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28.7.22

सहारा इंडिया की नेटफ्लिक्स गाथा

 प्रवीण झा-

सहारा इंडिया की नेटफ्लिक्स गाथा में एक बहुत ही स्पष्ट बात जो कही है, वो यह कि सुब्रत रॉय लोगों के दिल से जुड़ गए थे। वह गरीबों के विवाह में मदद कराते थे, सभी इम्प्लॉई का खयाल रखते थे, दानवीर थे आदि। यह बात ग़लत भी नहीं है। सहारा का नाम अमीर भले न लें, गरीब जरूर लेंगे। एक पीढ़ी को पढ़ाने-लिखाने से नौकरी तक पहुँचवाने में सहारा का सहारा मिला है। यह बात वे नहीं जानते, जिनके पास कागज-पत्तर है, या निवेश के तमाम साधन हैं। सहारा पर शोध करने वाले तक ने कहा कि आज तक सहारा का एक भी चेक बाउंस नहीं किया।


लेकिन, वहीं एक बात सार बन कर निकलती है कि Altruism is a mask.

परोपकार पुण्य नहीं है, परोपकार मुखौटा है। किसी को अपने कदमों में करने की कुंजी है। लोग प्रणाम करने का ढंग भी बदल देते हैं, और सहारा प्रणाम करने लगते हैं। एक भगवान बन कर सामने खड़ा हो जाता है, जिसके पैरों में लोट जाते हैं। यही बात मैंने बेंगलुरू के एक एशिया प्रसिद्ध चिकित्सक में भी देखी थी, जिनके गरीब पैर पड़ते हैं, वह हर जगह छाए रहते हैं, बड़े-बड़े नेता उनके आगे-पीछे करते है, उनकी हर बात ब्रह्मवाक्य होती है। वह भी भगवान हैं।

हाल में एक यात्रा-संस्मरण में मैंने लिखा कि एक दिन मुझे इस भगवानपने से घुटन हुई, और मैं बेंगलुरू से भाग गया। मेरे लेखों का ‘मैं’ एक समुच्चय ही है। आदमी बस अपने काम कर उसका नियत मानदेय पाकर अपनी जिंदगी जीना चाहता है। वह न एक पैसा फोकट में देना चाहता है, न लेना। उसको इस तरह पुण्य नहीं कमाना। उसे लोग उलाहना देते हैं कि बड़ी-बड़ी बातें करता है, लेकिन मौका पड़ने पर धेला नहीं देता। न अस्मिता की रक्षा के लिए, न गरीबों के लिए, न भले कार्य के लिए, न पर्यावरण के लिए। वह नहीं देता। वह तभी देगा, जब उस दाम की एक वस्तु हाथ में दे दो।

ऐसा नहीं कि सोनू सूद या किसी भी दानवीर पर मुझे शक है, या उनकी मनसा पसंद नहीं। लोग अपने दो वक्त की रोटी के लिए बचा कर, बाकी तो दान कर ही सकते हैं। इसे गांधीजी के ट्रस्टीशिप से लेकर भूदान तक समझा जा सकता है। लेकिन, यह बात कई लोग नहीं जानते कि भूदान ने देश को बीघा के बीघा परती जमीन दे दी। सहारा में किसी के लाखों नहीं डूबे, लाखों लोगों के हज़ार-हज़ार डूबे हैं। ऐसे लोगों के, जिनके लिए हज़ार की कीमत लाख से अधिक है।

दान न दें, उचित मूल्य दें। भगवान न बनें, आदमी बनें।

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