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12.3.20

दंगाइयों के पोस्टर हटाने के मामले में योगी सरकार कोर्ट के सामने झुकने को तैयार नहीं


अजय कुमार, लखनऊ

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार और न्यायपालिका के बीच दंगाइयों के खिलाफ कार्रवाई के तरीके को लेकर मतभेद बढ़ता जा रहा है। एक तरफ योगी सरकार उन अराजक तत्वों पर सख्त से सख्त कार्यवाही कर रही है जिन्होंने बीते दिसंबर माह में लखनऊ सहित पूरे प्रदेश में हिंसा, आगजनी का तांडव किया था जिसके चलते कई निर्दोष लोगों की मौत हो गई थी, वहीं दूसरी तरफ न्यायपालिका है जिसे दंगाइयों की निजता की चिंता सता रही है। कौन सही है? कौन गलत? इसको लेकर कुछ भी दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है, लेकिन जिस तरह से न्यायपालिका सरकार के काम में दखलंदाजी कर रही है, उसे आम जनता सही नहीं मानती है। उसकी नजर में न्यायपालिका दोहरा रवैया अपना कर सरकार की मुश्किल बढ़ाती है, जिससे अराजक तत्वों के हौसले बुलंद होते हैं।

ऐसा इसलिए है क्योंकि एक तरफ प्रदेश में जब कानून व्यवस्था बिगड़ती है तो न्यायपालिका प्रदेश सरकार को फटकार लगाती है दूसरी तरफ जग सरकार कानून व्यवस्था बिगाड़ने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करती है तो न्यायपालिका आड़े आ जाती है। तात्पर्य यह है कि न्यायपालिका को किसी भी मसले पर फैसला देते समय हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि  जनता की स्वीकार्यता और उसकी सुरक्षा से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता है।

हाईकोर्ट ने जो फैसला सुनाया है उसके बाद तो प्रत्येक दंगाई, घोटालेबाज, भ्रष्टाचारी, बलात्कारी, हत्यारे, भगोड़े को निजता के नाम पर मनमानी करने की छूट मिल जाएगी। हाईकोर्ट के फैसले को सही मान लिया जाए तो इसका मतलब यह हुआ कि पुलिस या जिला प्रशासन समय-समय पर तमाम समाचार पत्रों मे कानून तोड़ने वालों के खिलाफ जो विज्ञापन नाम-पते के साथ छपवाती है। वह भी गलत था। अजीब हास्यास्पद स्थिति है। कहीं न्ययापालिका भी तो अपने को धर्मनिरपेक्ष दिखाने के लिए तो ऐसा नहीं कर रही है।

गौरतलब हो ,उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने बीते दिसंबर माह में सीएए के नाम पर लखनऊ में दंगा और आगजनी करने वालों से नुकसान की भरपाई के लिए जो सख्त कदम उठाए थे,उसे हाईकोर्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट से भी करारा झटका लगा है। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगाने से इंकार कर दिया,इसका मतलब यह हुआ कि लखनऊ जिला प्रशासन और पुलिस द्वारा लगाए गए दंगाइयों के नाम पते और फोटोयुक्त होडिंग हटाना पड़ेगा। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इतना जरूर किया है कि मामला सुप्रीम कोर्ट की बड़ी बैंच को भेज दिया है। वहां से ही अब योगी सरकार को कुछ राहत मिल सकती है। वर्ना तो योगी सरकार इस समय बैकफुट पर नजर आ रही है।

बताते चलें लखनऊ में जगह-जगह सड़क किनारे दंगाइयों के बड़े-बड़े होर्डिंग लगाए जाने को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दंगाइयों की निजता का हनन मानते हुए यूपी सरकार से 16 मार्च तक पोस्टर हटाने को कहा था, इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को योगी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी, सुप्रीम कोर्ट की वकेशन बेंच में जस्टिस यूयू ललित और जस्टिस अनिरुद्ध बोस के सामने यूपी सरकार ने अर्जी दाखिल कर कहा था कि सुप्रीम कोर्ट कई बार सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुंचाने के मामले में वसूली करने संबंधी आदेश दे चुका है। सरकार लोकतांत्रिक तरीके से धरना-प्रदर्शन के खिलाफ नहीं है, पर इसकी आड़ में सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान नहीं पहुंचाया जाना चाहिए।

योगी सरकार के अधिवक्ता ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि लखनऊ के कई चैराहों पर वसूली के लिए 57 आरोपितों के पोस्टर लगाए जाने की सुनवाई करते हुए 9 मार्च को हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस गोविंद माथुर और जस्टिस रमेश सिन्हा की बेंच ने राज्य सरकार को फटकार लगाते हुए पोस्टर हटाने का आदेश दिया है। साथ ही, लखनऊ के डीएम व पुलिस कमिश्नर से इस संबंध में 16 मार्च तक रिपोर्ट पेश करने को कहा था। कोर्ट ने कहा था कि 50 से अधिक लोगों की तस्वीरें और पर्सनल डेटा सार्वजनिक स्थानों पर प्रदर्शित करना शर्मनाक है। सरकार ने कुछ लोगों की तस्वीरें सड़क किनारे पोस्टर पर देकर शक्ति का गलत प्रयोग किया है। जबकि हकीकत यह है कि यूपी पुलिस ने बकायदा वीडियों और सीसीटीवी खंगालने के बाद दंगाइयों की पहचान की थी,इस लिए इसमें गलती की गंुजाइश काफी कम है।

