केपी सिंह-
जगदीप धनखड़ को खुशकिस्मत कहें या बदकिस्मत लेकिन वे जितने पदों पर रहे उनकी कार्यप्रणाली पर मीडिया की सुर्खियां बनती रहीं। धनखड़ साहब जब राज्यपाल थे तभी से उनके साथ यह संयोग शुरू हो गया था। संविधान की आदर्श परिकल्पना में राज्यपाल की भूमिका राज्य सरकार के साथ सामंजस्य बनाकर विधि-विधान के मुताबिक सरकार का संचालन सुनिश्चित करना होता है लेकिन भाजपा के अन्य राज्यपालों की तरह ही उन्होंने अपने पद को चुनी हुई सरकार की प्रतिद्वंदी संस्था के रूप में स्थापित किया। एक समय उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की सरकार को नियंत्रित करने के लिए सोनिया गांधी ने आईबी के रिटायर्ड अधिकारी को राज्यपाल बनवाकर लखनऊ भेज दिया। उन्हें कांग्रेस के नेता ज्ञापन देने आते थे और वे उस पर सरकार से पत्र भेजकर जबाव-तलब कर लिया करते थे। लेकिन उनको अपनी हद पता थी।
चंबल के डकैत सरगनाओं को सरकार के प्रोत्साहन पर आधारित आरोप पत्र किस्म का ज्ञापन कांग्रेसियों ने दिया तो पेशबंदी, केस तैयार करने आदि पुलिसिया फन के माहिर पूर्व आईबी राज्यपाल ने मुलायम सरकार के अधिकारियों को बहुत चाकचौबंद पत्र तो भेज दिया जिससे मुलायम सिंह को सांसत महसूस करनी पड़ी। लेकिन यह नही हुआ कि वे राजभवन से निकल पड़ते और खुद डकैत पीड़ित जिलों को जायजा लेने लगते। जगदीप धनखड़ को राज्यपाल पद पर रहते हुए ऐसा कोई लिहाज नही हुआ। पश्चिम बंगाल में कई बार सनसनीखेज वारदात की सूचना पर उन्हें मौके पर जाकर खड़ा होते और राज्य सरकार के खिलाफ बयानबाजी करते देखा गया। इसके कारण तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की गालियां भी उन्होंने खूब सुनी।
ऐसा नही है कि जगदीप धनखड़ अल्पज्ञानी हों। वे सुप्रीम कोर्ट के वकील रहे हैं और उन्हें संविधान, कानून और परंपराओं का बहुत अच्छा ज्ञान है। कई बार ज्ञानी ऐसा काम कर जाते हैं जिससे लोगों को कहना पड़ता है कि दुष्टता से भरे ज्ञानी की बजाय अल्पज्ञानी ज्यादा अच्छा है। विद्वानों के कारण ही हमारे देश में कई सैकड़ा वर्षों तक भयानक सामाजिक व्यवस्था को थोपे रहना संभव हुआ। ऐसी सामाजिक व्यवस्था का गठन भी अपने आप में कम चमत्कार नही था। अगर दुष्ट विद्वता न होती तो ऐसी सामाजिक व्यवस्था को आबादी के बहुतायत से स्वीकृत कराना संभव हो ही नही सकता था जबकि बहुतायत के लिए वह व्यवस्था बहुत दारुण दुखदायी थी। जगदीप धनखड़ राज्यपाल पद की गरिमा से भलीभांति विज्ञ थे लेकिन विद्वता के कारण वाचालपन में उनका जोड़ नही था। मर्यादा अतिलंघन के हर मामले का औचित्य सिद्ध करने की कला उनके पास थी।
