हिन्दी आखिर
क्यों?
§
डॉ. अर्पण जैन 'अविचल
कविकुल के गौरव और पूर्व प्रधानमंत्री प. अटल बिहारी वाजपेयी जी
ने लिखा है कि 'भारत केवल एक भूमि का टुकड़ा नहीं बल्कि जीता जागता राष्ट्रपुरुष हैं'
मतलब स्पष्ट तौर पर भारत के भारत होने का कारण यहाँ की संस्कृति,यहाँ के संस्कार और
यहाँ की विरासत हैं । भारत की ताकत, भारत की सांस्कृतिक अखंडता और लोगो की श्रद्धा
हैं। यहाँ जीयो और जीने दो के सिद्धांत के साथ अहिंसा के महत्व को दर्शाने वाले महावीर
है तो क्रांति के स्वर भी मुखर कर महाभारत के माध्यम से गलत का प्रतिकार करना भी दिखाया
है, एक तरफ बहन के लिए लड़ने वाले भाई देखे तो दूसरी और राम-सा चरित्र दिखाया जिसमें
कुशल राजा के साथ-साथ पिता की आज्ञा की पालना के लिए बिना शर्त कार्य करने के संस्कार
भी सिखाएं हैं, यहाँ देश के लिए लड़ने वाले गाँधी भी है तो यहाँ समाज के लिए समर्पित
बुद्ध को भी समझाया जाता है। इन सब के जिन्दा होने का कारण हमारे दादा-दादी या नाना-नानी
के किस्से सुनना और कहानियों से संस्कार सिंचन हैं। और सबसे महत्वपूर्ण बात कि इन संस्कारों
की पाठशाला का ककहरा भी स्वभाषा से ही शुरू होता हैं। स्पष्ट है कि हमें जो संस्कार मिले है उनका कारण घर के वटवृक्ष घर के बुजुर्ग
ही होते है, किन्तु आज़ादी के बाद से लगता भारत के संस्कार सिंचन का बरगद कमजोर होता
जा रहा है। भारत के संस्कार और मानवता कमजोर पौधे की तरह होते जा रहे हैं। इन सबकी
जड़ में स्वभाषा की अवहेलना छुपी हुई है।
भाषा किसी भी राष्ट्र
का नैतिक और अघोषित प्रतिनिधित्व करती हैं, किसी भी राष्ट्र के बारे में जानना हैं,
समझना हैं, वहां के संस्कारों को समझना वह की संस्कृति को पहचानना हैं तो वहां की भाषा
का गहरा प्रभाव होता हैं। बिना संस्कार के
संस्कृति का जन्म संभव नहीं होता, संस्कारों से ही संस्कृति बनती है, संस्कार सिंचन
के लिए सबसे सशक्त माध्यम भाषा ही है, उसी तरह भाषा उस संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती
हैं। यदि इंग्लैंड में अंग्रेजी, अरब में अरबी वैसे ही हिंदुस्तान में हिन्दी को राष्ट्र
का प्रतिनिधित्व करने वाली भाषा माना जाता है। अब यदि हिन्दी की अवधारणा को समझे तो
हिन्दू ग्रंथों की एक कथा से इसे समझते हैं, उस पौराणिक कथा के अनुसार जब देवी महादुर्गा
का जन्म महिषासुर का वध करने के लिए हुआ तब सृष्टि के समस्त देवताओं ने अपनी शक्तियों
के रूप में अपने शस्त्र महादुर्गा को दिए उसके बाद सर्वशक्तिशाली महादुर्गा का जन्म
हुआ। और उसके बाद शक्तिशाली असुर महिषासुर
के आतंक को महादुर्गा समाप्त किया, इसी तरह हिन्दी भाषा भी है, इस भाषा ने भारत में
प्रचलित लगभग सभी बोलियों से शब्द और शक्ति लेकर सर्वोत्कृष्ट सृजन दिया हैं। वैसे
तो हिन्दी का उद्भव संस्कृत के साथ प्राकृत और खड़ी बोली के उत्कृष्ट परिणाम से हुआ
हैं। और इसी के साथ हिन्दी भारत के अधिकांश भू भाग पर प्रचलित और कामकाजी भाषा बन गई।
वस्तुत हमारी भाषा का नाम हिन्दी ईरानियों की देन है। संस्कृत की स ध्वनि
फ़ारसी में ह बोली जाती है; जैसे सप्ताह को हप्ताह सिंधु को हिन्दू {सिंधु नदी के कारण
ही हिन्दू शब्द की उत्पत्ति हुई}। कालांतर में सिंधु नदी के पार का सम्पूर्ण भाग हिन्द
कहा जाने लगा तथा हिन्द की भाषा हिंदी कहलायी।हिन्दी भाषा का इतिहास लगभग एक हजार वर्ष
पुराना माना गया है। सामान्यतः प्राकृत की अन्तिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिन्दी साहित्य
का आविर्भाव स्वीकार किया जाता है। मतलब पहले हम भारतीयों के संस्कारों के सिंचन की
