-संजय द्विवेदी-
संत श्री पवन दीवान ने जब गुडगांव के मेदांता अस्पताल में 2 मार्च,2016 को आखिरी सांसें लीं तो सही मायने में एक युग का अवसान हो गया। छत्तीसगढ़ महतारी की सेवा में अपनी पूरी जिंदगी लगा देने वाले और समाज जीवन के हर मोर्चे पर सक्रिय श्री दीवान की कई स्मृतियां एक साथ दिमाग में कौंध जाती हैं। मंत्री और सांसद रहे पवन जी की निजी जिंदगी में जैसी सादगी थी, वह आज की धर्मनीति और राजनीति दोनों में दुर्लभ है। मुझे उनके आश्रम में उनका टीवी इंटरव्यू करने का मौका मिला, एक कमरे में एक लकड़ी का एक बेहद सामान्य तख्त, कुछ खाना बनाने के बरतन, बस इतने से संसाधन। कोई वैभव नहीं- जो आज के संतों के लिए अनिवार्य हैं। आश्रम तो आश्रम सरीखा ही था। स्वयं बनाकर खाना और अपनी भुवनमोहिनी मुस्कान के साथ अपने लोगों के लिए सदा उपलब्ध। 8 अगस्त,1945 को जन्में और छत्तीसगढ़ के महासमुंद क्षेत्र से दो बार सांसद रहे संत पवन दीवान मप्र सरकार में जेल मंत्री भी रहे। बाद के दिनों में छत्तीसगढ़ गो सेवा आयोग के अध्यक्ष भी रहे। उनकी राजनीति, धर्मनीति, कविता और कथावाचन सब कुछ लोगों के लिए थी।
कवि, साहित्यकार के रूप में भी उनकी पीड़ा ज्यादातर छत्तीसगढ़ को लेकर ही मुखर होती थी। एक विलक्षण कथावाचक, वे कथा कह रहे हों और आपकी आंखों से आंसू न निकल आएं यह संभव नहीं था । उन्होंने अपनी कविताएं छत्तीसगढ़ी और हिंदी दोनों भाषाओं में लिखीं। कथा भी वे छत्तीसगढ़ी में कहना पसंद करते थे। लोकभाषा और लोकसंस्कृति को लेकर उनके मन में गहरा अनुराग था। वे सही मायने में लोक को जीने और उसी में बसनेवाले व्यक्ति थे। अपनी एक कविता में वे अपने इस राष्ट्रवादी लोकमन को व्यक्त करते हैं-
सागर में दही भरा जैसे, नदियों में दूध छलकता है
यादें बच्चों की किलकारी, दर्पण में रूप झलकता है
दक्षिण में बाजे बजते हैं, उत्तर में झांझ झमकता है
पश्चिम मन ही मन गाता है, पूरब का भाल दमकता है
एक कवि के नाते वे मंचों पर बहुत लोकप्रिय रहे। छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के गांव-गांव तक उनकी ख्याति थी। वे जहां पहुंचते वहां उन्हें देखने और मिलने वालों का तांता लग जाता। उनकी लोकप्रियता के मद्देनजर राजनीति के मंच पर उनकी उपस्थिति भले ही बहुत ऊंचाई लेती हुयी न दिखती हो, किंतु उन्होंने छत्तीसगढ की अस्मिता के सवालों,यहां को भूमिपुत्रों के प्रश्न और उनकी चिंताओं को अपने विचार के केंद्र में रखा। ये बड़ी बात है कि उन्होंने जिस छत्तीसगढ. राज्य का सपना अपनी युवा अवस्था में देखा और वह उनकी आंखों के सामने पूरा हुआ। 2014 के चुनाव के बाद मेरी किताब 'मोदी लाइव' उन्हें मिली तो उसकी प्राप्त की सूचना, उन्होंने मेरे मित्र नीरज गजेंद्र से वाट्सअप पर फोटो के रूप में भेजी। वे बेहद भावुक और राजनीति के लिए एक अनुपयोगी व्यक्ति थे। उनके भोलेपन का हर राजनीतिक दल ने इस्तेमाल किया। बार-बार दलबदल शायद उनके इसी भोलेपन का परिणाम था। वे संत थे, जल्दी रूठना और जल्दी खुश हो जाना उनका स्वभाव था। वे सही मायने में राजनीति के लिए नहीं बने थे, लोक की चिंता और सामान्य जनों की पीड़ा उन्हें राजनीति में खींच लाई। उनका राजनीति में आगमन साधारण नहीं था। वे खुद में एक आंदोलन बन गए और इस छत्तीसगढ की जमीन पर लंबे समय तक यह नारा चर्चित रहा-
पवन नहीं ये आंधी है,
छत्तीसगढ़ का गांधी है।
