Rachana Priyadarshini-
- सराहनीय है सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला
आज सुबह-सवेरे जैसे ही मैंने अखबार हाथ में उठाया, तो सबसे पहले जिस खबर पर मेरी नजर गई, उसका शीर्षक था- "सुप्रीम कोर्ट ने लैंगिक रूढ़िवादिता से लड़ने के लिए लॉन्च किया हैंडबुक- अब कोर्ट में महिलाओं के लिए बिन ब्याही मां, हाउसवाइफ और अफेयर जैसे शब्द नहीं चलेंगे"
इस खबर पढ़ते ही दिल से एक आवाज आयी कि 'चलो, आखिरकार देर आये पर दुरुस्त आये...'
ऐसे लोगों की कोई विशेष जाति, उम्र, लिंग, संप्रदाय या पहचान नहीं होती. ये हर जगह और अमूमन हर देश में पाये जाते हैं. इनमें से ऐसे कई शब्दों का व्यवहारिक स्तर पर इस कदर सामान्यीकरन हो गया है कि हमें इसमें कुछ भी 'गलत' लगता ही नहीं, जबकि ये 'सामान्यीकरन' आज के दौर में बढ़ते 'अपराधीकरण' की एक बड़ी वजह बनता जा रहा है. यह बात कई शोध अध्ययनों में भी साबित हो चुकी है. मनोविज्ञान भी इस बात को स्वीकार करता है कि इंसान जैसा सोचता है, उसका व्यक्तित्व भी समय के साथ वैसा ही हो जाता है.
आज जरूरत इस बात कि है कि हम सामाजिक तथा व्यक्तिगत स्तर पर भी ऐसे अमर्यादित एवं अशोभनीय शब्दों के उपयोग का खुल कर विरोध करें. हो सकता है आपकी एक आवाज भविष्य में कई और लोगों की आवाजों में तब्दील हो जाये. हो सकता है कि इसमें लंबा वक्त लगे. तो क्या? कोई भी क्रांति एक ही दिन की नहीं होती और न ही कोई बदलाव एक दिन में होता है. यह एक नियमित तथा निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, जो कि बेहद जरूरी है, क्यूंकि एक सभ्य व्यक्ति और एक सभ्य समाज की पहचान उसके बाहरी आवरण से कहीं ज्यादा उसके बात-विचार एवं व्यवहार से होती है.
महात्मा गांधी के शब्दों में- "किसी देश की सफलता और सभ्यता इस बात से आंकी जा सकती है कि वहां के लोग महिलाओं और लड़कियों के साथ किस तरह से पेश आते हैं."
r.p.verma8@gmail.com
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