रूपेश कुमार सिंह
स्वतंत्र पत्रकार
आज जब झारखंड में महागठबंधन (झारखंड मुक्ति मोर्चा-कांग्रेस-राजद) की सरकार है और झामुमो के हेमंत सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री हैं। हेमंत सोरेन लगातार आदिवासी सभ्यता-संस्कृति की हिफाजत की बात कर रहे हैं व स्थानीय भाषाओं को भी बढ़ावा देने की बात कर रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ आदिवासियों की सभ्यता-संस्कृति व जल-जंगल-जमीन की रक्षा के लिए लगातार अपने गीतों व नाटकों के जरिए झारखंड के आदिवासियों-मूलवासियों में चेतना बढ़ाने का काम करने वाला सांस्कृतिक संगठन ‘झारखंड एभेन’ झारखंड सरकार द्वारा प्रतिबंधित है।
‘झारखंड एभेन’ के सैकड़ों संस्कृतिकर्मियों को गांवों में पुलिस से छिपकर अपनी कला का प्रदर्शन करना पड़ता है, फिर भी वे टिके हुए हैं और जनवादी संस्कृति का प्रचार-प्रसार अपने गीतों व नाटकों के जरिए कर रहे हैं। झारखंड की वर्तमान सरकार को चाहिए कि ‘झारखंड एभेन’ से प्रतिबंध हटाकर उनकी कला यानी कि उनके गीतों व नाटकों को सरकारी बंदिशों से आजाद कर दंे। ‘झारखंड एभेन’ के संस्थापक सदस्य शहीद कामरेड सुंदर मरांडी के 5वें शहादत दिवस पर झारखंड के सुदूर ग्रामीण इलाके में काम करने वाले सांस्कृतिक संगठन के बारे में और संस्कृतिकर्मी कामरेड सुंदर मरांडी के बारे में बता रहे हैं झारखंड के स्वतंत्र पत्रकार रूपेश कुमार सिंह
27 फरवरी 2015 को रात के लगभग 11 बजे झारखंड के प्रतिष्ठित लोक-कलाकार व ‘प्रतिबंधित’ सांस्कृतिक संगठन ‘झारखंड एभेन’ के संस्थापक सदस्यों में से एक कामरेड सुंदर मरांडी ने रांची के रिम्स अस्पताल में अपनी अंतिम सांस ली थी और अपने पीछे छोड़ गए अपने चाहनेवाले लाखों शोषित-उत्पीड़ित अवाम व अपने उन तमाम पेशेवर संस्कृतिकर्मियों को, जिसे उन्होंने अपने लगन, मेहनत व उच्च राजनीतिक दूरदर्शिता के कारण तैयार किया था, जो आज भी उनके दिखाए रास्ते पर चलते हुए आदिवासी सभ्यता व संस्कृति पर हो रहे लगातार चैतरफा हमले के खिलाफ बड़ी ही मजबूती से अपनी सभ्यता व संस्कृति की अस्तित्व रक्षा की लड़ाई लड़ रहे हैं। उस समय उनकी उम्र लगभग 50 वर्ष थी।
28 फरवरी को जब उनका लाश गिरिडीह जिला के मधुबन के हटिया मैदान में लाया गया था, तो उनको अंतिम बार देखने व श्रद्धांजलि देने के लिए आस-पास के गांवों के हजारों आदिवासी-मूलवासी महिला-पुरुष, बूढ़े-बच्चे उमड़ पड़े थे और वहां से उनके गांव चतरो तक उन्हें ‘लाल सलाम’ के गरजते नारों के साथ लाया गया था। जहां उन्हें आदिवासी परंपरा के अनुसार दफन करने के बाद आयोजित श्रद्धांजलि सभा में उनके सपने (एक शोषणमुक्त समाज) को पूरा करने को संकल्प हजारों लोगों ने लिया था। आगे चलकर 28 फरवरी 2016 को ‘सुंदर मरांडी स्मारक समिति’ के द्वारा उनके गांव (ग्राम-चतरो, प्रखंड-पीरटांड़, जिला-गिरिडीह) में ही उनका एक स्मारक बना दिया गया और प्रत्येक वर्ष 28 फरवरी को वहां पर श्रद्धांजलि सभा के अवसर पर झारखंड की कई सांस्कृतिक टीमों का जुटान होता है और सुंदर मरांडी के द्वारा दिखाये गये रास्ते पर चलकर झारखंड की संस्कृति को बचाने का संकल्प लिया जाता है। इसका आयोजन प्रत्येक वर्ष ‘सुंदर मरांडी स्मारक समिति’ के द्वारा ही किया जाता है।
कौन थे कामरेड सुंदर मरांडी और क्या था उनका विचार?
