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2.9.25

गरीब धनखड़ की पेंशन याचना

केपी सिंह-

जगदीप धनखड़ को खुशकिस्मत कहें या बदकिस्मत लेकिन वे जितने पदों पर रहे उनकी कार्यप्रणाली पर मीडिया की सुर्खियां बनती रहीं। धनखड़ साहब जब राज्यपाल थे तभी से उनके साथ यह संयोग शुरू हो गया था। संविधान की आदर्श परिकल्पना में राज्यपाल की भूमिका राज्य सरकार के साथ सामंजस्य बनाकर विधि-विधान के मुताबिक सरकार का संचालन सुनिश्चित करना होता है लेकिन भाजपा के अन्य राज्यपालों की तरह ही उन्होंने अपने पद को चुनी हुई सरकार की प्रतिद्वंदी संस्था के रूप में स्थापित किया। एक समय उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की सरकार को नियंत्रित करने के लिए सोनिया गांधी ने आईबी के रिटायर्ड अधिकारी को राज्यपाल बनवाकर लखनऊ भेज दिया। उन्हें कांग्रेस के नेता ज्ञापन देने आते थे और वे उस पर सरकार से पत्र भेजकर जबाव-तलब कर लिया करते थे। लेकिन उनको अपनी हद पता थी।

 चंबल के डकैत सरगनाओं को सरकार के प्रोत्साहन पर आधारित आरोप पत्र किस्म का ज्ञापन कांग्रेसियों ने दिया तो पेशबंदी, केस तैयार करने आदि पुलिसिया फन के माहिर पूर्व आईबी राज्यपाल ने मुलायम सरकार के अधिकारियों को बहुत चाकचौबंद पत्र तो भेज दिया जिससे मुलायम सिंह को सांसत महसूस करनी पड़ी। लेकिन यह नही हुआ कि वे राजभवन से निकल पड़ते और खुद डकैत पीड़ित जिलों को जायजा लेने लगते। जगदीप धनखड़ को राज्यपाल पद पर रहते हुए ऐसा कोई लिहाज नही हुआ। पश्चिम बंगाल में कई बार सनसनीखेज वारदात की सूचना पर उन्हें मौके पर जाकर खड़ा होते और राज्य सरकार के खिलाफ बयानबाजी करते देखा गया। इसके कारण तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की गालियां भी उन्होंने खूब सुनी।

ऐसा नही है कि जगदीप धनखड़ अल्पज्ञानी हों। वे सुप्रीम कोर्ट के वकील रहे हैं और उन्हें संविधान, कानून और परंपराओं का बहुत अच्छा ज्ञान है। कई बार ज्ञानी ऐसा काम कर जाते हैं जिससे लोगों को कहना पड़ता है कि दुष्टता से भरे ज्ञानी की बजाय अल्पज्ञानी ज्यादा अच्छा है। विद्वानों के कारण ही हमारे देश में कई सैकड़ा वर्षों तक भयानक सामाजिक व्यवस्था को थोपे रहना संभव हुआ। ऐसी सामाजिक व्यवस्था का गठन भी अपने आप में कम चमत्कार नही था। अगर दुष्ट विद्वता न होती तो ऐसी सामाजिक व्यवस्था को आबादी के बहुतायत से स्वीकृत कराना संभव हो ही नही सकता था जबकि बहुतायत के लिए वह व्यवस्था बहुत दारुण दुखदायी थी। जगदीप धनखड़ राज्यपाल पद की गरिमा से भलीभांति विज्ञ थे लेकिन विद्वता के कारण वाचालपन में उनका जोड़ नही था। मर्यादा अतिलंघन के हर मामले का औचित्य सिद्ध करने की कला उनके पास थी।