उनकी इस प्रतिभा के मददेनजर ही उनको देश के 14वे उपराष्ट्रपति के रूप में पदासीन कराया गया था। यहां भी उन्होंने अपनी डयूटी बदस्तूर निभाई। संविधान बदलने की सरकार की इच्छा के लिए माहौल बनाने की शुरूआत उन्होंने यह कह कर की कि सुप्रीम कोर्ट ने कोई भी सीमा तय की हो लेकिन संविधान में संसद सब कुछ बदल सकती है। सब कुछ बदले जाने का अर्थ यही तो है कि संसद चाहे तो वर्तमान संविधान को रदद करके नया संविधान मंजूर करा ले। एक भी बार धनखड़ के इस प्रतिपादन का प्रतिवाद न करने वाली मोदी सरकार यह कह रही है कि विपक्ष ने संविधान के मामले में भ्रम फैलाया वरना बाबा साहब के रचे गये संविधान को बचाये रखने में हम तो अपनी जान भी कुर्बान करने में पीछे न हटने वालों में हैं। संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत प्राप्त शक्तियों का उपयोग करते हुए उच्चतम न्यायालय ने राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए विधायी संस्था द्वारा पारित विधेयकों पर फैसले के संबंध में समय सीमा तय कर दी थी। इस पर जगदीप धनखड़ इस कदर फट पड़ थे कि सारी सीमाएं पार हो गई थीं। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लोकतंत्र पर मिसाइल दागना तक कह दिया था। लेकिन धनखड़ साहब सगे किसी के नही थे। सरकार के लिए भी अपने अंतःपुर में वे षणयंत्र रच रहे थे। उन्हें यह ख्याल नही रहा कि प्रधानमंत्री मोदी का खुफिया तंत्र कितना मजबूत है। उन्हें भनक तक नही लग पाई कि वे रडार पर है। उन्होंने कार्यकाल पूरा करने के बाद ही पद छोड़ने का एलान दो दिन पहले किया था। यहां तक कि वे उस दिन भी इस बात से बेखबर थे कि उनको बेआबरू कर निकाले जाने का फैसला हो गया है। अपने कक्ष में जब उन्होंने सत्तापक्ष और विपक्ष को आमंत्रित किया तो जेपी नडडा और किरन रिजजू सत्तापक्ष के दोनों प्रतिनिधि उनकी बैठक में नही पहुंचे। तब भी वे स्थिति को नही भांप पाये। उन्होंने इसे मान दिखाने का साधारण उपक्रम समझा और अगले दिन की सुबह फिर से बैठक तय कर दी। पर उसी दिन उनको सख्त संदेश मिला और दौड़े-दौड़े इस्तीफा लेकर उन्हें राष्ट्रपति भवन पहुंचना पड़ा।
इस दौरान उनकी घिघ्घी बंध गई। एक-दो दिन के लिए नहीं गत 21 जुलाई को उन्होंने इस्तीफा सौंपा था और इसके बाद आज तक उनका बोल बंद है। वे अब दृश्य में आये हैं तो इसलिए कि उन्हें पूर्व विधायक की अपनी बंद पेंशन वापस चाहिए। धनखड़ 1993 से 1998 तक राजस्थान के अजमेर जिले के किशनगढ़ क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर विधायक रहे थे। इसकी पेंशन उन्हें मिलती थी जो राज्यपाल बनने के बाद बंद हो गयी थी। अब वे इस पेंशन के हकदार बन गये हैं। वे सांसद भी रह चुके हैं। उन्हें पूर्व सांसद की पेंशन भी अनुमन्य है। पूर्व उपराष्ट्रपति के तौर पर भी उनके लिए 2 लाख रुपये महीने पेंशन की व्यवस्था है। अभी उन्होंने सेंट्रल विस्टा में बना उपराष्ट्रपति आवास नही छोड़ा है। लेकिन इस बंगले से निकलने के बाद भी वे आवासहीन नही होगें। लुटियंस जोन में उनको ए-टाइप बंगला मिलेगा जिसके बिजली पानी का बिल सरकार देगी। बंगला सरकारी खर्च पर ही फर्नीचर आदि से सुसज्जित होगा। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट की प्रेक्टिस से भी उन्होंने काफी कमाया होगा जिसकी अच्छी-खासी सेविंग उनके पास होनी चाहिए। जिम्मेदारी के नाम पर उनकी पत्नी के अलावा एक बेटी है जिसका विवाह हो चुका है। फिर भी धनखड़ साहब भूखों मरे जा रहे हैं। उन्हें पूर्व विधायकी की 42-45 हजार की पेंशन और चाहिए तब उनकी पूर्ति होगी।