भाषा संस्कृत होती थी, कालान्तर में हिन्दी बनने लगी।
भाषा का अपना एक अपना महत्व है जिसके कारण संवाद का प्रारम्भ होता है और
संवाद का पहला कायदा है कि जिन दो व्यक्तियों के बीच संवाद होना हैं उनकी भाषा का एक
होना भी आवश्यक हैं। जैसे यदि आदमी और कौवे की भाषा अलग अलग नहीं होती तो शायद भारत
के कौवे भी गीता और कुरान पढ़ रहे होते। इसलिए
संवाद स्थापित करने की पहली शर्त दोनों की भाषा का एक होना है। भाषा से संस्कार जिन्दा
होते है, संस्कारो का परिष्कृत स्वरूप ही संस्कृति का परिचय है, रहन-सहन के अतिरिक्त
संवाद आवश्यक तत्व है। देश में एक भाषा की आवश्यकता क्यों हैं इसका महत्वपूर्ण तर्क
इस बात से साबित होता है कि जैसे यदि आप पंजाबी भाषी है और आप भारत के एक हिस्से दक्षिण
में जाते है, और वहां की भाषा तमिल, तेलगु, मलयाली या कन्नड़ हैं, और आप न तो द्रविड़
भाषाओँ को जानते हैं न ही वे पंजाबी। ऐसी स्थिति में न आप संवाद कर पाएंगे न ही वो। और संवाद न होने की दशा में समय और कार्य व्यर्थ
हो जाएगा। अब ऐसी ही स्थिति में देश के आंतरिक भू भागों पर भी अलग-अलग भाषाओँ के होने
से समरूपता दृष्टिगोचर नहीं होती। इसलिए कम
से कम भारत की एक प्रतिनिधित्व भाषा होना देश की अन्य भाषाओँ के साथ समन्वय भी हो और वो सम्पूर्ण
राष्ट्र में अनिवार्य हो। अब दूसरी महत्वपूर्ण
बात कि अब इस एक भाषा का चुनाव कैसे हो ? इसके लिए इस तर्क को समझना होगा कि किस भाषा
का प्रभुत्व जनसंख्याबल के अनुसार अधिक हैं।
देश की एक ऐसी भाषा जो सम्पूर्ण राष्ट्र को एक सूत्र में बाँध सकें, जिसे
देश में भाषा कार्यों में (जैसे लिखना, पढ़ना और वार्तालाप) के लिए प्रमुखता से प्रयोग
में लाया जाता है। वह भाषा जो राष्ट्र के कामकाज या सरकारी व्यवहार के लिये स्वीकृत
हो, जिस भाषा में जनमानस अपने व्यवहार, कार्यकलाप संचालित करें, जो संपूर्ण राष्ट्र
को परिभाषित कर, संपूर्णता का प्रतिनिधित्व करे उस भाषा को राष्ट्र की राष्ट्रभाषा
कहा जाता हैं । राष्ट्रभाषा एक देश की संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा होती है।
किसी भी देश की प्रगति और उसकी प्रगति एक राष्ट्रभाषा के अभाव में संभव
नहीं है,इस बात को सबसे पहले स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महसूस किया गया। जहां एक ओर
विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के साथ विदेशी दास्ताँ की परिचायक अंग्रेजी भाषा को समाप्त
करने की आवश्यकता महसूस हुई, जो भारत में विभिन्न भागों के लोगों द्वारा विचार बन सके।
भारत की जनता के बीच समन्वय स्थापित करने वाली संपर्क भाषा के तौर पर हिन्दी की स्वीकार्यता
हैं, और आज जब हिन्दी भाषी लोगों की जनगणना होगी है तो लगभग ४२ करोड़ से अधिक लोग हिन्दी
को प्रथम भाषा मानते हैं जो देश की कुल आबादी का लगभग ४० प्रतिशत से अधिक हैं। और लगभग १४ करोड़ लोग हिन्दी को द्वितीय भाषा के
तौर पर स्वीकारते हैं , इसका मतलब स्पष्ट हैं कि हिन्दी भाषा को देश की आबादी का लगभग
५५ प्रतिशत से अधिक हिस्सा स्वीकारता हैं। ऐसी स्थिति में हिन्दी के अतिरिक्त कोई भी
हिन्दुस्तानी भाषा नहीं हैं जो सम्पूर्ण राष्ट्र के निवासियों का प्रतिनिधित्व कर सकती
है । भारत की प्रत्येक भाषाओँ में जो शब्द हैं वो अधिकांशत: हिन्दी या संस्कृत भाषा
से लिए गए शब्द हैं । या यूँ कहें कि हिन्दी के विशाल शब्दकोश में अन्य भारतीय भाषाओँ
के शब्दों का समावेश हैं । जब भाषाएँ आपस में जुड़ी हुई हैं, तो लोगों में भी आपस में