लगभग 27 वर्षों तक झारखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में होनेवाली जनसभाओं, पर्व-त्योहारों, यहां तक कि शादी-ब्याह में भी अपने गीतों व मांदल की थापों से जनता में राजनीतिक चेतना बढ़ानेवाले कामरेड सुंदर मरांडी झारखंड के गिरीडीह जिला के पीरटांड़ प्रखंड के चतरो गांव के रहनेवाले थे। उनका जन्म 8 मई 1965 ई. को एक बहुत ही गरीब परिवार में हुआ था। माता-पिता दोनों मजदूरी करते थे तो किसी तरह उनका घर चलता था। खस्ताहाल आर्थिक स्थिति होने के बावजूद भी उनके पापा चाहते थे कि बेटा पढ़े, लेकिन उनको तो बचपन से ही गीत गाने का काफी शौक था। किसी तरह उन्होंने दसवीं तक पढ़ाई की और इसके बाद ही वे शादी-ब्याह में घूम-घूमकर गीत गाने लगे, साथ ही साथ आदिवासी संस्कृति में जड़ जमा चुकी मांड़ी (लोकल दारू) के भी वे आदि हो चुके थे। इसी बीच स्थानीय माक्र्सवादी चिंतक रावण मुर्मू उर्फ भक्ति दा की नजर उन पर पड़ी और उनसे बातचीत के बाद कामरेड सुंदर मरांडी में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ और उनके विचार माक्र्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद से प्रभावित हुए और फिर उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा व जीवनपर्यंत वे इसी विचारधारा को फैलाने में लगे रहे।
कामरेड सुंदर मरांडी आदिवासी सभ्यता-संस्कृति के बारे में भी बहुत जानते थे, इसीलिए वे उनकी सभ्यता-संस्कृति के आधार पर ही गीत का निर्माण करते थे लेकिन उन गीतों में सामाजिक बदलाव का पुट स्पष्ट रहता था। कोई भी वाद््य यंत्र हो उसे वो बहुत ही अच्छी तरह बजाते थे, यहां तक कि बांसुरी तो वे नाक से बजाते थे। उनके मांदल की थाप को सुनकर उनके जाननेवाले दूर से ही जान जाते थे कि सुंदर दा बजा रहे हैं। उनकी लिखावट का क्या कहना, आज भी उनके इलाके के कई लोग उन्हीं की लेखनी की नकल करते हैं। बांस की कूची से पोस्टर भी वे बहुत ही अच्छे से लिखते थे। संथाली, खोरठा, हिन्दी, नागपुरी, भोजपुरी व बांग्ला पर उनकी पकड़ अद्भुत थी। वे तेलुगु व नेपाली गीत सुनकर हुबहू गाते थे।
कामरेड सुंदर मरांडी हमेशा इस बात पर जोर देते थे कि एक कलाकार को जनता के बीच में रहना चाहिए, इसीलिए उनकी टीम हमेशा ग्रामीण इलाकों में जनता के घर में ही रहती थी, जनता के घर में ही खाना खाती थी और जनता के रोज दिन के कार्य में भी सहयोग करती थी। ‘झारखंड एभेन’ के इस तरह के कार्य के कारण ही उत्तरी छोटानागपुर (गिरिडीह, बोकारो, धनबाद, हजारीबाग) के ग्रामीण इलाकों में इनकी पकड़ काफी मजबूत होती चली गई, साथ ही झारखंड के अन्य हिस्सों में भी वैकल्पिक जन-आधारित संस्कृति को पहुंचाने लगी। देश के तमाम सांस्कृतिक संगठनों से अलग राह पर चलने के कारण जल्द ही ‘झारखंड एभेन’ सत्ता के निशाने पर भी आ गई और इसे तत्कालीन माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) का सांस्कृतिक संगठन कहकर इसके कार्यकर्ताओं का दमन किया जाने लगा। 21 सितंबर 2004 को एमसीसीआई व भाकपा (माले) पीडब्लू के विलय के बाद बनी राजनीतिक पार्टी भाकपा (माओवादी) के अस्तित्व में आने के बाद ‘झारखंड एभेन’ पर दमन और भी बढ़ गया और गृह मंत्रालय के द्वारा ‘झारखंड एभेन’ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। फिर भी ‘झारखंड एभेन’ के संस्कृतिकर्मी जनता के बीच गुप्त रूप से ही जनता के बीच में अब तक जमे हुए हैं और तमाम पुलिसिया दमन के बावजूद भी जनता इन्हें अपने घरों में पनाह देती है क्योंकि ये जनता का गीत गाते हैं और जनता के सुख-दुख के साथ हमेशा खड़े रहते हैं।
