"मैडम जी आप कहाँ थी?"
***राजीव तनेजा***
"अब क्या मुँह लेकर अपना हाल ब्याँ करे ये राजीव?"
"मैँ खुद ही तो तारीफों के पुल बाँधा करता था उनके"...
"हाँ!..उन्हीं के"....
"जिनकी वजह से तो आज मेरा ये हाल है"...
"आज अगर मेरा काम-धन्धा...मेरा घरबार...
सब टूट की कगार पर है तो सिर्फ उन्हीं के कारण"
"दोराहे पे खडा आज मैँ सोच रहा हूँ कि किस ओर जाऊँ?"...
"इस ओर...या फिर उस ओर"...
"जाऊँ तो जाऊँ कहाँ...बता है दिल...कहाँ है मेरी मंज़िल?"
"कौन ऐसा नहीं होगा जो...मेरा मज़ाक...
मेरी खिल्ली नहीं उडाएगा?"....
"सब के सब यही कहेंगे कि बडा अपना 'टीन-टब्बर' सब उखाड ले गया था पानीपत कि..
अब तो वहीं सैट होना है"...
"वही मेरी कॉशी...वही मेरा मक्का"
"आ गए मज़े?"...
"ले लिए वडेवें?"...
"हर जगह अपनी ही चलाता था"...
"अब पता चला बच्चू को कि मंडी में आलू क्या भाव बिकता है?"जैसे ताने बारम्बार मेरे कानों के पर्दों को बेंध ना डालेंगे?"
"उनका भी क्या कसूर?"
"मैँ खुद ही जो छाती ठोंक बडे-बडॆ दावे करता था कि...
'मेरी दिल्ली मेरी शान'...
'दिल्ली पैरिस बन के रहेगी'...
"माँ दा सिरर बन्न के रहेगी"...
"ढेढ साल में तो कुछ हुआ नहीं"....
"अब वैसे भी वक्त ही कितना बचा है मैडम जी के पास?"
"खेल सर पे तैयार खडे हैँ होने को और मैडम जी अभी 'फ्लाईओवर' भी पूरे नहीं बनवा पाई हैँ"...
"पिछले ढेढ साल में और अब में कितना फर्क पड गया है?"...
"टट्टू जितना भी नहीं"
"दावे तो लम्बे चौडे कर रही है मैडम जी खुद और उनका लाव लश्कर भी लेकिन ...
हालात तो अभी भी जस के तस ही हैँ"...
"वही आँखे मूंद!..बेतरतीब दौडती भीड"....
"वही हमेशा!..दुर्घटनाएँ करती बेलगाम ब्लू लाईन बसें"....
"वही उनकी!..रोज़ाना की अन्धी भागमभाग"...
"वही उनकी!..लफूंडरछाप दादागिरी"...
"कुछ भी तो नहीं बदला है"
"वही सरे आम!..अवाम को ठगते-एंठते ऑटो-टैक्सी वाले"...
"वही केंचुए की चाल!..रेंगता ट्रैफिक"
"वही बिजली के!..लम्बे-लम्बे कट"..
और वही जम्बो जैट के माफिक!..बिजली के तेज़ दौडते मीटर"
"कुछ बदला भी है कहीं?"...
"हाँ!..बदला है अगर कुछ...तो वो है आम आदमी का मायूस चेहरा"...
"हाँ!..मायूस कहना ही सही रहेगा"...
"इनके मायूसियत लिए मासूम चेहरे के पीछे ज़रा ठीक से झांक कर तो देखो मैडम जी"
"कैसे मर-मर जीने की चाह में जिए चले जा रहे हैँ ये"
"लेकिन पराई पीड आप क्या जानो?"...
"आपका क्या है?"..
"कौन सा आपको भाग कर बस या गाडी पकडनी है?"...
"कौन सा आपको बिजली,पानी और मोबाईल के बिल भरने हैँ?"...
"कौन सा आपके मकान,दुकान या फैक्ट्री पे हथोडा बजाया जा रहा है?"
"कौन सा आपकी दुकान या बिल्डिंग को 'सील'लग रही है?"...
"दिल्ली 'पैरिस' बने ना बने लेकिन इतना तो सच है ...कि आपके घर ....
ऊप्स!...घर कहाँ हुए करते हैँ आपके?"...
"सॉरी!..घर तो हम जैसे मामूली लोगों के होते हैँ"...
"आप लोग तो बँगलो में रहा करते हैँ"...