उनकी इस प्रतिभा के मददेनजर ही उनको देश के 14वे उपराष्ट्रपति के रूप में पदासीन कराया गया था। यहां भी उन्होंने अपनी डयूटी बदस्तूर निभाई। संविधान बदलने की सरकार की इच्छा के लिए माहौल बनाने की शुरूआत उन्होंने यह कह कर की कि सुप्रीम कोर्ट ने कोई भी सीमा तय की हो लेकिन संविधान में संसद सब कुछ बदल सकती है। सब कुछ बदले जाने का अर्थ यही तो है कि संसद चाहे तो वर्तमान संविधान को रदद करके नया संविधान मंजूर करा ले। एक भी बार धनखड़ के इस प्रतिपादन का प्रतिवाद न करने वाली मोदी सरकार यह कह रही है कि विपक्ष ने संविधान के मामले में भ्रम फैलाया वरना बाबा साहब के रचे गये संविधान को बचाये रखने में हम तो अपनी जान भी कुर्बान करने में पीछे न हटने वालों में हैं। संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत प्राप्त शक्तियों का उपयोग करते हुए उच्चतम न्यायालय ने राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए विधायी संस्था द्वारा पारित विधेयकों पर फैसले के संबंध में समय सीमा तय कर दी थी। इस पर जगदीप धनखड़ इस कदर फट पड़ थे कि सारी सीमाएं पार हो गई थीं। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लोकतंत्र पर मिसाइल दागना तक कह दिया था। लेकिन धनखड़ साहब सगे किसी के नही थे। सरकार के लिए भी अपने अंतःपुर में वे षणयंत्र रच रहे थे। उन्हें यह ख्याल नही रहा कि प्रधानमंत्री मोदी का खुफिया तंत्र कितना मजबूत है। उन्हें भनक तक नही लग पाई कि वे रडार पर है। उन्होंने कार्यकाल पूरा करने के बाद ही पद छोड़ने का एलान दो दिन पहले किया था। यहां तक कि वे उस दिन भी इस बात से बेखबर थे कि उनको बेआबरू कर निकाले जाने का फैसला हो गया है। अपने कक्ष में जब उन्होंने सत्तापक्ष और विपक्ष को आमंत्रित किया तो जेपी नडडा और किरन रिजजू सत्तापक्ष के दोनों प्रतिनिधि उनकी बैठक में नही पहुंचे। तब भी वे स्थिति को नही भांप पाये। उन्होंने इसे मान दिखाने का साधारण उपक्रम समझा और अगले दिन की सुबह फिर से बैठक तय कर दी। पर उसी दिन उनको सख्त संदेश मिला और दौड़े-दौड़े इस्तीफा लेकर उन्हें राष्ट्रपति भवन पहुंचना पड़ा।

इस दौरान उनकी घिघ्घी बंध गई। एक-दो दिन के लिए नहीं गत 21 जुलाई को उन्होंने इस्तीफा सौंपा था और इसके बाद आज तक उनका बोल बंद है। वे अब दृश्य में आये हैं तो इसलिए कि उन्हें पूर्व विधायक की अपनी बंद पेंशन वापस चाहिए। धनखड़ 1993 से 1998 तक राजस्थान के अजमेर जिले के किशनगढ़ क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर विधायक रहे थे। इसकी पेंशन उन्हें मिलती थी जो राज्यपाल बनने के बाद बंद हो गयी थी। अब वे इस पेंशन के हकदार बन गये हैं। वे सांसद भी रह चुके हैं। उन्हें पूर्व सांसद की पेंशन भी अनुमन्य है। पूर्व उपराष्ट्रपति के तौर पर भी उनके लिए 2 लाख रुपये महीने पेंशन की व्यवस्था है। अभी उन्होंने सेंट्रल विस्टा में बना उपराष्ट्रपति आवास नही छोड़ा है। लेकिन इस बंगले से निकलने के बाद भी वे आवासहीन नही होगें। लुटियंस जोन में उनको ए-टाइप बंगला मिलेगा जिसके बिजली पानी का बिल सरकार देगी। बंगला सरकारी खर्च पर ही फर्नीचर आदि से सुसज्जित होगा। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट की प्रेक्टिस से भी उन्होंने काफी कमाया होगा जिसकी अच्छी-खासी सेविंग उनके पास होनी चाहिए। जिम्मेदारी के नाम पर उनकी पत्नी के अलावा एक बेटी है जिसका विवाह हो चुका है। फिर भी धनखड़ साहब भूखों मरे जा रहे हैं। उन्हें पूर्व विधायकी की 42-45 हजार की पेंशन और चाहिए तब उनकी पूर्ति होगी। 