कामरेड सुंदर मरांडी से मेरी पहली व आखिरी मुलाकात सितम्बर 2014 में हुई थी, वे काफी जिन्दादिल इंसान थे, पहली ही मुलाकात में उनसे मेरी काफी बातचीत हुई थी, जिन्हें मैं यहां पर देने से पहले एक वाकया बताना चाहूंगा। सुबह-सुबह मैं नदी की ओर जा रहा था। एक जोर सी आवाज आई ‘‘सेताअ जोहार’’ , तो मैंने भी जोहार-जोहार बोल दिया। बाद में उनसे बातचीत पर पता चला कि ‘‘सेताअ जोहार’’ का मतलब हुआ-सुबह का नमस्कार। मैंने जब उनसे पूछा कि ‘‘आप जानते हैं कि मैं संथाली नहीं जानता हूं तो फिर आपने संथाली में क्यों बोला ? उनका जवाब आज भी मेरे मन में घूम रहा है ‘‘मैं अपनी भाषा नहीं छोड़ सकता कामरेड।’’
वे 29 अगस्त 2014 को ही जेल से जमानत पर छूटकर बाहर आए थे, पुलिस ने उन्हें मानसिक रूप से तो प्रताड़ित किया ही था, साथ में निर्मम शारीरिक यंत्रणा भी दिया था, जिसके कारण उनके पीठ व सर में काफी दर्द अभी भी रहता था। वे अपने इलाज में हो रहे खर्च के कारण काफी परेशान थे। अंततः 27 फरवरी 2015 को उनकी मृत्यु को क्या कहा जाए ? ये मृत्यु नहीं शहादत है, पुलिस की निर्मम पिटाई ने आखिर उनकी जान ले ही ली। कामरेड सुंदर मरांडी की शहादत झारखंड में और भी युवाओं को जल-जंगल-जमीन व अपनी अस्मिता को बचाने की लड़ाई की ओर आकर्षित करेगी, ये मेरा विश्वास है।
उनसे बातचीत का एक अंश-
प्रश्न-आप झारखंड एभेन से कब जुड़े?
उत्तर- (मुस्कुराते हुए) झारखंड एभेन का गठन ही हमलोगों ने किया था। झारखंड में 1982 ई. से ही नावा मार्शल (नई रोशनी) नाम से एक सांस्कृतिक संगठन ग्रामीण इलाकों में काम करता था, उसके सभी सदस्य पेशेवर संस्कृतिकर्मी थे। वे एक जत्थे में गांव-गांव घूमते थे। ये जत्था मेरे गांव में भी आता था। उनका रिहर्सल व कार्यक्रम देखने हमलोग जाते थे, देखकर लगता था कि इनसे अच्छा तो मैं गाता हूं। झारखंड आंदोलन का भी काफी प्रभाव था उस समय, लेकिन नावा मार्शल का गीत ‘‘कामरेड माओ ललकार रहा है, चलो आगे बढ़ो’’ व ‘‘जागा रे जागा रे सारा संसार’’ जब सुनते थे, तो लगता था कि सीना फट जाएगा, शरीर में कंपकंपाहट होने लगती थी। मैं अक्सर इस गाने को गुनगुनाने लगा था, फिर भक्ति दा (भक्ति दा को उस इलाके में लाल मशालची के नाम से भी जाना जाता था) से बात हुई और मैं भी इस जत्थे में शामिल हो गया।
प्रश्न-झारखंड एभेन कैसे व कब बना?
उत्तर-1989 ई0. में झारखंड आंदोलन की सीमा एक तरह से स्पष्ट होने लगी थी और हमलोगों ने महसूस किया कि शिबू सोरेन व विनोद बिहारी महतो से आदिवासियों-मूलवासियों के सपनों का झारखंड का निर्माण संभव नहीं, इसके लिए एक क्रांतिकारी धारा की जरूरत है और फिर अपने संगठन के नाम में भी ‘‘झारखंड’’ दिखना चाहिए, फिर 30-31 अक्टूबर 1989 ई. में गिरीडीह जिला के इसरी बाजार में एक बैठक के जरिए ‘‘झारखंड एभेन’’ का निर्माण किया गया।
प्रश्न-झारखंड एभेन को शुरुआत में किन समस्याओं का सामना करना पड़ा?