"हैँ ना!...?"...
"आपके बँगले बनेंगे...ज़रूर बनेंगे लेकिन हम लोगों की जेबों के दम पर"..
"यही सच है ना?"...
"पैरिस क्या...फ्राँस क्या...और लंदन क्या...
दुनिया के हर देश...हर शहर..हर मोहल्ले की पॉश कालोनियों में बनेंगे"
"और!...वो भी एक से एक टॉप लोकेशन पर"
"हाँ!...हमीं लोगों की जेबों की कीमत पर"मेरा ऊँचा स्वर मायूस हो चला था
"पता नहीं कैसे पाई-पाई जोड कर हमने अपना ये छोटा सा आशियाना बनाया"..
"सालों साल एडियाँ रगड-रगड कर अपना रोज़गार जमाया"...
"जब कुछ खाने कमाने लायक हुए तो मैडम जी कहती हैँ कि...
"चलो!..भागो यहाँ से"...
"टॉट का पैबन्द हो तुम दिल्ली के नाम पर"..
"धब्बा हो दिल्ली की शान में"
"सील कर देंगे हम तुम्हारी ये दुकाने. ..ये फैक्ट्रियाँ"...
"तोड देंगे तुम्हारे ये फ्लैट..ये मकान"...
"नाजायज़ कब्ज़ा जमा रखा है तुमने"...
"अरे!...काहे का नाजायज़ कब्ज़ा?"..
"पूरे गिन के करारे-करारे नोट खर्चा किए थे हमने"
"पता भी है तुम्हें कि कितने सालों से?"...
"क्या-क्या जतन करके...कहाँ-कहाँ अँगूठा टेक के पैसा इकट्ठा कर हमने ये छोटा सा दो कमरों का मकान खरीदा और...
अब आप ये कहने चली हैँ कि ये ग्राम सभा की सरकारी ज़मीन है...या फिर एक्वायर की हुई ज़मीन है"...
"हमें कुछ नहीं पता कि ग्राम सभा क्या होती है और एक्वायर किस बिमारी का नाम है?"
"हमें तो बस इतना पता है कि ये दुकान..ये मकान हमारा है"
"चलो माना कि आप सच ही कह रही होंगी सोलह आने कि ये ग्राम सभा की ज़मीन है...
माने सरकारी ज़मीन लेकिन...
तब आपके मातहत कहाँ गए हुए थे जब पैस ए ले-ले यहाँ खेतों में धडाधड कलोनियाँ बसाई जा रही थी?"
"तब क्यों नहीं रोका था हमें?"
"तब क्यों नहीं अन्दर किए थे कॉलोनाईज़र और प्रापर्टी डीलर?"
"वो भी तो पैसे ले कर इधर-उधर हो गए थे"मैँ खुद से बातेँ करता हुआ बोला
"उस वक्त तो पाँच हज़ार रुपए पर 'शटर' के हिसाब से...
नकद गिन के धरवा लिए थे सरकारी बाबुओं ने चिनाई चालू होने से पहले ही कि...
"हाँ!...दल दो हमारे सीने पे दाल"..
"हम पत्थर दिल हैँ"...
"हमें कोई फर्क नहीं पडता"..
"ठीक उनके दफतर के सामने ही तो निकाली थी तीन दुकाने मैंने"...
"कोई रोकने वाला...कोई टोकने वाला नहीं था...
नोटों भरा जूता जो मार चुका था पहले ही" ..
"ये तो बाद में पता चला कि सालों ने पैसे भी डकार लिए और पीठ पीछे कंप्लेंट कर छुरा भी भौँक डाला सीने में"...
"सालों!..को अपनी कुर्सी जो प्यारी थी"
"सो!...बेदाग बचाने को सारी कसरतें की जा रही थी"...
"ऊपर दफतर में खिला-पिला के मेरे केस की फाईल दबवा दी कि कुछ भी हो साल दो साल ऊपर उभरने तक ना देना"...
"बाद में अपने आप निबटता रहेगा खुद ही"..
"वाह!...क्या सही तरीका छांटा है पट्ठों ने"...
"जेब की जेब भरी रही और कुर्सी की कुर्सी बची रही"
"कहने को तो जनता के सेवक हैँ"...
"सेवा करना इनका धर्म है...तनख्वाह मिलती है इन्हें इसकी"..
"अजी छोडो ये सब!...काहे के जनता-जनार्दन के सेवक?"...