प्रेम होगा ही । राजनैतिक षड्यंत्रों को अस्वीकार करते हुए जनभाषा का राष्ट्रभाषा के
तौर पर अधिकारिक होना ही राष्ट्रीय समन्वयता और अखंडता के लिए आवश्यक हैं ।
वैसे भी हिंदुस्तान की तासीर में हिन्दी इतनी बसी जा चुकी है कि हमारे
यहाँ यह भाषा नहीं वरन संस्कार सिंचन का माध्यम
है, पुरातन काल में देश में संस्कार गुरुकुल में दिए जाते थे, ब्रह्मचर्य आश्रम
में बच्चों को गुरुकुल में रखा जाता था, संस्कार वही मिलते थे, परन्तु समय बीतता गया
और गुरुकुल से विद्यालय तक के दौर में संस्कार घरों में मिलने लगे और शिक्षा विद्यालयों
में। भारत में संस्कार सिंचन दादा-दादी के
किस्से कहानीयों से नैतिक शिक्षा की किताबों से मिलने लग गए, तो इसलिए दादा-दादी और
बच्चों की भाषा एक होना भी आवश्यक है। यदि दोनों की भाषा का अलग होना वो सांस्कृतिक
पुल को तोड़ता है, संस्कार न केवल हिन्दी बल्कि मातृभाषा या कहें स्वभाषा में मिलते
है । अब बात करें भाषा को अपनाने से संस्कारों के बीज भारत में पुन: अंकुरित इसलिए
हो सकते है क्योंकि 72 प्रतिशत हिन्दुस्तान हिन्दी को मातृभाषा मानता है, और 26 प्रतिशत
लोग अन्य क्षेत्रीय हिन्दुस्तानी भाषा को, जबकि महज 2 प्रतिशत लोगो की अधिकारिक मातृभाषा
अंग्रेजी है, तो संख्याबल के अनुसार हिन्दुस्तान में संस्कार तो हिन्दुस्तानी भाषा
से ही सिंचित होते है।
अंग्रेजी भारत में लगभग 16 वीं शताब्दी में अंग्रेजो के आने के बाद आई,
उसके पहले तो मूल में हिन्दुस्तानी भाषाएं ही थी, और अंग्रेजी का फैलाव भी बीते 80
सालों में ही हुआ है, सबसे ज्यादा बीते 7 दशक में, मतलब हम हमारे संस्कारों की वाहिनी
के तौर पर भाषा को स्वीकारते हैं। किन्तु विडंबना
यह भी है कि इसके बाजार अधिग्रहण के बाद ही विकृत रुप भी सामने आया, जिस तरह से मैकाले
ने पेश किया। दूसरा तर्क हिन्दुस्तान एक भावना प्रधान देश है, यह विश्व का एकमात्र
देश है जहाँ की भूमि को माँ माना जाता है और आराध्य मान कर वंदेमातरम् या मादर-ए-वतन
हिन्दुस्तान कह कर अभिनंदन किया जाता है, इसलिए भाषा को भी माँ कहा गया है, जो हिन्दुस्तानी
भाषा से प्रेम करता है वह राष्ट्र से भी प्रेम करता है। एक और महत्वपूर्ण बात कि वृद्धाश्रम की अवधारणा
हिन्दुस्तान में कब से आई, पहले तो हमारे ही देश में पिता द्वारा तीसरी पत्नी को दिए
वचन को पूर्ण करने के लिए पहली पत्नी का बेटा वन भोगने चला जाया करता था, संयुक्त परिवारों
का विखण्ड तो अब होने लगा। पहले तो यह था ही
नहीं, आप ही बताईए कि आखिर ये सब अंग्रेजी के प्रभाव के बाद ही क्यों बढ़ा? पहले एकल
परिवार का वजुद ही नहीं था, हमारे यहाँ तो पड़ोसी के बच्चे पर भी अपने बच्चें की तरह
अधिकार जता कर गलती होने पर सजा दिए जाने की प्रथा रही है। पाश्चात्य के स्वर के मुखर होने से हमारे संस्कार
प्रभावित हुए है। जिस तरह बिजली वाले तीन माह की गणना करके औसत जोड़कर बिल थमाते है
वैसे ही अंग्रेजी का औसत हिन्दुस्तान में हिन्दी से कमजोर रहा है, इसलिए संस्कारों
का ककहरा हिन्दी को माना जाता है। अत: हिन्दी संस्कारों के सिंचन की पुन व्यवस्था है।
इन तथ्यों के बाद भी एक और भावनात्मक कारण का जवाब मैं उस घटना से देना चाहता हूँ जिसने हिला कर रख दिया था।
एक बार अनायास ही शहर के प्रतिष्ठित व्यवसायी शर्मा जी के घर जाना हुआ, शर्मा जी और उनकी अर्धांगिनी के साथ बैठक कक्ष में बात कर ही रहे थे उसी दौरान शर्मा जी की छोटी बच्ची मिशा आई और श्रीमती शर्मा से कहने लगी,
मम्मी! व्हाट इस धीस?