उत्तर-समस्याएं आई लेकिन उतनी भी नहीं। हमलोग सभी गरीब परिवार से थे। आदिवासी भी थे और गैर आदिवासी भी हमारे टीम में थे। हम गरीबों की समस्याओं के बारे में जानते थे। हमलोगों ने उन्हीं की समस्याओं पर आधारित गानों की रचना की। संथाली में व खोरठा में भी गीतें लिखी गई। शहर के लिए हिन्दी में भी। जनता के घर में ही रहते थे, जो वो खाते थे, हम भी खाते थे। कभी-कभी भूखे भी रहना पड़ता था। जनता के साथ खेत में काम भी करते थे क्योंकि दिन में सभी खेत में रहते थे, तो हमलोग भी वहीं चले जाते थे। उनकी मदद करते थे और गीत गाते थे। आज भी हमारे कई गीत जनता के मुंह पर है, वे धान रोपनी के समय हमारा ही गीत गाते हैं।
प्रश्न-आपलोग झारखंड से बाहर कहां-कहां कार्यक्रम किए?
उत्तर-1989 ई. में केरल, 1993 ई. में कलकत्ता, 1995 ई. में बनारस, 1996 ई. में दिल्ली और ईस्वी तो याद नहीं है लेकिन देश के लगभग राज्यों में हमारी टीम ने कार्यक्रम किया हैै। पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाके में तो हमारी टीम एक महीने तक रही थी।
प्रश्न-आपको गाना लिखने की प्रेरणा कहां से मिलती थी?
उत्तर-झारखंड में जब क्रांतिकारियों का आंदोलन मजबूत हुआ, गांव-गांव में क्रांतिकारी किसान कमिटी, नारी मुक्ति संघ बनना शुरु हुआ, तो खुद ब खुद नए-नए गाने विकसित होने लगे। गाना का निर्माण आंदोलन से ही हुआ।
प्रश्न-आपको पुलिस ने कब व कैसे गिरफ्तार किया?
उत्तर-21 मई 2014 को मैं जंगल के रास्ते दूसरे गांव जा रहा था, बीच में ही पुलिस ने मुझे गिरफ्तार कर लिया और (हंसते हुए) माओवादी कमांडर घोषित कर दिया। थाना से लेकर जेल तक में लम्बी पूछताछ और जमकर पिटाई भी की गई मेरी। मेरे पास से एक रिवाल्वर भी दिखाया गया। 29 अगस्त को ही जमानत पर छूटकर जेल से बाहर आया हूं। मैं जेल में भी अक्सर गाता था-
एक पागल आया रे
पागलखाना से जेलखाना में
एक थप्पड़ मारा तो, एक गीत गाया
दूसरा थप्पड़ मारा तो, फिर गीत गाया
अगर मेरे पास रिवाल्वर होता तो क्या होता ?
पुलिस की लाश होती और मैं आजाद होता...........
प्रश्न-आज वर्तमान समय में झारखंड में संस्कृतिकर्मियों के सामने क्या चुनौती है?