जगदीप धनखड़ ने संस्कार बोध होता तो उप राष्ट्रपति पद से हटाये जाने में उन्हें जिस तरह की जलालत महसूस करायी गई उसकी भरपाई के लिए विधानसभा की पेंशन मांगकर क्षुद्रपन का परिचय न देते। यह कानूनी रूप से भले ही गलत न हो लेकिन नैतिक रूप से ऐसा आचरण शर्मनाक है। यह अकेले धनखड़ की बात नही है। अमर सिंह, अंबानी, जयप्रदा आदि कितने ही ऐसे लोग संसद में पहुंचे जिनके पास दौलत और आमदनी का पारावार नही था। पर उन्होंने भी सरकारी बंगले का मोह नही त्यागा। अमर सिंह और जयप्रदा ने तो अपने स्तर का बंगला रिनोवेट कराने के लिए केंद्रीय लोक निर्माण विभाग से जबर्दस्ती कर डाली थी। चूंकि उस समय मनमोहन सिंह की कमजोर सरकार थी इसलिए हर किसी से ब्लैकमेल होने के लिए तत्पर रहती थी। यह हमारे चरित्र के घटियापन का नमूना है जो कितने भी सुखी समृद्ध होकर हम मुफ्तखोरी नही छोड़ना चाहते। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुरूआत में एक अच्छी पहल की थी। लोगों से इस बात की अपील करने की कि जो सक्षम हैं वे गैस सिलेण्डर की सब्सिडी खुद से छोड़ दें। उच्च पदों पर बैठे लोग अगर अपील करें तो उसका असर होता है। मोदी की अपील का असर हुआ था क्योंकि उस समय लोगों के मन में था कि वे त्यागी, देश और समाज के लिए समर्पित नेता हैं। लेकिन आज मोदी उन लोगों से जिनके पास सारी सुख-सुविधाएं हैं साथ ही गरीबी वाला राशनकार्ड भी है क्यों यह अपील नही कर पा रहे कि आप अपना राशनकार्ड जमा करके मुफ्त राशन लेना बंद करें। सुरुचि एक अलग चीज है और विलासिता अलग। सुरुचि बोध होना चाहिए और उसकी छाप आप सादगी में भी छोड़ सकते हो। पर मोदी जी के चश्में, घड़ी, पहनावा आदि को लेकर जो चर्चाएं आज व्याप्त हैं उसके चलते उनके जीवन विलास की ऐसी धारणाएं निर्मित हो गई हैं जिनके रहते त्याग की प्रतिमूर्ति की उनकी छवि बुरी तरह दरकी है। शायद इसका अपराधबोध स्वयं हमारे प्रधानमंत्री को खुद भी है। इसलिए अब वे कोई ऐसी अपील करने का नैतिक साहस नही कर पा रहे हैं जिससे लोगों को चारित्रिक उत्थान की प्रेरणा मिल सके।

बहरहाल जगदीप धनखड़ की पेंशन याचना से जनमानस को बहुत वितृष्णा हुई है। जरूरत इस बात की है कि ऐसे प्रसंगों के बरक्स लोगों द्वारा महानुभावों की फजीहत में कोई कसर नही रखी जानी चाहिए तांकि उनका जमीर जगाया जा सके। महाजन जिस पंथ पर चलते हैं लोग उसी रास्ते का अनुसरण करते हैं। इसलिए ऐसी प्रतिक्रिया सवर्था अपेक्षित हैं।

1.9.25

संभल फाइल 1978- किसे बेनकाब कर रहे हैं योगी!