आई एम् नॉट कम्फर्टेबले विथ ग्रेंड मदर,
शी इज नॉट डुइंग गुड बिहेव विथ माय फ्रेंड्स?
ऑलवेज शी स्पीक्स हिन्दी विथ डेम,
माय फ्रेंड सेइंग डेट शी इज इल्लिट्रेट एंड वी आर पुअर…
दो मिनिट के लिए सन्नाटा पसर गया, फिर सफाई देती हुई श्रीमती शर्मा कहने लगी कि भाई साहब अब मम्मी को क्या समझाए कि बच्चों के दोस्तों के सामने न जाया करे, फिर भी न जाने क्यों मानती ही नहीं... और जब अंग्रेजी नहीं आती तो फिर कमरे में ही बैठना चाहिए था.. पर नहीं मानती, और फिर पलट कर शर्मा जी से कहने लगी कि क्यों न मम्मी को वृद्धाश्रम छोड़ आएं ?
शर्मा जी भी चुपचाप मौन समर्थन दे रहे थे, और मेरा काल मेरे सर पर सवार हो रहा था, मैंने जैसे- तैसे अपने आप पर काबू में किया और बस विदा ले कर घर आ गया, पूरी रात सो नहीं पाया, सुबह पांच बजे घर पर मेरी धर्मपत्नी मुझसे पूछने लगी अँधेरे कमरे में क्यों रातभर जगे हो, आँखों की सूजन बता रही है, आप पूरी रात रोएं है? आखिर क्यों? क्या हुआ ऐसा? मेरा जवाब केवल इतना सा निकल पाया कि यदि हिन्दी ही भारत की भाषा होती तो ये वृद्धाश्रम ही नहीं बनते। हाँ ये कड़वा सच है कि भारत की सांस्कृतिक विरासत को तोड़ने का माद्दा एक विदेशी भाषा में जरूर हो गया था, उस दिन के बाद न सो पाया और लग गया हिन्दी को भारत की जनभाषा बनाने में, ताकि मेरा राष्ट्र कभी न टूटे न ही कमजोर हो।
सनातन से राष्ट्र का गौरव और उसका अभिमान उसकी 'निज भाषा' होती हैं जो
उस राष्ट्र की पहचान के साथ-साथ संवाद का सशक्त माध्यम भी होती हैं।
संस्कार संस्कृति और समन्वय का
सशक्त माध्यम भाषा ही हैं। हम कह सकते है कि बिना राष्ट्रभाषा के राष्ट्र के सर्वागीण
विकास संभव नहीं है। या कहें बिना राष्ट्रभाषा के राष्ट्र गूंगा माना जाएगा। क्योंकि
परस्पर विचार विनिमय, संवाद पत्राचार, आपसी समझ में भाषा ही हमारी मदद करती है। स्वभाषा
के महत्व इतना है कि जीवन में इसके बिना राष्ट्र की वही स्थिति हो जाती है जैसे जल
बिन मीन। किसी भी राष्ट्र के लिए राष्ट्रभाषा तथा मातृभाषा का होना गौरव की बात होने
के साथ ही अत्यधिक सम्मान देने वाला भी होता है। भारत वर्ष पूरे विश्व में अकेला ऐसा
देश है, जिसके आलोक में विश्व की कई संस्कृतियों को जन्म लिया। यही कारण है कि हमारे
देश में अनेक भाषाएं पुष्पित एवं पल्लवित हुई। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक हमारा
देश सदैव विचारों एवं भावनाओं से आंदोलित होता रहा है। इसी भावनाओं एवं विचारों के
लिए हमें राष्ट्रभाषा की जरूरत महसूस हुई। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा भी है
कि ‘अपनी राष्ट्र भाषा के बिना राष्ट्र गूंगा ही होता है।' हमारे देश में प्रचलित और पल बढ़ रही सारी भाषाएं
हमारी संस्कृति की अलग अलग धाराएं है। सभी मिलकर भारतीय चिंतन और परंपरा को पूर्णता
प्रदान करती है। हिन्दी देश के विशाल भू क्षेत्र में बोली और समझी जाने वाली भाषा है।
अतः इसे राष्ट्रभाषा स्वीकार करने में किसी को परहेज नहीं होना चाहिए। हमारे देश के
स्वप्नकारों ने हिन्दी को जनसंपर्क के रूप में अपनाकर उसे राष्ट्र की अस्मिता से जोड़ा
और देश को एकता के सूत्र में बांधने की श्रृंखला माना।
अंग्रेजियत ने हमेशा से हिंदुस्तान को पराजित कर इस पर अधिकार करना चाहा
हैं, किन्तु इसे युद्ध का नियम कहें यह सत्य कि जिससे हम युद्ध लड़ते है और हम जब यह