जगदीप धनखड़ ने संस्कार बोध होता तो उप राष्ट्रपति पद से हटाये जाने में उन्हें जिस तरह की जलालत महसूस करायी गई उसकी भरपाई के लिए विधानसभा की पेंशन मांगकर क्षुद्रपन का परिचय न देते। यह कानूनी रूप से भले ही गलत न हो लेकिन नैतिक रूप से ऐसा आचरण शर्मनाक है। यह अकेले धनखड़ की बात नही है। अमर सिंह, अंबानी, जयप्रदा आदि कितने ही ऐसे लोग संसद में पहुंचे जिनके पास दौलत और आमदनी का पारावार नही था। पर उन्होंने भी सरकारी बंगले का मोह नही त्यागा। अमर सिंह और जयप्रदा ने तो अपने स्तर का बंगला रिनोवेट कराने के लिए केंद्रीय लोक निर्माण विभाग से जबर्दस्ती कर डाली थी। चूंकि उस समय मनमोहन सिंह की कमजोर सरकार थी इसलिए हर किसी से ब्लैकमेल होने के लिए तत्पर रहती थी। यह हमारे चरित्र के घटियापन का नमूना है जो कितने भी सुखी समृद्ध होकर हम मुफ्तखोरी नही छोड़ना चाहते। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुरूआत में एक अच्छी पहल की थी। लोगों से इस बात की अपील करने की कि जो सक्षम हैं वे गैस सिलेण्डर की सब्सिडी खुद से छोड़ दें। उच्च पदों पर बैठे लोग अगर अपील करें तो उसका असर होता है। मोदी की अपील का असर हुआ था क्योंकि उस समय लोगों के मन में था कि वे त्यागी, देश और समाज के लिए समर्पित नेता हैं। लेकिन आज मोदी उन लोगों से जिनके पास सारी सुख-सुविधाएं हैं साथ ही गरीबी वाला राशनकार्ड भी है क्यों यह अपील नही कर पा रहे कि आप अपना राशनकार्ड जमा करके मुफ्त राशन लेना बंद करें। सुरुचि एक अलग चीज है और विलासिता अलग। सुरुचि बोध होना चाहिए और उसकी छाप आप सादगी में भी छोड़ सकते हो। पर मोदी जी के चश्में, घड़ी, पहनावा आदि को लेकर जो चर्चाएं आज व्याप्त हैं उसके चलते उनके जीवन विलास की ऐसी धारणाएं निर्मित हो गई हैं जिनके रहते त्याग की प्रतिमूर्ति की उनकी छवि बुरी तरह दरकी है। शायद इसका अपराधबोध स्वयं हमारे प्रधानमंत्री को खुद भी है। इसलिए अब वे कोई ऐसी अपील करने का नैतिक साहस नही कर पा रहे हैं जिससे लोगों को चारित्रिक उत्थान की प्रेरणा मिल सके।
बहरहाल जगदीप धनखड़ की पेंशन याचना से जनमानस को बहुत वितृष्णा हुई है। जरूरत इस बात की है कि ऐसे प्रसंगों के बरक्स लोगों द्वारा महानुभावों की फजीहत में कोई कसर नही रखी जानी चाहिए तांकि उनका जमीर जगाया जा सके। महाजन जिस पंथ पर चलते हैं लोग उसी रास्ते का अनुसरण करते हैं। इसलिए ऐसी प्रतिक्रिया सवर्था अपेक्षित हैं।

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