटने लगे हैं तो प्रकृति के इन ‘सफाईकर्मियों’ की वापसी के संकेत मिलने से प्रकृति प्रेमी खुश हैं। वहीं वन विभाग के अधिकारी भी इसे अच्छा संकेत मान रहे हैं।
बताते चलें करीब बीस साल पहले घाघरा की तराई समेत अन्य इलाकों में हर जगह गिद्धों के बड़े झुंड अक्सर दिखाई देते थे। हर एक झुंड में 40-50 गिद्धों की मौजूदगी आम होती थी। 90 के दशक में यह सबसे ज्यादा आबादी वाला परभक्षी पक्षी भी था। लेकिन 1992 से 2005 के बीच इनकी संख्या 99 फीसदी तक घट गई। इसका मुख्य कारण पशुओं के इलाज में इस्तेमाल की जाने वाली डाइक्लोफेनिक दवाओं के इस्तेमाल को माना जा रहा है। इस दवा के इस्तेमाल के बाद मरने वाले पशु का मांस खाने से इनके गुर्दे फेल हो जाते थे।
गिद्धों की कमी का असर सबसे अधिक पारसी समाज के एक अहम रिवाज पर भी पड़ा। पारसी समुदाय अपने मृतकों को प्रकृति को समर्पित करते हैं। इसके लिए वे मृत देह को ऊंचाई पर स्थित पारसी श्मशान में छोड़ देते हैं जहां गिद्ध उन्हें खा लेते थे। पर गिद्धों के न रहने पर उनकी यह परंपरा लगभग खत्म सी हो गई है। आंकड़े बताते हैं कि सफेद पीठ वाले गिद्ध की संख्या 43.9 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से गिर रही थी। गिद्धों के प्रजनन की दर बहुत धीमी होती है। वह एक बार में एक ही अंडा देते हैं जिसे लगभग 8 महीने सेना पड़ता है तब जाकर बच्चा अंडे से बाहर आता है।
लखनऊ से लगा जिला बाराबंकी वैसे तो अफीम की खेती के लिए जाना जाता है,लेकिन अब यह जिला विलुत्प होते गिद्धों को पुनःजीवनदान देने के चलते चर्चा में आ गया है। हाल ही में एक व्यक्ति ने विलुप्त होने केे कगार पर पहुंच चुके गिद्धों का वीडियो बनाकर सोशल मीडिया में डाला तो यह खूब वायरल हुआ। गिद्ध एक ऐसा पक्षी है जो देखने में भले ही बहुत कुरूप लगता हो,लेकिन सृष्टि के लिए इसकी उपयोगिता अन्य तमाम पक्षियों और जानवरों से कहीं अधिक है।
मुर्दाखोर गिद्ध को प्रकृति का सफाईकर्मी कहा जाता है। वे बड़ी तेजी और सफाई से मृत जानवर की देह को सफाचट कर जाते हैं और इस तरह वे मरे हुए जानवर की लाश में रोग पैदा करने वाले बैक्टीरिया और दूसरे सूक्ष्म जीवों को पनपने नहीं देते। लेकिन गिद्धों के न होने से टीबी, एंथ्रेक्स, खुर पका-मुंह पका जैसे रोगों के फैलने की काफी आशंका रहती है। इसके अलावा चूहे और आवारा कुत्तों जैसे दूसरे जीवों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई। इन्होंने बीमारियों के वाहक के रूप में इन्हें फैलाने का काम किया। आंकड़े बताते हैं कि जिस समय गिद्धों की संख्या में कमी आई उसी समय कुत्तों की संख्या 55 लाख तक हो गई। इसी दौरान (1992-2006) देश भर में कुत्तों के काटने से रैबीज की वजह से 47,300 लोगों की मौत हुई।
बहरहाल, बात करीब 30-35 वर्ष पुरानी है। 1990 के उत्तरार्द्ध में जब देश में गिद्धों की संख्या में तेजी से गिरावट होने लगी उस दौरान गिद्धों की मौत के कारणों पर अध्ययन करने के लिये वर्ष 2001 में हरियाणा के पिंजौर में एक गिद्ध देखभाल केंद्र स्थापित किया गया। कुछ समय बाद वर्ष 2004 में गिद्ध देखभाल केंद्र को उन्नत करते हुए देश के पहले ‘गिद्ध संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र’ की स्थापना की गई। जब गिद्धों की संख्या में गिरावट का कारण तलाशा गया तो पता चला कि इसकी वजह डिक्लोफिनेक दवा है, जो पशुओं के शवों को खाते समय गिद्धों के शरीर में पहुँच जाती है। इसके बाद पशु चिकित्सा में प्रयोग की जाने वाली दवा डिक्लोफिनेक को वर्ष 2008 में प्रतिबंधित कर दिया गया। जिसका असर भी दिखाई देने लगा।
इसी की एक बानगी है बाराबंकी जिले के महमूदपुर गांव में इतनी बड़ी संख्या में गिद्धों का दिखाई देना। डाइक्लोफेनिक दवा की मारक क्षमता को मात देकर गिद्ध अब फिर से इस आबोहवा में लौटने लगे हैं तो प्रकृति के इन ‘सफाईकर्मियों’ की वापसी के संकेत मिलने से प्रकृति प्रेमी खुश हैं। वहीं वन विभाग के अधिकारी भी इसे अच्छा संकेत मान रहे हैं।
बताते चलें करीब बीस साल पहले घाघरा की तराई समेत अन्य इलाकों में हर जगह गिद्धों के बड़े झुंड अक्सर दिखाई देते थे। हर एक झुंड में 40-50 गिद्धों की मौजूदगी आम होती थी। 90 के दशक में यह सबसे ज्यादा आबादी वाला परभक्षी पक्षी भी था। लेकिन 1992 से 2005 के बीच इनकी संख्या 99 फीसदी तक घट गई। इसका मुख्य कारण पशुओं के इलाज में इस्तेमाल की जाने वाली डाइक्लोफेनिक दवाओं के इस्तेमाल को माना जा रहा है। इस दवा के इस्तेमाल के बाद मरने वाले पशु का मांस खाने से इनके गुर्दे फेल हो जाते थे।
गिद्धों की कमी का असर सबसे अधिक पारसी समाज के एक अहम रिवाज पर भी पड़ा। पारसी समुदाय अपने मृतकों को प्रकृति को समर्पित करते हैं। इसके लिए वे मृत देह को ऊंचाई पर स्थित पारसी श्मशान में छोड़ देते हैं जहां गिद्ध उन्हें खा लेते थे। पर गिद्धों के न रहने पर उनकी यह परंपरा लगभग खत्म सी हो गई है। आंकड़े बताते हैं कि सफेद पीठ वाले गिद्ध की संख्या 43.9 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से गिर रही थी। गिद्धों के प्रजनन की दर बहुत धीमी होती है। वह एक बार में एक ही अंडा देते हैं जिसे लगभग 8 महीने सेना पड़ता है तब जाकर बच्चा अंडे से बाहर आता है।
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