जान जाते है कि हमारा प्रतिद्वंदी हमसे अधिक बलशाली और ऊर्जावान है तो समर्पण करना
रणछोड़ बना देता है, अंग्रेजियत भी जानती है कि हिन्दुस्तान को झुकना इतना आसान नहीं
है जब तक उसकी सांस्कृतिक विरासत उसके साथ है। अंग्रेजियत की नीति आदर्श युद्धनीति
की तरह नहीं बल्कि फुट डालो और राज करो की रही है, उसी की तर्ज पर उन्होंने हमारी सांस्कृतिक
अखंडता को तोड़ने के प्रयत्न करना शुरू कर दिया, इसी सन्दर्भ में उन्होंने अध्ययन किया
कि हमारे संस्कार कहाँ से आते हैं, साफ तौर पर पाया कि बुजुर्गो की कहानियों और सनातन
से लिखे जा चुके साहित्य से ही हमारा संस्कार तत्व जिन्दा हैं। इसी को तोड़ने की जद्दोहद में पाया कि यदि भाषा जो
उन किताबों की है वही समूल नष्ट कर दी जाए तो पचास या सौ बरस में तो हम इस संस्कृति को ही नष्ट करके भारत पर पुन: कब्ज़ा कर सकते हैं, क्योंकि भाषा नहीं रहेंगी,
तो बच्चों और बुजुर्गो के बीच दूरियां आएंगी जिसे आप 'जनरेशन गेप' कहते है और वही सांस्कृतिक
पतन का प्रथम अध्याय होगा। सबसे पहले हमारे राष्ट्र में संवाद की भाषा संस्कृत रही,
जिसमें हमारे यहाँ सृजन हुआ, लेखन और काव्य भी संस्कार बने, उसके बाद क्षेत्रीय बोलियों
के साथ हिन्दी आई पर अंग्रेजीयन ने जो हाल संस्कृत का किया, उसे पांडित्य की भाषा प्रचारित किया अंग्रेजियत अब वही हाल हिन्दी का
करने पर आतुर है।
यदि किसी शरीर से बदला लेना हो तो उसके पेट (उदर) को खराब कर दो, पेट खराब
होगा तो शरीर बीमारियों से ग्रस्त हो जाएगा। और पेट को खराब करना हो तो जीभ बिगाड़
दो, जीभ के मार्ग से दूषित खाना पेट में जाएगा और पेट खराब हो जाएगा। उसी तरह शरीर
मतलब एक राष्ट्र को माने तो पेट उसकी संस्कृति है और संस्कृति को खराब करना है तो जीभ
यानी उसकी भाषा को खराब कर दो तो राष्ट्र के पतन के लिए भाषा उत्तरदायी हो गई। इसी
अँग्रेजियत ने हिन्दुस्तान की गौरवमयी ने संस्कृति को नष्ट करने के लाइ भाषा का मार्ग
चुना। ताकि भारत का भविष्य उसकी नाभि में छुपी मृगनयनी कस्तूरी के लिए भटकता रहे और
अपनी सांस्कृतिक विरासत से दूर हो कर उसी के लिए लालायित रहें, जैसा की आयुर्वेद और
एलोपेथी के मामले में हुआ।
संवैधानिक पक्ष
भारतीय संविधान निर्मात्री सभा के अध्यक्ष डॉ॰ भीमराव अंबेडकर चाहते थे
कि संस्कृत इस देश की राष्ट्र भाषा बने, लेकिन अभी तक किसी भी भाषा को राष्ट्र भाषा
के रूप में नहीं माना गया है। सरकार ने 22 भाषाओं को आधिकारिक भाषा के रूप में जगह
दी है। जिसमें केन्द्र सरकार या राज्य सरकार अपने जगह के अनुसार किसी भी भाषा को आधिकारिक
भाषा के रूप में चुन सकती है। केन्द्र सरकार ने अपने कार्यों के लिए हिन्दी और अंग्रेजी
भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में जगह दी है। इसके अलावा अलग अलग राज्यों में स्थानीय
भाषा के अनुसार भी अलग अलग आधिकारिक भाषाओं को चुना गया है। फिलहाल 22 आधिकारिक भाषाओं
में असमी, उर्दू, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली,
ओडिया, पंजाबी, संस्कृत, संतली, सिंधी, तमिल, तेलुगू, बोड़ो, डोगरी, बंगाली और गुजराती
है। वर्तमान में सभी 22 भाषाओं को आधिकारिक भाषा का दर्जा प्राप्त है। 2010 में गुजरात
उच्च न्यायालय ने भी सभी भाषाओं को समान अधिकार के साथ रखने की बात की थी, हालांकि
न्यायालयों और कई स्थानों में केवल अंग्रेजी भाषा को ही जगह दिया गया है।
