आतंकवाद और दहशतगर्दी के ख़िलाफ़ पहली जंग थी जंग-ए-कर्बला-डॉ. हुदा.....
"वज़ीर-ए-आज़म आली जनाब नरेंद्र मोदी जी ने इमाम
हुसैन की अज़ीम शहादत को याद कर पूरी दुनिया मे-
अमन-ओ-शांति और भाईचारे का पैग़ाम दिया है"
आज दिनांक 15/09/2018 को हुदैबिया कमेटी(एक राष्ट्रवादी मिशन) के पुराने शहर स्थित मुख्य कार्यालय पर इमाम हुसैन और उनकी आल की कर्बला में इंसानियत के लिये दी गयी अज़ीम कुर्बानी पर खिराजे अक़ीदत पेश की गई और हक़-ओ-बातिल की इस इबरतनाक जंग से अवाम को शनासा किया गया। आवाम को ख़िताब करते हुए हुदैबिया कमेटी के नेशनल कन्वेनर डॉ.एस.ई.हुदा ने कहा कि
- ख़ुदा की अव्वल मखलूक इंसान ने धीरे-धीरे तरक़्क़ी की और आख़िरकार दानिश्वर हज़रात ने ये कहा कि इंसान में तहज़ीब और तरक़्क़ी के सारे पैमाने हासिल कर लिये हैं।बहुत सी इंसानी ख़ुसूसियात ने उसके इंसान हो जाने के साथ उसके तेहज़ीबयाफ्ता हो जाने पर भी मोहर लगा दी।
ये तो तारीखी बात हो गयी लेकिन इससे साथ-साथ अगर हम इंसान की तवारीख़ और तहज़ीब का मुताला करने और समझने की कोशिश करें तो तेहज़ीबयाफ्ता कहलाने वाले इंसानी मोअशरे ने कई ऐसे ग़ैर-तेहज़ीबयाफ्ता "कारनामे"अंजाम दिए हैं जो शायद कोई हैवान और वहशी दरिंदा भी नही कर सकता था।उनमें बहुत सी ऐसी जंगो का शुमार होता है जिसमे शैतानियत की हदें पार कर दी गईं।उन्ही जंगो में सफ़े अव्वल पर जिस जंग का नाम है वो है जंग-ए-कर्बला,जो इंसान को ज़ुल्म और तशद्दुत का अलंबरदार होने का तमगा अता करती है और उसके तेहज़ीबयाफ्ता होने का ख़िताब नोच लेती है।
जंग-ए-कर्बला वो जंग है जिसमे एक तरफ मुट्ठी भर लोग थे जिनमें मासूम और छः महीने के बच्चे से लेकर अस्सी बरस के बुजुर्ग तक को बेदर्दी से भूखा-प्यासा शहीद किया गया।डॉ. हुदा ने कहा ये दरअसल जंग नही बल्कि दुनिया मे आतंकवाद और दहशतगर्दी गर्दी की पहली और ज़ुलमाना वारदात थी जिसे आज भी दहशतगर्दी के पुजारी आज़माते रहते हैं इसी से हक़ और बातिल की पहचान भी हो जाती है।इस्लाम की तवारीख़ पर अगर हम नज़र डालें तो कर्बला के तपते सेहरा में आख़िर-उज़्ज़मा पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहो आलेही वसल्लम के नवासे हज़रत इमाम हुसैन(अ0स0) और उनकी आल के साथ जो मारका-ए-आरायी हुई थी उसने इंसानियत और शैतानियत की पहचान के लिए रहती दुनिया तक एक पैमाना ज़रूर दे दिया।एही वजह है कि आज भी दुनिया मे ज़ुल्म के ख़िलाफ़ उठने वाली हक़ की सदा का ज़िक्र होता है तो सब से पहले सदा-ए-कर्बला का ज़िक्र होता है।कर्बला की सबसे बड़ी तालीम भी यही है कि हक़ की आवाज़ बुलंद करने के लिये तायदाद,उम्र,जगह मायने नही रखती।इसलिये जैसा पहले ज़िक्र किया कर्बला जी जंग में छह माह के हज़रत अली असगर से लेकर 80 बरस के गाज़ी हज़रते हबीब इब्ने मज़ाहिर तक ने अपने-अपने हालात और उम्र के हिसाब से ये हक़ की सदायें बुलंद की हैं।