केपी सिंह-

उत्तर प्रदेश के समाचारों में संभल सुर्खियों में है। संभल की शाही जामा मस्जिद के नीचे बाबर द्वारा गिराया गया पृथ्वीराज चौहान निर्मित हरिहर मंदिर होने के दावे को लेकर स्थानीय सिविल कोर्ट में याचिका दायर की गई थी। सिविल कोर्ट ने इसमें सर्वेक्षण के आदेश जारी कर दिये। 19 नवम्बर को सर्वे के लिए पहुंची टीम के साथ शुरू हुआ तनाव जुमे की नमाज के दिन तक गंभीर हो गया। 24 नवम्बर को दंगा भड़क गया जिसमें पांच मुसलमान मारे गये और दर्जनों पुलिसकर्मी घायल हो गये। रिटायर्ड जज डीके अरोड़ा की अध्यक्षता में मुख्यमंत्री ने संभल की पूरी स्थिति के अध्ययन के लिए तीन सदस्यीय न्यायिक समिति गठित की। जिसमें आईएएस अमित मोहन प्रसाद और रिटायर्ड डीजीपी एके जैन को सदस्य के रूप में शामिल किया गया।

अमित मोहन प्रसाद वही हैं जो कोरोना के समय स्वास्थ्य विभाग की कमान संभाले हुए थे। विभाग के मंत्री सहित सत्तारूढ़ खेमे के कई नेताओं ने उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाये थे लेकिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उन पर वरदहस्त रख छोड़ा था। आखिर में केंद्र ने सीधे उनके खिलाफ जांच के आदेश जारी कर दिये तब उनका विभाग बदला गया। रिटायरमेंट के बाद भी वे योगी के चहेते बने हुए हैं।

योगी की अपनी अलग कार्य शैली है। वे एक कॉकस की सलाह को मानकर सरकार चलाते हैं। उनके खास अधिकारी चाहे वे अवनीश अवस्थी हों या अमित मोहन प्रसाद, का प्रशासन में दखल सेवा निवृत्त होने के बाद भी कायम बना हुआ है।

वैसे तो समिति की रिपोर्ट घोषित तौर पर गोपनीय है। एके जैन से औपचारिक तौर पर पूंछा गया तो उन्होंने यही कहा कि रिपोर्ट को लेकर वे कोई तथ्य नही बता सकते। रिपोर्ट गोपनीय है। लेकिन सरकार में दाखिल की जा चुकी समिति की रिपोर्ट के कई अंशों की चर्चा करके भाजपा नेताओं ने खुद इस छल का पर्दाफाश कर दिया। मीडिया में भी यह रिपोर्ट लीक की जा चुकी है तांकि इसके माध्यम से एक खास एगिंल उभारा जा सके।

अधिकारियों ने इस रिपोर्ट में यह तथ्य उभारने के लिए बहुत पसीना बहाया है कि संभल के दंगों में हिन्दुओं की ही इकतरफा बलि हुई है। यह ताजा दंगें में केवल मुसलमानों के ही मारे जाने से जुड़े सवालों का जबाव माना जाना चाहिए।

450 पन्नों की यह रिपोर्ट कहती है कि अभी तक के सात दशकों में संभल में 15 दंगे हुए जिनमें 209 हिंदू मारे गये जबकि मुसलमानों में केवल 4 की मौत हुई। खासतौर से 1978 के भीषण दंगे का जिक्र किया जा रहा है जिसमें मुख्यमंत्री के अनुसार 184 हिंदू मारे गये थे।

