हमारे एक पत्रकार साथी ने "रंगकर्मी" पर एक रचना पोस्ट की है। जिस पर कई प्रतिक्रियाऐं आ रही है। ये रचना आज के समाज पर एक गहरा तंज है। जो शब्दों की शक्ल मे हक़ीकत को बंया करता है। ये रचना अपने भड़ासी साथियों के लिये यहां ड़ाल रहा हूँ। उम्मीद है आपको पसन्द आयेगी।
घर नया खरीदा है, रोशनी नहीं हैं यारों,
वतन हो चुका आजाद, हर शख्स यहाँ लुटेरा है यारों।
बदनसीबी, गरीबी से शिकस्त होती है हर बार,
गरीब हो तुम गरीबी में ही रहो यारों।
कल सुना है की पटरी पर कोई शख्स कटा है,
दुनियावी जहमतों से वो आजाद हो गया यारों।
इन इंसानों की निगाहों में कुछ कमीनापन सा दिखता है,
घर में बहन बेटी हो तो सम्हालों यारों।
हिंद को बदलनें की बात कर रहे थे जो हरामखोर,
विदेशी सरज़मीं पर घर खरीद लिया है यारों।
परदा किये हुए अपनी माँ को देखा है हर बार,
सड़ चुकी जो परम्पराऐं, बदलो नया वक्त है यारों।
नलों में पानी, खंबों में बिजली, पेट मे खाना नहीं, सटीक देश है,
गुजारिश है, जहां मिले नेता, सालों को पटक पटक के मारो यारों।
अनुराग अमिताभ, भोपाल
www.rangkarmi.blogspot.com
29.12.07
जंग लगी जम्हूरियत
Labels: Anurag ki rachna
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