उत्तर-झारखंड का मतलब ही है, यहां की बहुसंख्यक जनता, जिनका जीवन जल-जंगल-जमीन की लड़ाई के साथ ही जुड़ा हुआ है। आज चाहे केन्द्र की मोदी सरकार हो या झारखंड की हेमंत सरकार, ये सभी झारखंडियों से उनकी जल-जंगल-जमीन ही छीन लेना चाहते हैं और जो भी जल-जंगल-जमीन पर झारखंडियों के अधिकार की बात करते हैं, उनपर ये सरकारें उग्रवादी का लेबल लगा देती है।
झारखंड के संस्कृतिकर्मियों को सत्ताविरोधी ही नहीं बल्कि व्यवस्थाविरोधी भी होना होगा, उन्हें इस सड़ी-गली अर्द्धसामंती व अर्द्धऔपनिवेशिक व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए अपने गीतों व नाटकों यानी कि अपनी कला के जरिए नई पीढ़ी को तैयार करना होगा। संस्कृतिकर्मियों को झारखंड ही नहीं देश के पैमाने पर भी जल-जंगल-जमीन को बचाने की लड़ाई लड़ रहे आदिवासियों के साथ-साथ हरेक जनवादी आंदोलन के पक्ष में खड़ा होना होगा।
स्वतंत्र पत्रकार
आज जब झारखंड में महागठबंधन (झारखंड मुक्ति मोर्चा-कांग्रेस-राजद) की सरकार है और झामुमो के हेमंत सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री हैं। हेमंत सोरेन लगातार आदिवासी सभ्यता-संस्कृति की हिफाजत की बात कर रहे हैं व स्थानीय भाषाओं को भी बढ़ावा देने की बात कर रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ आदिवासियों की सभ्यता-संस्कृति व जल-जंगल-जमीन की रक्षा के लिए लगातार अपने गीतों व नाटकों के जरिए झारखंड के आदिवासियों-मूलवासियों में चेतना बढ़ाने का काम करने वाला सांस्कृतिक संगठन ‘झारखंड एभेन’ झारखंड सरकार द्वारा प्रतिबंधित है।
‘झारखंड एभेन’ के सैकड़ों संस्कृतिकर्मियों को गांवों में पुलिस से छिपकर अपनी कला का प्रदर्शन करना पड़ता है, फिर भी वे टिके हुए हैं और जनवादी संस्कृति का प्रचार-प्रसार अपने गीतों व नाटकों के जरिए कर रहे हैं। झारखंड की वर्तमान सरकार को चाहिए कि ‘झारखंड एभेन’ से प्रतिबंध हटाकर उनकी कला यानी कि उनके गीतों व नाटकों को सरकारी बंदिशों से आजाद कर दंे। ‘झारखंड एभेन’ के संस्थापक सदस्य शहीद कामरेड सुंदर मरांडी के 5वें शहादत दिवस पर झारखंड के सुदूर ग्रामीण इलाके में काम करने वाले सांस्कृतिक संगठन के बारे में और संस्कृतिकर्मी कामरेड सुंदर मरांडी के बारे में बता रहे हैं झारखंड के स्वतंत्र पत्रकार रूपेश कुमार सिंह
27 फरवरी 2015 को रात के लगभग 11 बजे झारखंड के प्रतिष्ठित लोक-कलाकार व ‘प्रतिबंधित’ सांस्कृतिक संगठन ‘झारखंड एभेन’ के संस्थापक सदस्यों में से एक कामरेड सुंदर मरांडी ने रांची के रिम्स अस्पताल में अपनी अंतिम सांस ली थी और अपने पीछे छोड़ गए अपने चाहनेवाले लाखों शोषित-उत्पीड़ित अवाम व अपने उन तमाम पेशेवर संस्कृतिकर्मियों को, जिसे उन्होंने अपने लगन, मेहनत व उच्च राजनीतिक दूरदर्शिता के कारण तैयार किया था, जो आज भी उनके दिखाए रास्ते पर चलते हुए आदिवासी सभ्यता व संस्कृति पर हो रहे लगातार चैतरफा हमले के खिलाफ बड़ी ही मजबूती से अपनी सभ्यता व संस्कृति की अस्तित्व रक्षा की लड़ाई लड़ रहे हैं। उस समय उनकी उम्र लगभग 50 वर्ष थी।
28 फरवरी को जब उनका लाश गिरिडीह जिला के मधुबन के हटिया मैदान में लाया गया था, तो उनको अंतिम बार देखने व श्रद्धांजलि देने के लिए आस-पास के गांवों के हजारों आदिवासी-मूलवासी महिला-पुरुष, बूढ़े-बच्चे उमड़ पड़े थे और वहां से उनके गांव चतरो तक उन्हें ‘लाल सलाम’ के गरजते नारों के साथ लाया गया था। जहां उन्हें आदिवासी परंपरा के अनुसार दफन करने के बाद आयोजित श्रद्धांजलि सभा में उनके सपने (एक शोषणमुक्त समाज) को पूरा करने को संकल्प हजारों लोगों ने लिया था। आगे चलकर 28 फरवरी 2016 को ‘सुंदर मरांडी स्मारक समिति’ के द्वारा उनके गांव (ग्राम-चतरो, प्रखंड-पीरटांड़, जिला-गिरिडीह) में ही उनका एक स्मारक बना दिया गया और प्रत्येक वर्ष 28 फरवरी को वहां पर श्रद्धांजलि सभा के अवसर पर झारखंड की कई सांस्कृतिक टीमों का जुटान होता है और सुंदर मरांडी के द्वारा दिखाये गये रास्ते पर चलकर झारखंड की संस्कृति को बचाने का संकल्प लिया जाता है। इसका आयोजन प्रत्येक वर्ष ‘सुंदर मरांडी स्मारक समिति’ के द्वारा ही किया जाता है।
कौन थे कामरेड सुंदर मरांडी और क्या था उनका विचार?