"सेवा-पानी तो उल्टे अपनी ये करवाते हैँ हमसे"
"लानत है ऐसे जीवन पर"...
"इनकी सेवा भी करो और इनका पानी भी भरो"
"मैडम जी!...आपका डिपार्टमैंट कहता है कि सिर्फ दिल्ली जल बोर्ड का पानी ही पिएँ"..
"अरे!...पहले ठीक से घर-घर पहुँचाओ तो सही इसे"...
"फिर हम ना पिएँ तो कहना"
"वैसे एक बात बताएँगी आप सच्ची-सच्ची?"
"आपने कभी खुद भी पी के देखा है इसे?"....
"कैसे सडाँध मारता है ना कई बार?"
"है ना?"...
"इसका मटमैला रंग देख तो उबकाई भी आने से मना कर देती है"..
"ठीक है!...माना कि आप सिर्फ और सिर्फ फिल्टरड पानी ही इस्तेमाल करती हैँ....
नहाने के लिए भी और *&ं%$# के लिए भी"...
"किसी से सुना तो ये भी है कि आपके कुत्ते तक भी बिज़लरी के अलावा दूजा सूँघते तक नहीं हैँ"...
"अल्सेशियन जो ठहरे"
"अरे!...हमें उनसे भी गया गुज़रा तो ना बनाएँ आप"
"प्लीज़!..विनती है हमारी आपसे कि...
ढंग से बाल्टी दो बाल्टी पीने का पानी ही म्यस्सर करवा दिया करें"
"तब कहाँ गई थी मैडम जी आप?"
"जब पुलिस वाले बीट आफिसर बारम्बार मोटर साईकिल पे चक्कर काट काट अपना हिस्सा ले जा रहे थे और...
बाद में चौकी इंचार्ज को भेज दिया था कि जाओ तुम भी कर आओ मुँह मीठा"..
"हो जाएगी तुम्हारी भी दाढ गीली"
"आप कहती हैँ कि हमने अवैध कंस्ट्रक्शन की हुई है तो...
आप ये बताएं कि किसने नहीं किया है ये तथाकथित अवैध निर्माण?"
"क्या आप नेताओं के निर्माण दूध के धुले हैँ?"
"कुछ अनैतिक नहीं है उनमें?"
"क्या आपको ज़रूरत हो सकती है अतिरिक्त स्पेस की...हमें नहीं?"
"क्या आपकी ज़रूरतें जायज़ हो सकती हैँ...हमारी नहीं?"
"अच्छा किया जो आपने बुल्डोज़र चला हमारा आशियाँ मटियामेट कर दिया...ध्वस्त कर दिया लेकिन...
क्या आपके अपने अवैध निर्माणों की तरफ आप ही के बुल्डोज़र ने निगाह करना भी गवारा समझा?"
"उचित समझा?"
"नहीं ना!...?...
"किस मुँह से पत्थर फेंकते हो ए राजीव ...जब आशियाँ तुम्हारा भी शीशे का है"
"रेत के ढेर पे तुम भी खडे हो और हम भी पडे हैँ"...
"ना तुम सही हो...ना हम ही सही हैँ"
"अरे!..हमारा दिल देखो....हमारा जिगरा देखो"...
"आपने हथोडा बजाया"...
"कोई बात नहीं"...
आपने सील लगाई"...
"कोई बात नहीं"
"लेकिन इतना तो ज़रूर पूछना चाहूँगा आपसे कि...
अगर हमारे यहाँ से हथोडों की धमाधम आवाज़ें हमारे दिल ओ दिमाग को बेंधे जा रही थी तो
कम से कम आपके वहाँ से हथोडी की महीन सी ...बारीक सी आवाज़ भी हमें तसल्ली दे जाती कि ..
कानून सबके वास्ते एक है"...
"हम चुपचाप संतोष कर अपने रोते हुए दिल को शांत कर लेते कि...
"कोई छोटा...कोई बडा नहीं है कानून की नज़र में"
"वो सबको एक आँख से देखता है"
"लेकिन अफ्सोस!...जो हुआ...जैसा हुआ...
उस से तो लगता है कि इससे तो अच्छा था कि कानून की एक आँख भी ना ही होती"...
"यूँ भेदभाव तो नहीं कर पाता वो"..
"कहने को हम लोकतंत्र में जी रहे हैँ"..
"अगर ये भ्रम मात्र है हमारा तो प्लीज़...इसे भ्रम ही रहने दें"
"करो ना यूँ ज़मीनोदाज़ हमारे आशियाँ...जवाब तुम्हें ऊपर भी देना है"
"तब कहाँ चली जाती हैँ मैडम जी आप?...