दूसरे सूत्रों में कोई केवल 9 और कोई अधिकतम 24 मौतों की बात बता रहा है। मुख्यमंत्री ने जो संख्या बतायी उसका स्रोत क्या है यह स्पष्ट नही है। मजे की बात यह है कि 29 और 30 मार्च 1978 को हुए इन दंगों की 169 एफआईआर लिखी गईं थीं लेकिन इनका रिकॉर्ड थाने से गायब है। बहाना यह है कि संभल पहले मुरादाबाद जिले की तहसील थी इसलिए रिकॉर्ड मुरादाबाद में होगा। यह भी बताया गया कि मुरादाबाद जिले के अधिकारियों से इस बारे में सूचना मांगी गई है। लो कर लो योगी की जानकारी पर कोई सवाल।

जिज्ञासा यह उभरती है कि 1978 में प्रदेश में क्या कोई हिंदू विरोधी सरकार थी जो हिंदुओं का नरसंहार में प्रभावी संरक्षण करने से बच निकली थी। 1978 में उत्तर प्रदेश में कई दलों का विलय कर बनी जनता पार्टी की सरकार से रामनरेश यादव मुख्यमंत्री थे जो कि लोकदल घटक के थे। जबकि जनसंघ घटक से कल्याण सिंह, केसरीनाथ त्रिपाठी और हरिश्चंद्र श्रीवास्तव आदि प्रभावशाली नेता कैबिनेट में थे। संभव है कि लोकदल के कोर वोट बैंक में मुसलमानों को भी गिना जाता था। इसलिए मुख्यमंत्री को मुसलमानों के मामले में तुष्टिकरण करना पड़ता हो।

लेकिन हिंदूवादी मंत्रियों ने जिस विचारधारा की रोटी खा रहे हैं उस नमक का हक अदा करने के लिए कुछ किया था या नही। अगर मुख्यमंत्री रामनरेश यादव उनकी चलने नही दे रहे थे तो क्या उन्होंने कोई बगावत की थी। जहां तक जानकारी है कि वे तो बहुत बाद तक रामनरेश यादव हट गये और बनारसी दास मुख्यमंत्री बन गये तब तक सत्ता सुख भोगते रहे। योगी जी ने 1978 के दंगों पर संभल की चर्चा को केंद्रित करते समय क्या यह ध्यान नही कर पाया कि यह तो बूमरेंग हो रहा है। उनके अपने लोग ही धिक्कार के पात्र बन रहे हैं।

योगी मूल रूप से भाजपाई नही हैं और न ही उनका संघ से कोई संबंध रहा है। बहिरागत होने से बहुत स्वाभाविक है कि उनको भाजपा और संघ के प्रति मूल नेताओं जैसा लगाव न हो। इसके अलावा भी और बात है। वे राजनीतिक सफलता के लिए मोदी के उदाहरण को अपने सामने रखते हैं। हालांकि मोदी हमेशा से भाजपाई रहे हैं। उनकी तो शुरूआत ही संघ के प्रचारक के रूप में हुई। लेकिन गुजरात में जब वे मुख्यमंत्री बने और उस दौरान जबर्दस्त दंगे हुए तब भाजपा का चेहरा थे अटल बिहारी वाजपेयी। तथ्य यह है कि अटल बिहारी वाजपेयी यानी भाजपा से उन्हें समर्थन की ताकत मिलना तो दूर अटल जी राजधर्म का विषय छेड़कर उनकी बलि लेने को तत्पर थे।

ऐसा नही हुआ तो इसलिए कि देश भर के उग्र हिंदू कार्यकर्ताओं ने गुजरात दंगों के कारण अपने दिलों में मोदी को पार्टी से ऊपर स्थापित कर लिया था। मोदी ने बहुत ही चतुराई से लोगों के दिमाग में यह बात घुसा दी थी कि भाजपा और संघ के कर्ता-धर्ता कमजोर हैं। निर्णायक बिंदु पर इनका रुख समझौतावादी हो जाता है और कटटरता की झेंप मिटाने के लिए ऐसे मौकों पर उदार छवि में जाकर दुबक जाना इनकी नियति है। इसलिए गुजरात में अगर हिंदुओं के बल का परचम लहराया है तो यह उनका व्यक्तिगत काम है न कि भाजपा और संघ की देन। आज जब वे प्रधानमंत्री की कुर्सी पर हैं तो अपनी इसी सोच के कारण पार्टी और संघ को बौनेपन का एहसास कराते हुए काम कर रहे हैं। यह सिर्फ मेरा नही हरेक निष्पक्ष विश्लेषक का आंकलन है।

