मित्रों,बिहार की राजनीति के मांझी कांड का आज अंत हो गया। अब इस नाटक
को ट्रेजडी कहा जाए या कॉमेडी इस बात का निर्णय करना उतना ही मुश्किल है
जितना इस बात का फैसला करना कि नीतीश राज ज्यादा बुरा था या मांझी राज। खैर
जो नहीं होना चाहिए था वो तो हो चुका है अब आगे यह देखना कम दिलचस्प नहीं
होगा कि सुशासन बाबू किस तरह फिर से कथित सुशासन की स्थापना करते हैं
क्योंकि मेरी राय में जबसे नीतीश कुमार ने भाजपाई मंत्रियों को सरकार से
अलग किया है तभी से सुशासन की गाड़ी बेपटरी है।
मित्रों,मांझी जी ने इस्तीफा तो दे दिया है लेकिन उनके मुख्यमंत्री बनने और हटने के घटनाक्रम ने कई अहम सवालों को जन्म दिया है। पहला सवाल तो यही है कि क्या नीतीश कुमार जी ने इस्तीफा देकर सही किया था। हमने तब भी यही कहा था कि नीतीश कुमार को इस्तीफा नहीं देना चाहिए था और अगर इस्तीफा देना ही था तो नए चुनाव करवाने चाहिए थे क्योंकि जनता ने उनको जो मत दिया था वह अकेले उनको नहीं था बल्कि जदयू-भाजपा गठबंधन को था। फिर उनको अपने बदले किसी और को मुख्यमंत्री बनाने अधिकार किसने दे दिया?
मित्रों,जहाँ तक मांझी जी के कामकाज करने के तरीके का सवाल है तो यह तो निश्चित है नीतीश कुमार ने मांझी को समझने में ठीक वैसे ही भूल कर दी जैसी भूल भाजपा ने खुद नीतीश के मामले में की थी। मांझी को पहले दिन से ही ठीक से काम नहीं करने दिया गया यह बात और है मांझी को काम करना आता भी नहीं था। मांझी लगातार उटपटांग बयान देते रहे जिससे पार्टी की जगहँसाई भी होती रही। धीरे-धीरे मांझी ने रिमोट के आदेश को मानना बंद कर दिया और मंत्रिमंडल में शामिल कई मंत्रियों को अपने पक्ष में कर लिया लेकिन वे यह भूल गए कि विधानसभा में वास्तविक शक्ति तो विधानसभा अध्यक्ष के पास होती है जो अब भी नीतीश कुमार के पाले में ही थे।
मित्रों,यद्यपि बिहार के दलित-महादलित मांझी सरकार के पराभव से उद्वेलित तो हैं लेकिन अब देखना यह है कि मांझी नई पार्टी बनाकर उनके गुस्से को कितना भुना पाते हैं। वैसे अभी भी चुनावों में 8 महीना बाँकी है और नीतीश कुमार निश्चित रूप से इस समय का भरपुर सदुपयोग करनेवाले हैं। वे दलितों-महादलितों सहित सभी जातियों और वर्गों के लिए नई-नई घोषणाओं की झड़ी लगानेवाले हैं जिसका असर होना भी निश्चित है।
मित्रों,जहाँ तक भाजपा की संभावनाओं का सवाल है तो आगामी चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन काफी हद तक इस बात पर निर्भर करेगा कि नीतीश कुमार कहाँ तक जंगल राज को मंगल राज में बदल पाते हैं। वैसे भाजपा को मांझी का समर्थन करने से अलावे और विकल्प ढूँढ़ने चाहिए थे क्योंकि जबतक मांझी-नीतीश में गहरी छनती रही तबतक भाजपा की निगाहों में मांझी निहायत अयोग्य शासक थे और जैसे नहीं मांझी ने विद्रोह किया तो वही मांझी अच्छे हो गए?