समग्र के रोष के बाद, सत्य की समालोचना के बाद, दक्षिण
के विरोध के बाद, समस्त की सापेक्षता के बाद, स्वर के मुखर होने के बाद, क्रांति के
सजग होने के बाद, दिनकर,भास्कर, चतुर्वेदी के त्याग के बाद, पंत,सुमन, मंगल,महादेवी
के समर्पण के बाद भी कोई भाषा यदि राष्ट्रभाषा के गौरव का वरण नहीं कर पाई तो इसके
पीछे राजनैतिक धृष्टता के सिवा कोई कारक तत्व दृष्टिगत नहीं होता।
हाँ! जब एक भाषा संपूर्ण राष्ट्र के आभामण्डल में उस पीले रंग की भांति सुशोभित
है जो चक्र की पूर्णता को शोभायमान कर रहा है, उसके बाद भी 'राजभाषा' की संज्ञा देना
न्यायसंगत नहीं लगता।
बहरहाल हम पहले ये तो जाने कि क्यों आवश्कता है राष्ट्रभाषा की? जिस तरह एक
राष्ट्र के निर्माण के साथ ही ध्वज को, पक्षी को, खेल को, पिता को, गीत को, गान को,
चिन्ह तक को राष्ट्र के स्वाभिमान से जोड़कर संविधान सम्मत बनाने और संविधान की परिधि
में लाने का कार्य किया गया है तो फिर भाषा क्योंकर नहीं?
किसी भी राष्ट्र में जिस तरह राष्ट्रचिन्ह, राष्ट्रगान, राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगीत,
राष्ट्रीय पक्षी, राष्ट्रीय पशु की अवहेलना होने पर देशद्रोह का दोष लगता है परन्तु
भारत में हिन्दी के प्रति इस तरह का प्रेम राजनैतिक स्वार्थ के चलते राजनीति प्रेरित
लोग नहीं दर्शा पाए, उसके पीछे मूल कारण में सत्तासीन राजनीतिक दल का दक्षिण का पारंपरिक
वोट बैंक टूटना भी है।
हाशिए पर आ चुकी बोलियाँ जब केन्द्रीय तौर पर एकिकृत होना चाहती है तो उनकी
आशा का रुख सदैव हिन्दी की ओर होता है, हिन्दी सभी बोलियों को स्व में समाहित करने
का दंभ भी भरती है साथ ही उन बोलियों के मूल में संरक्षित भी होती है। इसी कारण समग्र
राष्ट्र के चिन्तन और संवाद की केंद्रीय भाषा हिन्दी ही रही है।
विश्व के 178 देशों की अपनी एक राष्ट्रभाषा है, जबकि इनमे से 101 देश में एक
से ज्यादा भाषाओं पर निर्भरता है और सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि एक छोटा-सा राष्ट्र
है 'फिजी गणराज्य' जिसकी आबादी का कुल 37 प्रतिशत हिस्सा ही हिन्दी बोलता है, पर उन्होनें
अपनी राष्ट्रभाषा हिन्दी को घोषित कर रखा है। जबकि हिन्दुस्तान में 50 प्रतिशत से ज्यादा
लोग हिन्दीभाषी होने के बावजूद भी केवल राजभाषा के तौर पर हिन्दी स्वीकारी गई है।
राजभाषा का मतलब साफ है कि केवल राजकार्यों की भाषा।
आखिर राजभाषा को संवैधानिक आलोक में देखें तो पता चलता है कि 'राजभाषा' नामक
भ्रम के सहारे सत्तासीन राजनैतिक दल ने अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली। उन्होनें
दक्षिण के बागी स्वर को भी समेट लिया और देश को भी झुनझुना पकड़ा दिया ।
राजभाषा बनाने के पीछे सन 1967 में बापू के तर्क का हवाला दिया गया जिसमें
बापू नें संवाद शैली में राष्ट्रभाषा को राजभाषा कहा था । शायद बापू का अभिप्राय राजकीय
कार्यों के साथ राष्ट्र के स्वर से रहा हो परन्तु तात्कालिन एकत्रित राजनैतिक ताकतों
ने स्वयं के स्वार्थ के चलते बापू की लिखावट को ढाल बनाकर हिन्दी को ही हाशिए पर ला
दिया ।
देश के लगभग १० से अधिक राज्यों में बहुतायत में हिन्दी भाषी लोग रहते हैं,
अनुमानित रुप से भारत में ४० फीसदी से ज़्यादा लोग हिन्दी भाषा बोलते है । किंतु दुर्भाग्य
है क़ि हिन्दी को जो स्थान शासकीय तंत्र से भारत में मिलना चाहिए वो कृपापूर्वक दी