जब चौक पे खडे हो ड्यूटी बजाने के बजाए आपके ट्रैफिक हवलदार झाडियों के पीछे छुप...
पहले तो आम आदमी को कानून तोडने के लिए प्रेरित करते हैँ और फिर...
चालान से सरकारी खजाना भरने से पहले अपनी जेब भरने को बाध्य करते हैँ"...
"ठीक है!...माना कि खर्चे बहुत हैँ सरकार के...कोई सीधे-सीधे दे के राज़ी नहीं है लेकिन...
ये कहाँ का इंसाफ है कि सीधे तरीके से जब घी ना निकले तो सरकार भी अपनी उँगलियाँ टेढी कर ले?"
"चालान तो आपने वही रखा सौ रुपए का ही लेकिन...टैक्स के नाम पर पाँच सौ का फटका अलग से लगा दिया"...
"वाह री शीला!...देख लिया तेरा इंसाफ"
"ज़ोर का झटका...सचमुच बडी ज़ोर से लगा दिया ना?"...
"आप कहती हैँ कि इससे तो गाडे-घोडे वालों को ही फर्क पडेगा...आम आदमी को नहीं"...
"ये तो बताओ मैडम जी कि ये फालतू का खर्चा कहाँ से ओटेंगे वो बेचारे?"
"किराए बढा दिए जाएँगे...आटा...दाल-चावल...कपडा-लत्ता सब मँहगा हो जाएगा"
"कुछ खबर भी है आपको?"
"एक तो पहले से ही बढे हुए कम्पीटीशन से कमाई में कमी...
ऊपर से सीलिंग और मँहगाई की मार"...
"वाह मैडम जी...देखा तेरा पलटवार"
"अरे!...अगर खर्चे ही पूरे करने हैँ तो अपने मातहतों की जेबें...उनके बैंक एकाउंट...
उनके बँगले...उनकी जायदादें आदि...सब खंगाल मारो"...
"गारैंटी है कि उम्मीद से दुगना क्या...चौगुना क्या और सौ गुना भी मिल जाए तो कम होगा"
"क्यों ठिठक के रुक क्यों गयी आप?"...
"अपनों के लपेटे में आने का डर सता रहा होगा?"
"ये कहाँ की भलमनसत है कि उन्हें बक्श..आम आदमी को चौ तरफी मार मारें आप?"
"एक तरफ सीलिंग का डंडा"...
"मँहगाई की मार".. .
"हर समय घरोंदो के टूटने-बिखरने का सताता डर"
"आप ही के मुँह से सुना है कि आप दिल्ली को इंटरनैशनल लैवल का बनाने जा रही हैँ"...
"आप कहती हैँ कि मैट्रो दिन दूनी रात चौगुनी तेज़ी से बन रही है लेकिन...
फिर भी आम जनता बसों में बाहर तक लटकी क्योँ नज़र आ रही है?"
"आप कहती हैँ कि मॉल रातोंरात ऊँचे पे ऊँचे हुए जा रहे रहे हैँ लेकिन...
फिर भी छोटे अनाअथोराईज़्ड कॉलोनियों में बाज़ार अभी भी भीड से क्योँ अटे पडे हैँ?...क्योँ भरे पडे हैँ?"..
"आप कहती हैँ कि सडकों की लम्बाई-चौडाई बढ रही है लेकिन...
फिर भी रेहडी-पटरी वाले अभी भी जस के तस सडकों पे कब्ज़ा जमाए क्योँ जमे खडे हैँ?"
"आप कहती हैँ कि फ्लाईओवर बन रहे हैँ ..बनते चले जा रहे है लेकिन...
फिर भी सडको से जाम क्योँ खुलने का नाम नहीं ले रहे हैँ?"
"कहने को...लिखने...बहुत कुछ है बाकी था ए राजीव लेकिन...
बोल बोल के...सोच सोच के थक चुके मेरे विचारों ने...
मेरा साथ छोड नींद का दामन थामने का ऐलान कर दिया है ...
सो बाकी की अगली बार उगल देंगे"....
"फिलहाल चलता हूँ....लौट के जल्दी ही मिलता हूँ"...
"जय हिन्द"...
"मेरी दिल्ली मेरी शान"
***राजीव तनेजा***
3.12.07
"मैडम जी आप कहाँ थी?"
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