मित्रों,लगता है कि भाजपा ने दिल्ली की हार से कोई सबक नहीं लिया है। भाजपा को अब से भी सचेत हो जाना चाहिए क्योंकि बिहार में भी उसको वैसी ही स्थिति का सामना करना पड़ सकता है जैसी स्थिति दिल्ली में थी। बिहार में भी हिन्दू बँटे हुए हैं और मुसलमान एकजुट। इसलिए भाजपा को सामाजिक समीकरणों को ध्यान में रखते हुए काफी सोंच-समझकर कदम उठाने होंगे। साथ ही,केंद्र की मोदी सरकार को काफी तेज गति से इस तरह के काम करने होंगे जिनका असर दूरदराज के गांवों तक में आसानी से दिखाई दे। दिल्ली से लेकर गांवों तक में भ्रष्टाचार पर करारा प्रहार करना होगा,शासन-प्रशासन को ज्यादा-से-ज्यादा पारदर्शी और सूचना-प्रोद्योगिकी आधारित करना होगा,शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति में सुधार लाना होगा और मेक इन इंडिया में बिहार भी लाभान्वित हो यह सुनिश्चित करना होगा क्योंकि बिहार की सबसे बड़ी समस्या आज भी बिहार में बिहारियों को रोजगार का नहीं मिलना है।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)
मित्रों,मांझी जी ने इस्तीफा तो दे दिया है लेकिन उनके मुख्यमंत्री बनने और हटने के घटनाक्रम ने कई अहम सवालों को जन्म दिया है। पहला सवाल तो यही है कि क्या नीतीश कुमार जी ने इस्तीफा देकर सही किया था। हमने तब भी यही कहा था कि नीतीश कुमार को इस्तीफा नहीं देना चाहिए था और अगर इस्तीफा देना ही था तो नए चुनाव करवाने चाहिए थे क्योंकि जनता ने उनको जो मत दिया था वह अकेले उनको नहीं था बल्कि जदयू-भाजपा गठबंधन को था। फिर उनको अपने बदले किसी और को मुख्यमंत्री बनाने अधिकार किसने दे दिया?
मित्रों,जहाँ तक मांझी जी के कामकाज करने के तरीके का सवाल है तो यह तो निश्चित है नीतीश कुमार ने मांझी को समझने में ठीक वैसे ही भूल कर दी जैसी भूल भाजपा ने खुद नीतीश के मामले में की थी। मांझी को पहले दिन से ही ठीक से काम नहीं करने दिया गया यह बात और है मांझी को काम करना आता भी नहीं था। मांझी लगातार उटपटांग बयान देते रहे जिससे पार्टी की जगहँसाई भी होती रही। धीरे-धीरे मांझी ने रिमोट के आदेश को मानना बंद कर दिया और मंत्रिमंडल में शामिल कई मंत्रियों को अपने पक्ष में कर लिया लेकिन वे यह भूल गए कि विधानसभा में वास्तविक शक्ति तो विधानसभा अध्यक्ष के पास होती है जो अब भी नीतीश कुमार के पाले में ही थे।
मित्रों,यद्यपि बिहार के दलित-महादलित मांझी सरकार के पराभव से उद्वेलित तो हैं लेकिन अब देखना यह है कि मांझी नई पार्टी बनाकर उनके गुस्से को कितना भुना पाते हैं। वैसे अभी भी चुनावों में 8 महीना बाँकी है और नीतीश कुमार निश्चित रूप से इस समय का भरपुर सदुपयोग करनेवाले हैं। वे दलितों-महादलितों सहित सभी जातियों और वर्गों के लिए नई-नई घोषणाओं की झड़ी लगानेवाले हैं जिसका असर होना भी निश्चित है।
मित्रों,जहाँ तक भाजपा की संभावनाओं का सवाल है तो आगामी चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन काफी हद तक इस बात पर निर्भर करेगा कि नीतीश कुमार कहाँ तक जंगल राज को मंगल राज में बदल पाते हैं। वैसे भाजपा को मांझी का समर्थन करने से अलावे और विकल्प ढूँढ़ने चाहिए थे क्योंकि जबतक मांझी-नीतीश में गहरी छनती रही तबतक भाजपा की निगाहों में मांझी निहायत अयोग्य शासक थे और जैसे नहीं मांझी ने विद्रोह किया तो वही मांझी अच्छे हो गए?
मित्रों,लगता है कि भाजपा ने दिल्ली की हार से कोई सबक नहीं लिया है। भाजपा को अब से भी सचेत हो जाना चाहिए क्योंकि बिहार में भी उसको वैसी ही स्थिति का सामना करना पड़ सकता है जैसी स्थिति दिल्ली में थी। बिहार में भी हिन्दू बँटे हुए हैं और मुसलमान एकजुट। इसलिए भाजपा को सामाजिक समीकरणों को ध्यान में रखते हुए काफी सोंच-समझकर कदम उठाने होंगे। साथ ही,केंद्र की मोदी सरकार को काफी तेज गति से इस तरह के काम करने होंगे जिनका असर दूरदराज के गांवों तक में आसानी से दिखाई दे। दिल्ली से लेकर गांवों तक में भ्रष्टाचार पर करारा प्रहार करना होगा,शासन-प्रशासन को ज्यादा-से-ज्यादा पारदर्शी और सूचना-प्रोद्योगिकी आधारित करना होगा,शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति में सुधार लाना होगा और मेक इन इंडिया में बिहार भी लाभान्वित हो यह सुनिश्चित करना होगा क्योंकि बिहार की सबसे बड़ी समस्या आज भी बिहार में बिहारियों को रोजगार का नहीं मिलना है।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)
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