लगभग 27 वर्षों तक झारखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में होनेवाली जनसभाओं, पर्व-त्योहारों, यहां तक कि शादी-ब्याह में भी अपने गीतों व मांदल की थापों से जनता में राजनीतिक चेतना बढ़ानेवाले कामरेड सुंदर मरांडी झारखंड के गिरीडीह जिला के पीरटांड़ प्रखंड के चतरो गांव के रहनेवाले थे। उनका जन्म 8 मई 1965 ई. को एक बहुत ही गरीब परिवार में हुआ था। माता-पिता दोनों मजदूरी करते थे तो किसी तरह उनका घर चलता था। खस्ताहाल आर्थिक स्थिति होने के बावजूद भी उनके पापा चाहते थे कि बेटा पढ़े, लेकिन उनको तो बचपन से ही गीत गाने का काफी शौक था। किसी तरह उन्होंने दसवीं तक पढ़ाई की और इसके बाद ही वे शादी-ब्याह में घूम-घूमकर गीत गाने लगे, साथ ही साथ आदिवासी संस्कृति में जड़ जमा चुकी मांड़ी (लोकल दारू) के भी वे आदि हो चुके थे। इसी बीच स्थानीय माक्र्सवादी चिंतक रावण मुर्मू उर्फ भक्ति दा की नजर उन पर पड़ी और उनसे बातचीत के बाद कामरेड सुंदर मरांडी में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ और उनके विचार माक्र्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद से प्रभावित हुए और फिर उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा व जीवनपर्यंत वे इसी विचारधारा को फैलाने में लगे रहे।
कामरेड सुंदर मरांडी आदिवासी सभ्यता-संस्कृति के बारे में भी बहुत जानते थे, इसीलिए वे उनकी सभ्यता-संस्कृति के आधार पर ही गीत का निर्माण करते थे लेकिन उन गीतों में सामाजिक बदलाव का पुट स्पष्ट रहता था। कोई भी वाद््य यंत्र हो उसे वो बहुत ही अच्छी तरह बजाते थे, यहां तक कि बांसुरी तो वे नाक से बजाते थे। उनके मांदल की थाप को सुनकर उनके जाननेवाले दूर से ही जान जाते थे कि सुंदर दा बजा रहे हैं। उनकी लिखावट का क्या कहना, आज भी उनके इलाके के कई लोग उन्हीं की लेखनी की नकल करते हैं। बांस की कूची से पोस्टर भी वे बहुत ही अच्छे से लिखते थे। संथाली, खोरठा, हिन्दी, नागपुरी, भोजपुरी व बांग्ला पर उनकी पकड़ अद्भुत थी। वे तेलुगु व नेपाली गीत सुनकर हुबहू गाते थे।
कामरेड सुंदर मरांडी हमेशा इस बात पर जोर देते थे कि एक कलाकार को जनता के बीच में रहना चाहिए, इसीलिए उनकी टीम हमेशा ग्रामीण इलाकों में जनता के घर में ही रहती थी, जनता के घर में ही खाना खाती थी और जनता के रोज दिन के कार्य में भी सहयोग करती थी। ‘झारखंड एभेन’ के इस तरह के कार्य के कारण ही उत्तरी छोटानागपुर (गिरिडीह, बोकारो, धनबाद, हजारीबाग) के ग्रामीण इलाकों में इनकी पकड़ काफी मजबूत होती चली गई, साथ ही झारखंड के अन्य हिस्सों में भी वैकल्पिक जन-आधारित संस्कृति को पहुंचाने लगी। देश के तमाम सांस्कृतिक संगठनों से अलग राह पर चलने के कारण जल्द ही ‘झारखंड एभेन’ सत्ता के निशाने पर भी आ गई और इसे तत्कालीन माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) का सांस्कृतिक संगठन कहकर इसके कार्यकर्ताओं का दमन किया जाने लगा। 21 सितंबर 2004 को एमसीसीआई व भाकपा (माले) पीडब्लू के विलय के बाद बनी राजनीतिक पार्टी भाकपा (माओवादी) के अस्तित्व में आने के बाद ‘झारखंड एभेन’ पर दमन और भी बढ़ गया और गृह मंत्रालय के द्वारा ‘झारखंड एभेन’ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। फिर भी ‘झारखंड एभेन’ के संस्कृतिकर्मी जनता के बीच गुप्त रूप से ही जनता के बीच में अब तक जमे हुए हैं और तमाम पुलिसिया दमन के बावजूद भी जनता इन्हें अपने घरों में पनाह देती है क्योंकि ये जनता का गीत गाते हैं और जनता के सुख-दुख के साथ हमेशा खड़े रहते हैं।
