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9.6.22

सतीश पेडणेकरः स्मृति शेष - एक राष्ट्रवादी पत्रकार का यूं चले जाना!

  -निरंजन परिहार

 

आईएसआईएस की कुत्सित कामवृत्ति, दुर्दांत दानवी दीवानगी और बर्बर बंदिशों की बखिया उधेड़ता इस्लामिक स्टेट की असलियत से अंतर्मन को उद्वेलित कर देने वाला  लेखा-जोखा दुनिया के सामने रखनेवाले पत्रकार सतीश पेडणेकर संसार को सदा के लिए छोडकर निकल गए। तीन दशक तक जनसत्ता में रहे सतीशजी का अचानक चले जाना यूं तो कोई बहुत बड़ी खबर नहीं, लेकिन स्मृतियों की मीमांसा और मंजुषा कहे जाने वाले मनुष्य की मौत जब स्मृति के ही खो जाने से हो जाए, तो वह किसी खबर से भी बहुत ज्यादा बड़ी बात होती है। याददाश्त उनकी बहुत गजब थी, सदियों पुरानी विवेचना से लेकर दशकों पुराने विश्लेषण को वे पल भर में तथ्यों के साथ सामने रख देते थे। वही स्मृति आखिरी दिनों में दगा दे गई थी और 6 जून 2022 को ले गई सतीशजी को अपने साथ। लगभग तीन दशक तक वे जनसत्ता में रहे, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय ख्याति मिली उन्हें इस्लामिक आतंकवाद पर लिखी पुस्तक से।  सन 2017 में आई सतीश पेडणेकर की बहुचर्चित पुस्तक आइएसआइएस और इस्लाम में सिविल वार ने इस्लामिक कट्टरता की जिस तर्ज पर बखिया उधेड़ी, वह हिम्मत उनसे पहले और कोई नहीं कर सका। इसी पुस्तक ने सतीशजी को अपने साथ काम कर चुके कई स्वयंभू दिग्गजों व संपादकों से भी अचानक बहुत बड़ा बना दिया। राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रखर पत्रकार के रूप में सतीश पेडणेकर की छाप सबके दिलों पर अमिट है। ग्वालियर में जन्मे और दिल्ली में इस लोक से विदा हुए सतीश पेडणेकर को शुरुआत में नाम संघ परिवार के अखबार पांचजन्य से मिला और बाकी जिंदगी जनसत्ता में गुजारकर खुद भी गुजर गए। 


 

 

 

पत्रकारिता में सतीश पेडणेकर ग्वालियर के एक अल्पज्ञात साप्ताहिक श्रमसाधनासे आए और 1977 से दिल्ली में कुछ दिनों तक मासिक पत्रिका जाह्नवी और बाद में 6 साल तक पाञ्चजन्य में उप संपादक रहे। सन 1983 में जनसत्ता के जन्म से ही वे उससे जुड़े और फिर जब 1988 में जनसत्ता जब मुंबई पहुंचा, तो वहां भी और बाद में मुंबई में ही संझा जनसत्ता के मुखिया के रूप में भी उन्होंने सफलता व लोकप्रियता का ऐसा परचम लहराया कि जनसत्ता खुद देखता रह गया।  सन 2003 में वे फिर दिल्ली लौटे और जनसत्ता से ही रिटायर भी हुए, लेकिन भीतर का पत्रकार जोर मारता रहा, सो 2011 में सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी की वेबसाइट में संपादकी की, न्यूज एक्सप्रेस चैनल में संपादक रहे और टीवी की प्राइम टाइम बहसों में भी शामिल रहे। अंतिम दिनों में वे फिर पांचजन्य में लिख रहे थे। इस्लाम, इस्लामी आतंकवाद और मुस्लिम मानसिकता जैसे ज्वलंत विषयों पर कुछ और पुस्तकें लिखने की तैयारी कर ही रहे थे कि स्मृतियां दगा देने लग गईं, और कुछ ही महीनों में विकराल रूप धर कर ले गई उन्हें अपने साथ।   

 

पत्रकारिता में गंभीरता के साथ सामाजिक सरोकारों को सहेजने वाली अंतिम पीढ़ी के बचे खुचे लोगों में सतीश पेडणेकर को गिना जाता था। आज की पत्रकारिता को दौर में तो खैर, उनके जैसा गंभीर पत्रकार शायद ही कोई मिले। लेकिन गहन अध्ययन के बाद संसार के समक्ष अपनी बात को रखनेवाले पत्रकार के रूप में उनको जाना जाएगा। वे किसी भी बात या विषय का ऐसा विवेचन करने वाले ऐसे पत्रकार थे, जिनका हर विश्लेषण किसी निर्णय पर खड़ा होता था, वह भी तत्व के साथ किया जाने वाला विचारपूर्वक निर्णयात्मक विश्लेषण। उनके विचारों में विषय की विरलता और वास्तविकता झलकती थी,  व गूढ़ और गंभीर तर्क उनके तरकश के ऐसे तीर होते थे, जो टीवी की डिबेट में सामनेवाले को बगलें झांकने को मजबूर कर देते थे। टीवी के ज्यादातर लफ्फाज तो खैर, उनसे लंबे ही रहते थे।  

 

राष्ट्रवादी विचारवाले पत्रकार सतीश पेडणेकर के संसार से विदा होने का सबको दुख है, लेकिन उससे भी बड़ा दुख इस बात का है कि उनके साथ जिन लोगों ने काम किया, और जिन्होंने अपना जीवन संवारने में उनका सहयोग लिया, उनमें से स्वयंभू दिग्गजों ने उल्लेखनीय तौर पर सतीशजी के जाने पर उनके बारे में कुछ लिखा हो, यह कहीं देखने को नहीं मिला। जनसत्ता के लोगों की बात करें, तो राहुल देव तो खैर आजकल मुख्यधारा की पत्रकारिता से लगभग दूर ही हैं। संजय निरुपम भी कांग्रेसी राजनीति में उलझे हुए हैं। राजीव शुक्ला राज्यसभा में फिर से जाने की फिराक में उलझे रहे  और द्विजेंद्र तिवारी भी अपनी आम आदमी पार्टी की चुनाव प्रक्रिया में पस्त हैं। भले ही राष्ट्रवादी विचारधारावाले संपादक प्रदीप सिंह भी अपने डेली शो में बहुत ज्यादा व्यस्त हैं, लेकिन फिर भी वक्त निकालकर कहीं भी कुछ लिखते, तो सतीशजी को एक अच्छे राष्ट्रवादी पत्रकार के रूप में ज्यादा लोग जानते। हालांकि, वेद विलास उनियाल ने सोशल मीडिया पर और गणेश झा व शंभुनाथ शुक्ल ने मीडिया जगत से संबद्ध वेबसाइट भड़ास पर जरूर श्रद्धांजलि दी।  लेकिन सतीशजी जैसे विरल व्यक्तित्व वाले पत्रकार के जाने पर सिर्फ इतना सा लिखा जाना, उनकी मौत की खबर से भी ज्यादा दुखी करने वाली बात है,  यह तो आपको भी लगता ही होगा!  

 

*(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं, एवं जनसत्ता में सतीश पेडणेकर के साथी रहे हैं)*

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