जा रही खैरात है बल्कि हिन्दी का स्थान राष्ट्र भाषा का होना चाहिए न क़ि राजभाषा का
। हिन्दी का अधिकार राष्ट्रभाषा का है। हिन्दी के सम्मान की संवैधानिक लड़ाई देशभर
में विगत ५ दशक से ज़्यादा समय से जारी है, हर भाषाप्रेमी अपने-अपने स्तर पर भाषा के
सम्मान की लड़ाई लड़ रहा है ।
हाँ! हम भारतवंशियों को कभी आवश्यकता महसूस नहीं हुई राष्ट्रभाषा की, परन्तु
जब देश के अन्दर ही देश की राजभाषा या हिन्दी भाषा का अपमान हो तब मन का उत्तेजित होना
स्वाभाविक है। जैसे राष्ट्र के सर्वोच्च न्याय मंदिर ने एक आदेश पारित दिया है कि न्यायालय
में निकलने वाले समस्त न्यायदृष्टान्त व न्यायिक फैसलों की प्रथम प्रति हिन्दी में
होगी, परन्तु 90 प्रतिशत इसी आदेश की अवहेलना न्यायमंदिर में होकर सभी निर्णय की प्रतियाँ
अंग्रेजी में दी जाती है और यदि प्रति हिन्दी में मांगी जाए तो अतिरिक्त शुल्क जमा
करवाया जाता है । और जब फैसला अंग्रेजी में मिलता है तो आमजनसमान्य उसे सहज रूप से नहीं समझ सकता, इसका भी कतिपय लोगों द्वारा फायदा उठाया जाता हैं।
वैसे ही देश के कुछ राज्यों में हिन्दीभाषी होना ही पीढ़ादायक होने लगा है
जैसे कर्नाटक सहित तमिलनाडु, महाराष्ट्र आदि । वही हिन्दीभाषियों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार
भी सार्वभौमिक है । साथ ही कई जगहों पर तो हिन्दी साहित्यकारों को प्रताड़ित भी किया
जाता है । ऐसी परिस्थिति में कानून सम्मत भाषा अधिकार होना यानी राष्ट्रभाषा का होना
सबसे महत्वपूर्ण है । इन सबके पीछे एक कारण यह भी रहा कि हमारी सरकारों ने हिन्दी को
संपर्क भाषा के रूप में स्थापित करने की मंशा ही नहीं जताई, अन्यथा अन्य भारतीय भाषाओँ
और हिन्दी के बीच सबसे पहले समन्वय स्थापित किया जाता और हिन्दी को थोपा नहीं जाता
बल्कि उन स्वभाषाओं के साथ स्थापित किया जाता।
कमोबेश हिन्दी की वर्तमान स्थिति को देखकर सत्ता से आशा ही की जा सकती है कि
वे देश की सांस्कृतिक विरासत को सहेजने के लिए, संस्कार सिंचन के तारतम्य में हिन्दी
को राष्ट्रभाषा घोषित कर इसे अनिवार्य शिक्षा में शामिल करें । इन्हीं सब तर्कों के
संप्रेषण व आरोहण के बाद ही हिन्दी को राष्ट्रभाषा का सूर्य मिलेगा और देश की सबसे
बड़ी ताकत उसकी वैदिक संस्कृति व पुरातात्विक महत्व के साथ-साथ राष्ट्रप्रेम जीवित
रहेगा।
विविधताओं में एकता की परिभाषा से अलंकृत राष्ट्र यदि कोई हैं तो भारत
के सिवा दूसरा नहीं।। यक़ीनन इस बात में उतना ही दम हैं जितना भारत के विश्वगुरु होने
के तथ्य को स्वीकार करने में हैं। भारत संस्कृतिप्रधान और विभिन्न जाति, धर्मों, भाषाओं,
परिवेश व बोलियों को साथ लेकर एक पूर्ण गणतांत्रिक राष्ट्र बना। इसकी परिकल्पना में
ही सभी धर्म, पंथ, जाति और भाषाओं का समावेश हैं। जिस राष्ट्र के पास अपनी २२ संवैधानिक
व अधिकारिक भाषाएँ हों, जहां पर कोस-कोस पर पानी और चार कोस पर बानी बदलने की बात कही
जाती है, जहां लगभग १७९ भाषाओं ५४४ बोलिया हैं बावजूद इसके राष्ट्र का राजकाज एक विदेशी
भाषा के अधिकनस्थ और गुलामी की मानसिकता के साथ हो रहा हो यह तो ताज्जुब का विषय हैं।
स्वभाषाओं के उत्थान हेतु न कोई दिशा हैं न ही संकल्पशक्ति। भारतीय भाषाएं अभी भी विदेशी
भाषाओं के वर्चस्व के कारण दम तोड़ रही रही हैं।
एक समय आएगा जब देश की एक भाषा हिन्दी तो दूर बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं की भी