कामरेड सुंदर मरांडी से मेरी पहली व आखिरी मुलाकात सितम्बर 2014 में हुई थी, वे काफी जिन्दादिल इंसान थे, पहली ही मुलाकात में उनसे मेरी काफी बातचीत हुई थी, जिन्हें मैं यहां पर देने से पहले एक वाकया बताना चाहूंगा। सुबह-सुबह मैं नदी की ओर जा रहा था। एक जोर सी आवाज आई ‘‘सेताअ जोहार’’ , तो मैंने भी जोहार-जोहार बोल दिया। बाद में उनसे बातचीत पर पता चला कि ‘‘सेताअ जोहार’’ का मतलब हुआ-सुबह का नमस्कार। मैंने जब उनसे पूछा कि ‘‘आप जानते हैं कि मैं संथाली नहीं जानता हूं तो फिर आपने संथाली में क्यों बोला ? उनका जवाब आज भी मेरे मन में घूम रहा है ‘‘मैं अपनी भाषा नहीं छोड़ सकता कामरेड।’’
वे 29 अगस्त 2014 को ही जेल से जमानत पर छूटकर बाहर आए थे, पुलिस ने उन्हें मानसिक रूप से तो प्रताड़ित किया ही था, साथ में निर्मम शारीरिक यंत्रणा भी दिया था, जिसके कारण उनके पीठ व सर में काफी दर्द अभी भी रहता था। वे अपने इलाज में हो रहे खर्च के कारण काफी परेशान थे। अंततः 27 फरवरी 2015 को उनकी मृत्यु को क्या कहा जाए ? ये मृत्यु नहीं शहादत है, पुलिस की निर्मम पिटाई ने आखिर उनकी जान ले ही ली। कामरेड सुंदर मरांडी की शहादत झारखंड में और भी युवाओं को जल-जंगल-जमीन व अपनी अस्मिता को बचाने की लड़ाई की ओर आकर्षित करेगी, ये मेरा विश्वास है।
उनसे बातचीत का एक अंश-
प्रश्न-आप झारखंड एभेन से कब जुड़े?
उत्तर- (मुस्कुराते हुए) झारखंड एभेन का गठन ही हमलोगों ने किया था। झारखंड में 1982 ई. से ही नावा मार्शल (नई रोशनी) नाम से एक सांस्कृतिक संगठन ग्रामीण इलाकों में काम करता था, उसके सभी सदस्य पेशेवर संस्कृतिकर्मी थे। वे एक जत्थे में गांव-गांव घूमते थे। ये जत्था मेरे गांव में भी आता था। उनका रिहर्सल व कार्यक्रम देखने हमलोग जाते थे, देखकर लगता था कि इनसे अच्छा तो मैं गाता हूं। झारखंड आंदोलन का भी काफी प्रभाव था उस समय, लेकिन नावा मार्शल का गीत ‘‘कामरेड माओ ललकार रहा है, चलो आगे बढ़ो’’ व ‘‘जागा रे जागा रे सारा संसार’’ जब सुनते थे, तो लगता था कि सीना फट जाएगा, शरीर में कंपकंपाहट होने लगती थी। मैं अक्सर इस गाने को गुनगुनाने लगा था, फिर भक्ति दा (भक्ति दा को उस इलाके में लाल मशालची के नाम से भी जाना जाता था) से बात हुई और मैं भी इस जत्थे में शामिल हो गया।
प्रश्न-झारखंड एभेन कैसे व कब बना?
उत्तर-1989 ई0. में झारखंड आंदोलन की सीमा एक तरह से स्पष्ट होने लगी थी और हमलोगों ने महसूस किया कि शिबू सोरेन व विनोद बिहारी महतो से आदिवासियों-मूलवासियों के सपनों का झारखंड का निर्माण संभव नहीं, इसके लिए एक क्रांतिकारी धारा की जरूरत है और फिर अपने संगठन के नाम में भी ‘‘झारखंड’’ दिखना चाहिए, फिर 30-31 अक्टूबर 1989 ई. में गिरीडीह जिला के इसरी बाजार में एक बैठक के जरिए ‘‘झारखंड एभेन’’ का निर्माण किया गया।
प्रश्न-झारखंड एभेन को शुरुआत में किन समस्याओं का सामना करना पड़ा?
