महेंद्र अवधेश-
'साहित्य आज तक' दिल्ली में आगामी 22 से 24 नवम्बर तक एक आयोजन कर रहा है, जिसमें उसने देश की नामचीन हस्तियों को बातचीत के लिए आमंत्रित किया है, जिनमें पत्रकार सुधीर चौधरी एवं उर्फी जावेद जैसे नाम भी शामिल हैं। जन-सामान्य को आयोजन से जोड़ने के लिए उसने एक अद्भुत पहल करते हुए ₹ 499 की टिकट भी लगा रखी है। हुआ सिर्फ इतना ही! बस, खलियर लोगों को अपना हाजमा दुरुस्त करने के लिए एक सटीक चूरन मिल गया। सोशल मीडिया पर सुधीर चौधरी और उर्फी की आयोजन में भागीदारी को लेकर तरह-तरह की बातें हो रही हैं।
मोदी सरकार की जबरदस्त पैरोकारी के आरोपों के चलते सुधीर चौधरी मीडिया के एक बड़े वर्ग की आंखों की किरकिरी बने हुए हैं। सत्ता से उनकी नजदीकी किसी से छिपी नहीं है। वहीं शबाना-जावेद अख्तर की बेटी उर्फी जावेद अपने विचित्र पहनावे को लेकर अक्सर चर्चा में आती रहती हैं। लेकिन, सवाल यह है कि इन दोनों हस्तियों के साहित्य आज तक के कार्यक्रम में शामिल होने से भला किसी को क्या परेशानी है? भारतीय साहित्य जगत के शीर्षस्थ हस्ताक्षर अगर इस पर कोई सवाल उठाते तो बात का एक महत्व भी बनता था। लेकिन देखने में आ रहा है कि कोई भी औना-पौना शख्स कार्यक्रम की खिल्ली उड़ाए सिद्ध है! जब आयोजन 'आज तक' का है, व्यवस्थाएं सारी उनकी हैं, खर्च भी वही वहन कर रहे हैं, तो वे किसी को भी बुलाएं, उनकी मर्जी। दर्शकों के लिए टिकट लगाएं अथवा जलसा-ए-आम घोषित कर दें, उनकी मर्जी। किसी दूसरे के पेट में मरोड़ आखिर क्यों?
रही बात सत्ता से नजदीकी की, तो सुधीर चौधरी ऐसे पहले शख्स नहीं हैं और इसमें कोई बुराई भी नहीं है। सरकार किसी भी दल की रही हो, जो चिपकने में कामयाब रहा, उसने धरके मलाई काट दी। और, सरकार भी कोई बुरी नहीं होती। बस उसके कुछ फैसले असहज से होते हैं, तो ऐसे में मीडिया का धर्म है कि वह उस पर सवाल उठाए और सरकार का भी पक्ष समझे। पत्रकार को सत्ता प्रतिष्ठान की कमियों पर बराबर गौर करना चाहिए, उन पर रोशनी डालनी चाहिए, लेकिन दुश्मनी नहीं करनी चाहिए। आप बने रहिए क्रांतिकारी और दूसरों को बनाते रहिए, कोई पूछने वाला नहीं है। बेवजह की क्रांति घर की शांति छीन लेती है। रसोई आपकी क्रांति से नहीं चलती है। मौजूदा दौर में नौकरी की आखिर क्या गारंटी है? नियोक्ता गण जब चाहें, लात मारकर निकाल दें। वीकली ऑफ, इंक्रीमेंट, प्रमोशन आदि वे हजम किए बैठे हैं। और, उसमें सहायक बनते हैं हमारे-आपके साथी वरिष्ठ। तब सारी की सारी क्रांति धरी रह जाती है। कोई पूछने नहीं आता कि रसोई के कनस्तरों में राशन है या नहीं।
अब बात उर्फी जावेद की। तो साधुओ! कौन क्या पहनता है, क्या खाता है और कैसे रहता है, यह हमारे-आपके चिंतन-चिंता का विषय कैसे हो गया? उर्फी के पहनावे और जीवन शैली पर सवाल खड़ा करने का हक सिर्फ और सिर्फ शबाना एवं जावेद अख्तर को है, चिंता करने की जिम्मेदारी भी उनकी है। वे उर्फी के जन्मदाता और पालक हैं। हम-आप क्या हैं? जब शबाना-जावेद को किसी तरह का ऐतराज नहीं है तो किसी अन्य को यह हक कैसे दिया जा सकता है? घर के नशेड़ी, गंजेड़ी, आवारा और विभिन्न प्रकार के कुकृत्यों में लिप्त बेटे को कानून के शिकंजे में फंसने से बचाने के लिए हम-आप क्या-क्या जतन नहीं करते हैं? किस-किस से कहते नहीं फिरते कि आपके बेटे जैसा है, थोड़ा रहम कीजिए। लेकिन, किसी दूसरे की बेटी अगर समाज से परे हटकर कुछ कर गुजरे तो फिर सबके सीने पर सांप लोटने लगता है। आखिर क्यों? क्या उर्फी सिर्फ शबाना एवं जावेद अख्तर की बेटी है? नहीं, वह पूरे देश की बेटी है और उसे अपने अंदाज में जीने का पूरा हक है। ठीक उसी तरह, जैसे हमारे-आपके बेटों को सड़क पर सिगरेट का सुट्टा लगाने और क्लास बंक करके गर्लफ्रेंड के साथ मटरगश्ती करने का अधिकार बलात् हासिल है।
इति शुभम्...
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