हत्या हो चुकी होगी, इसलिए राष्ट्र के तमाम भाषा हितैषियों को भारतीय भाषाओं में समन्वय
बना कर हिन्दी भाषा को राष्ट्र भाषा बनाना होगा और अंतर्राज्यीय कार्यों को स्थानीय
भाषाओं में करना होगा। अँग्रेजियत की गुलाम मानसिकता से जब तक किनारा नहीं किया जाता
भारतीय भाषाओं की मृत्यु तय हैं। और हिन्दी को इसके वास्तविक स्थान पर स्थापित करने
के लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि इसकी स्वीकार्यता जनभाषा के रूप में हो । यह स्वीकार्यता
आंदोलनों या क्रांतियों से नही आने वाली है। इसके लिए हिन्दी को रोजगारपरक भाषा के
रूप में विकसित करना होगा क्योंकि भारत विश्व का दूसरा बड़ा बाजार हैं और बाजारमूलक
भाषा की स्वीकार्यता सभी जगह आसानी से हो सकती हैं। साथ ही अनुवादों और मानकीकरण के
जरिए इसे और समृद्धता और परिपुष्टता की ओर ले जाना होगा।
हमारे राष्ट्र को सृजन की ऐसी आधारशिला की आवश्यकता हैं जिससे हिन्दी व
क्षेत्रीय भाषाओँ के उत्थान के लिए एक ऐसा सृजनात्मक द्दष्टिकोण विकसित हो जो न सिर्फ
हिन्दी व क्षेत्रीय भाषाओँ को पुष्ट करेगा बल्कि उन भाषाओ को एक दूसरे का पूरक भी बनाएगा।
इससे भाषा की गुणवता तो बढ़ेगी ही उसकी गरिमा फिर से स्थापित होगी। आज के दौर में हिन्दी
को लेकर जो नकारात्मकता चल रही है उसे सकारात्मक मूल्यों के साथ संवर्धन हेतु प्रयास
करना होगा।
भारतीय राज्यों में समन्वय होने के साथ-साथ प्रत्येक भाषा को बोलने वाले
लोगो के मन में दूसरी भाषा के प्रति भरे हुए गुस्से को समाप्त करना होगा। जैसे द्रविड़
भाषाओं का आर्यभाषा,नाग और कोल भाषाओं से समन्वय स्थापित नहीं हो पाया,उसका कारण भी
राजनीति की कलुषित चाल रही, अपने वोटबैंक को सहेजने के चक्कर में नेताओं ने भाषाओं
और बोलियों के साथ-साथ लोगो को भी आपस में मिलने नहीं दिया। इतना बैर दिमाग़ में भर
दिया कि एक भाषाई दूसरे भाषाई को अपना निजी शत्रु मानने लग गया, जबकि ऐसा नहीं होना
चाहिए था। हर भारतवंशीय को स्वभाषा का महत्व समझा कर देश की एक केंद्रीय संपर्क भाषा
के लिए तैयार करना होगा. क्योंकि विश्व पटल पर भारत की कोई भी राष्ट्रभाषा नहीं हैं,
विविधताओं के बावजूद भी भारत की साख में केवल राष्ट्रभाषा न होना भी एक रोड़ा हैं।
हर भारतीय को चाहना होगा एक संपर्क भाषा वरना दो बिल्लियों की लड़ाई में बंदर रोटी
खा जाएगा, मतलब साफ है कि यदि हमारी भारतीय भाषाओं के बीच हो लड़ाई चलती रही तो स्वभाविक
तौर पर अँग्रेज़ी उस स्थान को भरेगी और आनेवाले समय में एक अदने से देश में बोली जाने
वाली भाषा जिसे विश्व में भी कुल ७ प्रतिशत से ज़्यादा लोग नहीं बोलते भारत की राष्ट्रभाषा
बन जाएगी।
भारत का भाल और इसका अभिमान इसकी भाषा के साथ इसकी संस्कृति से है, बिना भाषा के राष्ट्र का अस्तित्व खतरे में है। हमारा संकल्प होना चाहिए कि हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा
के रूप में स्थापित करने के साथ ही अनिवार्य शिक्षा में शामिल करवाना होगा । तब ही संस्कार और भारत बन सकता है बच सकता हैं।
डॉ. अर्पण जैन 'अविचल'
पत्रकार एवं स्तंभकार
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[लेखक डॉ. अर्पण जैन 'अविचल'
मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार
हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं]