बचपन से एक गाना सुनता चला आ रहा हूँ। " झुलनी के रंग साचा हमार पिया" । जब गाँव जाता था तो अक्सर ये गाना सड़क वाली बजार पर सुनने को मिल जाता था। या फिर जब हाट वगैरह लगती थी तो भी। कभी कभी ये गाना आकाशवाणी पर भी आता था। इस गाने को आजकल सुनने का बड़ा मन हो रहा है। इस गाने के बारे मे पता लगाया तो पता चला कि इसे इलाहाबाद के एक लोक गायक रमेश बैश्य ने गया है। गायक के नाम के बारे मे मैं सौ प्रतिशत श्योर नही हूँ लेकिन ये बात पक्की है कि उन्हें आँख से दिखाई नही देता था।
बहरहाल, जब भी ये गाना सुनता हूँ या गुनगुनाता हूँ, मुझे अपने गाँव की बड़ी याद आती है। अगर गाँव मे होने वाली गन्दी राजनीति और लड़ाई झगडे से बाहर निकलकर खेतों मे अकेले टहला जाय, नाहर किनारे जाकर बैठा जाय और गन्ना चूसा जाय तो इस गाने को सुनने और गाँव को महसूस करने का अपना ही आनंद है। मिटटी की वो सोंधी महक, किसी पानी भरे गढ्ढे के बगल से गर्मी की शाम मे गुजरते वक़्त भुने हुए आलू की महक... और फिर से यही गाना गुनगुनाना, झुलनी के रंग साचा , हमार पिया...झुलनी के रंग साचा ....
12.12.07
झुलनी के रंग साचा हमार पिया
Labels: गाँव से दूर
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1 comment:
तो अब मेरठ में लोकगीत याद आ रहे हैं?
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