उत्तर-समस्याएं आई लेकिन उतनी भी नहीं। हमलोग सभी गरीब परिवार से थे। आदिवासी भी थे और गैर आदिवासी भी हमारे टीम में थे। हम गरीबों की समस्याओं के बारे में जानते थे। हमलोगों ने उन्हीं की समस्याओं पर आधारित गानों की रचना की। संथाली में व खोरठा में भी गीतें लिखी गई। शहर के लिए हिन्दी में भी। जनता के घर में ही रहते थे, जो वो खाते थे, हम भी खाते थे। कभी-कभी भूखे भी रहना पड़ता था। जनता के साथ खेत में काम भी करते थे क्योंकि दिन में सभी खेत में रहते थे, तो हमलोग भी वहीं चले जाते थे। उनकी मदद करते थे और गीत गाते थे। आज भी हमारे कई गीत जनता के मुंह पर है, वे धान रोपनी के समय हमारा ही गीत गाते हैं।
प्रश्न-आपलोग झारखंड से बाहर कहां-कहां कार्यक्रम किए?
उत्तर-1989 ई. में केरल, 1993 ई. में कलकत्ता, 1995 ई. में बनारस, 1996 ई. में दिल्ली और ईस्वी तो याद नहीं है लेकिन देश के लगभग राज्यों में हमारी टीम ने कार्यक्रम किया हैै। पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाके में तो हमारी टीम एक महीने तक रही थी।
प्रश्न-आपको गाना लिखने की प्रेरणा कहां से मिलती थी?
उत्तर-झारखंड में जब क्रांतिकारियों का आंदोलन मजबूत हुआ, गांव-गांव में क्रांतिकारी किसान कमिटी, नारी मुक्ति संघ बनना शुरु हुआ, तो खुद ब खुद नए-नए गाने विकसित होने लगे। गाना का निर्माण आंदोलन से ही हुआ।
प्रश्न-आपको पुलिस ने कब व कैसे गिरफ्तार किया?
उत्तर-21 मई 2014 को मैं जंगल के रास्ते दूसरे गांव जा रहा था, बीच में ही पुलिस ने मुझे गिरफ्तार कर लिया और (हंसते हुए) माओवादी कमांडर घोषित कर दिया। थाना से लेकर जेल तक में लम्बी पूछताछ और जमकर पिटाई भी की गई मेरी। मेरे पास से एक रिवाल्वर भी दिखाया गया। 29 अगस्त को ही जमानत पर छूटकर जेल से बाहर आया हूं। मैं जेल में भी अक्सर गाता था-
एक पागल आया रे
पागलखाना से जेलखाना में
एक थप्पड़ मारा तो, एक गीत गाया
दूसरा थप्पड़ मारा तो, फिर गीत गाया
अगर मेरे पास रिवाल्वर होता तो क्या होता ?
पुलिस की लाश होती और मैं आजाद होता...........
प्रश्न-आज वर्तमान समय में झारखंड में संस्कृतिकर्मियों के सामने क्या चुनौती है?
उत्तर-झारखंड का मतलब ही है, यहां की बहुसंख्यक जनता, जिनका जीवन जल-जंगल-जमीन की लड़ाई के साथ ही जुड़ा हुआ है। आज चाहे केन्द्र की मोदी सरकार हो या झारखंड की हेमंत सरकार, ये सभी झारखंडियों से उनकी जल-जंगल-जमीन ही छीन लेना चाहते हैं और जो भी जल-जंगल-जमीन पर झारखंडियों के अधिकार की बात करते हैं, उनपर ये सरकारें उग्रवादी का लेबल लगा देती है।
झारखंड के संस्कृतिकर्मियों को सत्ताविरोधी ही नहीं बल्कि व्यवस्थाविरोधी भी होना होगा, उन्हें इस सड़ी-गली अर्द्धसामंती व अर्द्धऔपनिवेशिक व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए अपने गीतों व नाटकों यानी कि अपनी कला के जरिए नई पीढ़ी को तैयार करना होगा। संस्कृतिकर्मियों को झारखंड ही नहीं देश के पैमाने पर भी जल-जंगल-जमीन को बचाने की लड़ाई लड़ रहे आदिवासियों के साथ-साथ हरेक जनवादी आंदोलन के पक्ष में खड़ा होना होगा।
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