दुुर्भाग्यपूर्ण किसान द्वारा खुदकुशी
आम आदमी पार्टी द्वारा दिल्ली के जंतर-मंतर मे भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ आयोजित रैली मे राजस्थान से भाग लेने आये किसान द्वारा खुदकुशी करने का मामला बहुत ही तो है ही साथ ही साथ इससे भी बड़ी दुुर्भाग्यपूर्ण बात और क्या हो सकती है कि देश की खेती एवं किसानो की बदहाली पर शर्म-सार होने के बजाये देश की राजनीतिक पार्टीयां अपनी-अपनी रोटीयां सेंकने मे व्यस्त हो गई। जहां तक आम आदमी पार्टी का सवाल है पार्टी को ऐसा लगता है कि सरकारें और राजनितिक पार्टियां महज प्रोपोगंडा से चलती हैँ, उसी तर्ज पर वे अपने सामने ही किसान को मरने देते हैँ पर किसानो की बदहाली के लिए मोदी और उनकी सरकार पर आरोप लगाते हुए लगातार लच्छेदार भाषण देते रहे और दिल्ली पुलिस पर दोषारोपण करते रहे, जबकि भाजपा विरोधी लोगो का ऐसा कहना है कि यदि राजस्थान सरकार जिन किसानो के फसले बर्वाद हुई उनको समय से मुआवजा दे देती तो किसान आत्म हत्या करने पर मजबूर न हुआ होता और तो और आत्म हत्या करने वाले किसान के परिवार को दिये जाने वाले मद्द को लेकर भी राजनीतिक पार्टीयां राजनीति करने लगी। इस दुुर्भाग्यपूर्ण हादसे मे कांग्रेस उपाध्यक्ष से लेकर देश के प्रधानमंत्री तक के लोगो ने किसानो के साथ खड़े होने की बात कही गई है लेकिन जहां तक किसानो की वास्तविक समस्याओं को लेकर उन्हे हल करने व राहत पहूंचाने के लिये कोई भी राजनीतिक दल संजीदा नही दिखई दे रहा है। इन्ही सब बातो का परिणाम यह है कि पिछले दो-ढ़ाई दशकों से लगातार किसानों के खुदकुशी करने का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। वर्ष 1991 नरसिंह राव एवं मनमोहन सिंह द्वारा शुरू की गई नई आर्थिक नीतियां आज भी बदस्तूर जारी हैं, जबकि इस दौरान कई सरकारें आई और चली गईं। यहां सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि परंपरागत सिंचाई की सीमित संसाधन, छोटी होती जोत, महंगा कर्ज, और बिजली-पानी की किल्लत जैसी समस्याएं वर्तमान समय मे भी बने रहने के कारण बदहाली के बावजूद किसान खुदकुशी जैसा आत्मघाती कदम उठाने को मजबूर है। किसानों की खुदकुशी करने का शिल-शीला नब्बे के दशक के मध्य काल से उस समय शुरू हुई जब उदारीकरण की नीतियों के अन्तर्गत खेती-किसानी को हाशिये पर ही धकेल दिया गया।वर्तमान समय मे बेमौसम बारिश एवं ओलावृष्टि जैसे पृक्रतिक आपदाओं का सीधा संबंध पृथ्वी पर होने वाले जलवायु परिवर्तन से है लेकिन ऐसे सभी कारणो से किसानों की जो दुर्दशा हो रही है उसका संबंध हमारी अदूरदर्शीता,आर्थिक नीतियों एवं नीति निर्माताओं से ही है। गिरते भूजल स्तर, बढ़ती मजदूरी महंगे बीज, उर्वरक और कीटनाशक के कारण खेती की लागत में बेतहाशा बढ़ोतरी के कारण खेती बहुत महंगी होती चली गई इस कारण किसान के बिना कर्ज लिए खेती संभव नहीं रह गई है।
किसानो की बदहाली का दूसरा सबसे बड़ा कारण पेट के लिए नहीं, वल्कि बाजार की खेती का बढ़ता प्रचलन है। कुछ वर्षो पहले तक किसान अपने खेत में विविध प्रकार के फसलों की बुवाई करता था और पशुपालन उनके जीवन का अभिन्न अंग हुआ करता था, जिससे किसानों को फसलो से होने वाले नुकसान की कुछ भरपाई भी हो जाया करती थी। मुसीबत में संयुक्त परिवार मे रहने के कारण उनका एक बहुत बड़ा संबल हुआ करता था, लेकिन वर्तमान समय में किसान एक ही फसल बोया करता है। अपने ही खेत में नहीं, बल्कि पट्टे पर जमीन लेकर भी वह एक ही फसली खेती कर पा रहा है। गृहस्थी का पूरा दारोमदार उस फसल की बाजार में बिक्री से प्राप्त धन पर ही रहता है उपर से बाजार का चरित्र अपने आप में शोषणकारी ही रहता है। उदाहरण के लिए पिछले साल किसानों को आलू की अच्छी कीमत मिली थी। इससे उत्साहित होकर इस साल किसानों ने खेतो को पट्टे पर लेकर और साहूकारों से कर्ज लेकर आलू की खेती की, परन्तु जब फसल तैयार होने वाली थी उसी समय अचानक आई बारिश ने किसानो का पूरा गणित ही बिगाड़ कर रख दिया।
वर्तमान समय उदारीकरण के दौर में सरकार ने कृषि व्यापार का उदारीकरण तो कर दिया, लेकिन भारतीय किसानों को वे सुविधाएं उपल्बध नहीं करा पाई कि जिससे वे विश्व बाजार में अपनी उपज को बेच सकें। दूसरी तरफ विकसित देशों की सरकारें और एग्रो बिजनेस कंपनियां भारत के विशाल बाजार पर अपना कब्जा जमाने के लिय कोई भी मौका नहीं छाड़ना चाहती हैं। पिछले चार सालो से बाजार में चीनी की कीमत जस की तस बनी हुई है, जबकि इस दौरान न केवल चीनी उत्पादन की लागत, बल्कि गन्ना के खरीद मूल्य में भी बढ़ोत्तरी हो चुकी है। इसका परिणाम यह हुआ कि चीनी मिलें घाटे में चल रही हैं और गन्ना किसानों को अपने बकाये के भुगतान के लिए आंदोलन करना पड़ रहा है। कुछ साल पहले यही स्थिति खाद्य तेल के साथ भी घटित हुई थी। दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के साथ हुए मुक्त व्यापार समझौते के कारण अब देश में सस्ते पामोलिव तेल का आयात बढ़ा तो तिलहनी फसलों की खेती घाटे का सौदा बन कर रह गई। एक बड़ी समस्या यह भी है कि कृषि उपजों की सरकारी खरीद के सीमित नेटवर्क है। जिन राज्यों में सरकारी खरीद का नेटवर्क नहीं है वहां किसानों को अपनी उपज को औने-पौने दामों पर ही बेचने के लिए मजबूर है। उदारीकरण के समर्थक भले इसे अपनी कामयाबी बताएं, लेकिन सच्चाई यह है कि आज किसान एक मजदूर बनकर रह गया है।
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