योगी भी इस मामले में मोदी के कायल हैं। उत्तर प्रदेश में भी लोग मानने लगे हैं कि राज्य में हिंदुओं को जो दबदबा हुआ है, किसी की उनके प्रति बुरी निगाह डालने की हिम्मत नही रही है, कोई गलती से गुस्ताखी कर भी बैठा है तो उसे ऐसा सबक सिखाया गया है कि सात पुश्तों तक हिंदुओं से भिड़ना भूल जाये उसका श्रेय भाजपा और संघ को नही हैं। यह योगी के व्यक्तिगत प्रताप का नतीजा है। संभल में 1978 के दंगों की चर्चा पर इसीलिए फोकस किया जा रहा है कि अभी तक जो भाजपा सूरमा रहे हैं जैसे कल्याण सिंह सरीखे आयरन मैन उनमें से कोई भी हिंदू विरोधियों की ऐसी बुरी हालत नही कर पाया जो इस समय है।

मोदी पार्टी से ऊपर अपने कद को स्थापित करने के दांव से ही मुख्यमंत्री से सीधे प्रधानमंत्री के सिंहासन तक का सफर तय कर पाये। कल्याण सिंह ने भी यह रास्ता अख्तियार किया था लेकिन वे कामयाब नही हो पाये। उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़कर केंद्रीय गृहमंत्री के रूप में दिल्ली आने का ऑफर पार्टी ने दिया था। उन्होंने नहीं माना और पार्टी छोड़ दी जिसमें वे गच्चा खा गये। शायद मोदी के लिए भी ऐसा ऑफर देने की तैयारी रही हो पर इसकी नौबत आती इसके पहले ही उन्होंने मंजिल हथिया ली।

योगी भी अपने बारे में मान चुके हैं कि अतिवादी हिंदू मानस के लिए वे लाइफ दैन लार्जर बन चुके हैं। इसलिए हेकड़ी जताने में वे मोदी से पीछे नही दिखते। संभल के घटना चक्र को लेकर जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने उनको लक्ष्य करके यह नसीहत देनी चाही कि हर मस्जिद के नीचे मंदिर खोजने का अभियान चलाकर कोई हिंदुओं का नेता नही बन जायेगा। तो इसी तरह सकुचाने की बजाय योगी ने संभल का दौरा किया और अपनी धार्मिक निशानियों को कब्जे में लेने के मिशन में लगे हिंदू कार्यकर्ताओं में नया जोश भर डाला। स्पष्ट हो चुका है कि सन्यासी मुख्यमंत्री महत्वाकांक्षाओं में खांटी नेताओं से बिल्कुल भी कमतर नही है।

उनके भी इरादे स्पष्ट हैं कि मुख्यमंत्री के बाद उनकी निगाह सीधे प्रधानमंत्री पद पर है। उनको कोई गफलत गच्चे में नही डाल सकती। बड़ी जिम्मेदारी लेकर दिल्ली आ जाने के प्रलोभन पर वे पार्टी के जिम्मेदारों को स्पष्ट कर चुके हैं कि लखनऊ के बाद उनकी तमन्ना उत्तर प्रदेश की सेवा करते-करते गोरखपुर चले जाने की है। उनकी निस्पृहता में कितनी ठंडी आग छुपी है भाजपा हाईकमान इससे अच्छी तरह विदित है। इसलिए उसे सरेंडर की मुद्रा अपनानी पड़ी। योगी केंद्र के साथ जो चेयर रेस खेल रहे हैं उसका अंत कहां जाकर होेगा अभी यह भविष्य के गर्भ में है।