राजनीति की दुनिया में उनका होना कई बार आश्चर्यचकित करता था। वे कई बार गलत निर्णय लेते और बहुत भावुक होते दिखे, किंतु वे मन की करते थे और लाभ-हानि की परवाह कहां करते थे। उन्होंने सोचकर और संकल्प के साथ शायद सन्यास तो लिया था, पर राजनीति में भावना के कारण ही आए। तमाम लोगों की तरह उन्हें भी लगता था कि राजनीति से बहुत कुछ बदल सकता है। पर उनकी मूल भावना क्या थी-यही न कि छत्तीसगढ़ की सालों से उपेक्षित घरती को न्याय मिले, यहां के लोगों को न्याय मिले। वे इसी भावना के तहत राजनीति में थे। बाद में आयु के साथ उनकी यह धार भी कम होती गयी। एक संत होने के नाते उनकी सीमाएं थीं और वे राजनीति में होकर भी इन सीमाओँ का अतिक्रमण नहीं कर सके।
राजनीति और धर्म दोनों मंच पर समान उपस्थिति के बाद भी कोई वैभव का संसार न बसाना, उनकी सादगी- सौजन्यता को ही स्थापित करता है। वे चाहते तो क्या कर सकते थे, पर क्या नहीं कर सके- ऐसे तमाम सवाल उनके जीवित रहते भी थे, आज भी हैं। किंतु पवन दीवान की सार्थकता यही है कि उन्होनें मनचाही जिंदगी जी और कभी किसी की परवाह नहीं की। यह जिंदादिली राजनीति के पथरीले रास्ते पर कहां रास आती है। किंतु पवन दीवान होने का दरअसल यही मतलब है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह की सुनें तो वे कहते हैं कि "श्री दीवान ने छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण आंदोलन के लिए जनचेतना जागृत करने में अपना ऐतिहासिक योगदान दिया। उन्होंने अपनी हिंदी और छत्तीसगढ़ी कविताओं के माध्यम से जहां मानवीय संवेदनाओं को लगातार अपनी हृदय स्पर्शी अभिव्यक्ति दी, वहीं राज्य निर्माण के लिए जन-जागरण में भी उनकी कविताओं ने उत्प्रेरक का कार्य किया। उन्होंने रामायण और भागवत प्रवचन के माध्यम से छत्तीसगढ़ के गांव-गांव में भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिक चेतना के प्रचार-प्रसार में ऐतिहासिक योगदान दिया। ” यह बात बताती है कि छत्तीसगढ़ के लोकजीवन को पवन दीवान जी ने किस तरह स्पंदित किया होगा। वे सही अर्थों में लोकमन के चितेरे और व्याख्याकार थे। वे छत्तीसगढ़ के आम आदमी के प्रतिनिधि थे, उसी की तरह भोले और निष्पाप। पवन दीवान से छल करना आसान था, आप उन्हें इस्तेमाल कर धोखा दे दीजिए पर दीवान जी एक ठहाके में उस सारे दर्द को उड़ा देते थे। उन्हें लोक का सम्मान मिला, राजनीति में धोखे मिले। वे संत थे, इसलिए वे इसका न प्रतिकार करते थे, ना ही जख्मों को डायरी में दर्ज करते थे। वे जब भी बोले अपनी माटी के शोषण के विरूद्ध बोले। एक कविता में वे इसी दर्द को, गुस्से को व्यक्त करते हैं-
घोर अंधेरा भाग रहा है, छत्तीसगढ़ अब जाग रहा है।
खौल रहा नदियों का पानी, खेतों में उग रही जवानी।
गूंगे जंगल बोल रहे हैं, पत्थर भी मुंह खोल रहे हैं।
धान कटोरा रखने वाले, अब बंदूकें तोल रहे हैं।
मुझे और मेरे परिवार को उनकी सदा कृपा और आशीष मिला। हम जब भी राजिम गए उन्हें याद किया और खोजकर मिले। उनकी सहजता और खिलखिलाकर हंसना हमें याद है। वे सच में संत थे और कई मायनों में बहुत निश्चल। उन जैसी मुक्त हंसी मैंने कम सुनी है। अब वह मुक्त हंसी, छत्तीसगढ़ या मेरी जानकारी के संसार में कितने लोग हंस सकते हैं, कह नहीं सकता। एक रूहानी शख्सियत, और जिंदादिल तबीयत के मालिक ऐसे महापुरूष से जुड़ा होना एक भाग्य ही था, जो हमें मिला। मेरी श्रद्धांजलि कि प्रभु उन्हें अपने समीप शरण दे।
लेखक संजय द्विवेदी माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।
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