जहां हज़रते अली असगर ने गले पर तीर खा कर एक हल्की से मुस्कुराहट से ज़ालिम फ़ौज के हौसले पस्त कर दिए वहीँ 80 बरस के बुज़ुर्ग गाज़ी हज़रते मज़ाहिर ने अपनी क़ुव्वते बाज़ू से दुश्मन फ़ौज के दांत खट्टे किये।मारका-ए-कर्बला में हर एक मर्दे मुजाहिद को शहादत शहद से मीठी मालूम होती है।येही नही हज़रत इमाम हुसैन की शहादत के बाद जिस तरह आपकी बहन बीबी- ज़ैनब ने हक़ के पैग़ाम को कर्बला से लेकर कूफ़ा तक आम किया वो मुस्लिम मोअशरे में ख़वातीन की एहमियत को तो बयाँ करता ही है साथ-साथ इस बात को ज़ाहिर करता है कि जिस हालात में भी हो ज़ुल्म के खिलाफ हक़ बोलो।इसलिये आज भी हक़ और बातिल की पहचान के लिये जंग-ए-कर्बला हमारी सच्ची रहनुमाई करती है।कर्बला की जंग ने दुनिया के कई बड़े रहनुमाओं की रहनुमाई का भी फ़र्ज़ अदा किया है जिस की वजह से दुनिया के बेशुमार मसाइल का हल निकल पाया है।दुनिया को अदम-तशद्दुत(अहिंसा) का पैग़ाम देने वाले गांधी जी को भी अदम-तशद्दुत तक ले जाने वाली दर्सगाह का नाम भी कर्बला ही है ये बात गांधी जी ने अपनी स्वनेउमरी(जीवनी) में लिखी है।कल इंदौर की सैफ़ी मस्जिद में इमाम हुसैन की शान और पैग़ाम-ए-कर्बला मौज़ू पर मुनक़्क़ीद आलमी पैग़ाम-ए-इंसानियत इजलास में शिरकत कर वज़ीर-ए-आज़म आली जनाब नरेंद्र मोदी जी ने भी इस बात की ताईद कर दी "इंसानियत के हर पैरोकार को इमाम हुसैन अज़ीम कुर्बानी से सबक लेते हुए उसे अपनी ज़ाती ज़िन्दगी में उतारना चाहिए,हक़ और बातिल की जंग में इमाम हुसैन ने जिस तरह अपना कुनबा का कुनबा इंसानियत के लिये कुर्बान कर दिया इमाम का ये अमल हमे ये पैग़ाम देता है कि ज़ुल्म-ओ-सितम,ताशद्दुत की ताक़त चाहे कितनी भी वसी क्यों न हो हक़ के सामने उसे एक न एक दिन सर खम करना पड़ता है"! अब ये सवाल भी उभरता है कि जब हमारे सामने इतनी बड़ी दर्सगाह कर्बला मौजूद है तो फिर आज भी हम क्यों इंतेशार का शिकार हैं?अगर कर्बला का वाक्या हम सब के लिये दर्सगाह है तो फिर दुनिया मे इतना जंगी ख़ून और फ़साद, बेगुनाहों की चीख़ें और इंसानी कत्ल-ओ-गारत का सिलसिला क्यों दराज़ होता जा रहा है?और अफ़सोस की बात ये है कि मज़लूमो की चीखें सब से ज़्यादा उन मुमालिक से आरही हैं जहां इस्लाम पर चलने का नामनेहाद दावा बड़े ज़ोरो शोर से किया जा रहा है।सब कुछ दीन की हिफाज़त का नाम दे कर किया जा रहा है लेकिन न दीन ही नज़र आरहा है और न ही दुनिया!इस्लामी मुल्क़ों के तशद्दुत ने पूरी दुनिया मे अमन पसंद इंसानियत के अलंबरदार मुसलमान को भी कटघरे में खड़ा कर दिया है।इस महीने में भी कोई दिन शायद ही ऐसा गुज़ारता हो कि ख़ुदा का नाम लेने वाले मुल्क़ों से मज़लूमो के ख़ून से लाल तस्वीरें अख़बरात में देखने को न मिलती हों।ये दिन कर्बला में मज़लूमो को याद करने के साथ-साथ हज़रत इमाम हुसैन के पैग़ाम को भी याद करने के हैं मगर अफसोस!