हाईकोर्ट की नाराजगी का आलम यह था कि लखनऊ में दंगाइयों की तस्वीरें बैनर पर लगाने को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने न सिर्फ स्वतः संज्ञान लिया, बल्कि रविवार को छुट्टी वाले दिन भी इसकी सुनवाई की. इसके बाद सोमवार को राज्य सरकार को ये बैनर हटाने का आदेश जारी किया. यानी अदालत ने राज्य सरकार के एक कदम का विश्लेषण करके तुरत-फुरत न्याय कर दिया, जबकि यूपी में योगी आदित्यनाथ सरकार के रुख से कम से कम पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच गफलत की कोई स्थिति नहीं है. प्रदर्शनकारी जानते हैं कि जरा सी हद लांघने पर सूबे की सरकार किसी भी हद तक चली जाएगी. नतीजा ये है कि राज्य में अमन कायम है. टकराव की स्थिति नहीं है. और सबसे बड़ी बात किसी की जान नहीं जा रही है. जहां तक बात, दंगाइयों के बैनर लगाने की है. ये सरासर गलत है. यदि किसी बेगुनाह का पोस्टर लगा है, तो उल्टे योगी सरकार से हर्जाना वसूला जाना चाहिए. लेकिन, अगर यदि कोई दंगा फैलाने का दोषी है तो उसकी सजा तो इस सार्वजनिक लानत-मलानत से ज्यादा बड़ी होनी चाहिए.

ट्रांस गोमती में भी लगी उपद्रवियों की फोटोयुक्त होर्डिंग

उधर, हाई कोर्ट के आदेश के बावजूद नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के विरोध में शहर में हुए आगजनी व तोड़फोड़ के दोषियों की होर्डिंग्स 11 दिसंबर  को लखनऊ के ट्रांस गोमती इलाके में भी गुपचुप लगा दी गईं। सूत्रों की मानें तो टेंडर लेने वाली कंपनी के कर्मचारियों ने होर्डिंग्स लगवाई हैं। वहीं, जिला प्रशासन के अफसर वहां पहले से ही होर्डिंग्स लगे होने का दावा कर रहे हैं। डीएम लखनऊ अभिषेक प्रकाश का इस संबंध में कहना है कि कोर्ट के आदेश का पालन किया जाएगा।

ज्ञातव्य हो, राजधानी में 19 दिसंबर को परिवर्तन चैक, ठाकुरगंज, कैसरबाग व खदरा में सीएए के विरोध में आगजनी व तोड़फोड़ हुई थी, जिसमें पुलिस से मिले साक्ष्य के आधार पर प्रशासन ने अलग-अलग इलाकों से 53 लोगों को दोषी करार दिया था। इनके नाम व फोटो के साथ उन इलाकों में प्रशासन ने होर्डिंग्स लगवा दी। शुरुआत में होर्डिंग्स हजरतगंज, कैसरबाग व ठाकुरगंज इलाके में लगाई गईं, लेकिन बुधवार को लोहिया पथ व ट्रांस गोमती इलाके के अन्य हिस्सों में भी लगवा दी गईं। सूत्रों की मानें तो जिस कंपनी को जिम्मा सौंपा गया था, उसके कर्मचारियों ने ही बाकी होर्डिंग्स लगवाई हैं। वहीं, जिला प्रशासन के अधिकारियों के मुताबिक, तीन दिन पहले जो होर्डिंग्स लग गई थीं, वहीं लगी हुई हैं।

बहरहाल, बात सुप्रीम कोर्ट की कि जाए तो न्यायमूर्ति यूयू ललित और अनिरुद्ध बोस की अवकाश कालीन पीठ ने आज उत्तर प्रदेश सरकार की याचिका पर सुनवाई की। शीर्ष अदालत की बेंच ने उत्‍तर प्रदेश सरकार से पूछा कि उन्‍हें आरोपियों का पोस्‍टर लगाने का अधिकार किस कानून के तहत मिला है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अभी तक शायद ऐसा कोई कानून नहीं है, जिसके तहत उपद्रव के कथित आरोपियों की तस्‍वीरें होर्डिंग में लगाई जाएं। कोर्ट ने कहा कि लखनऊ के विभिन्न चैराहा और मुख्य सड़क के किनारे होर्डिंग्स तथा पोस्टर्स में 57 से अधिक आरोपितों के फोटो लगे हैं। इस मामले का इलाहाबाद होई कोर्ट ने स्वतरू संज्ञान लेकर उत्तर प्रदेश सरकार को सभी होर्डिंग्स तथा पोस्टर्स को हटाने का निर्देश दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उत्तर प्रदेश सरकार ने होर्डिंग्स पर कथित आगजनी करने वालों का ब्योरा देने के लिए कदम उठाया है। कोर्ट राज्य सरकार की चिंता को समझ सकता है लेकिन अपने फैसले को वापस लेने का कोई कानून नहीं है।

यूपी सरकार की इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका में एसजी तुषार मेहता ने कहा कि एक व्यक्ति विरोध प्रदर्शन के दौरान बंदूक चलाता है और कथित तौर पर हिंसा में शामिल होता है। ऐसा व्यक्ति निजता के अधिकार का दावा नहीं कर सकता है।  सरकार ने लखनऊ में नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ प्रदर्शन करने वालों के पोस्टर लगाने के मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी।

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