डॉ. हुदा ने अपनी तक़रीर में मज़ीद इज़ाफ़ा करते हुए कहा कि मोहर्रम का महीना इंसानियत की ज़ुल्म के ख़िलाफ़ उठी सबसे बड़ी आवाज़ की याद दिलाता है।इमाम की कुर्बानी को याद करने का असल मक़सद तो इमाम के किरदार को ज़ेहन में रखना है।कर्बला के वाक़ये पर कोई आंसू बहाता है और ज़िक्र और फिक्र की मजलिस सजाता है,कोई कर्बला के शहीदों की बेबसी पर मातम करता है तो कोई उनकी प्यास को याद कर सबीले लगाता है।कहीं अलम उठाये जाते हैं तो कहीं ताज़िये,तो कहीं कर्बला में शहीदों की बे-कफ़न लाशों को याद करते हुए शहीदाने कर्बला के ताबूत उठा कर ये एहसास कराया जाता है कि जिन ज़ालिम दहशतगर्दों ने शोहदा-ए-कर्बला को बे-क़फ़न छोड़ा था हम उनको आज भी अपने कांधे पर उठाने का जज़्बा रखते हैं। गर्ज़ ये के तरीक़ा चाहे कोई भी हो मगर सब का मक़सद एक ही है कि इंसानियत की बक़ा के लिये रसूल के नवासे ने जो अज़ीम कुर्बानी दी उसको याद करके अपना मोहासबा किया जाए कि हम हक़ के साथ खड़े हैं या नहीं???
मोहर्रम में रसूल के नवासे और उनको आल को ज़ुल्म-ओ-सितम का शिकार बनाया गया था उनको तीन दिन का भूखा प्यासा शहीद कर दिया गया था इसलिये इस्लामी नए साल के नाम पर जब कुछ लोग नए साल की मुबारकबाद देने लगते हैं तो हैरत होती है कि क्या ये लोग अपनी तवारीख़ से वाकिफ नही हैं या फिर सोशल मीडिया यूनिवर्सिटी ने इनकी तालीम बिगाड़ दी है।ये अनोखा चलन शुरू हुया है कुछ लोगो ने मोहर्रम के महीने की शुरुआत में नए साल की मुबारकबाद देने का सिलसिला शुरू किया है।जो महीना सदियों से सब्र, सच्चाई और हक़ के लिए जाना जाता है उसे अब नए साल की मुबारकबाद देने के नाम पर मशहूर करने की साज़िश हो रही है।मगर ये पैग़ाम-ए-कर्बला ही है कि इस तरह की कोशिश को बढ़ावा नही मिल पा रहा है।कर्बला आज भी हमे हर तरह की मुसीबतों और मुश्किलों में सच्चाई पर कामज़न रहने का सबक़ देती है।कर्बला मज़लूम प्यासों की कुर्बानी की ऐसी हक़ीक़त है जो इस दुनिया की हर उस यूनिवर्सिटी के निसाब में शामिल होनी चाहिए जहां तशद्दुत के ख़िलाफ़ डट कर खड़े होने की बात की जाती हो।
इजलास में प्रमुख रूप से सयैद राशिद अली,शहरोज़ खान,क़ाज़ी हसन,सयैद शहरोज़ बुखारी,हसीन क़ुरैशी,इमरान पठान,सयैद शाहनवाज़,दिलशाद सिद्दीकी आदि शामिल रहे।
"झुकता ही नही सर,किसी ज़ालिम के सामने
हिम्मत ही ऐसी दे गया सजदा हुसैन का!"
"देखा है जिस उम्मीद से भारत को हुसैन(अ0स0) ने,
आज फिर वहीं से मोहब्बत की खुश्बू सी आगयी!
समझा है जिस क़द्र हक़ और शहीदाने कर्बला को,
वज़ीर-ए-आज़म तेरी एही अदा दुनिया पे छा गयी!
डॉ. सयैद एहतेशाम उल हुदा
नेशनल कन्वेनर, हुदैबिया कमेटी(एक राष्ट्रवादी मिशन)
9837357723
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