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1.12.22

पार्टी विद ए डिफरेन्स से चुनावी उन्माद की गिरफ्त तक का भाजपा का सफर

 Krishan pal Singh-

मैनपुरी लोकसभा सीट  के उपचुनाव के लिये भाजपा ने तगडी व्यूह रचना की थी ताकि सपा की इस पुश्तैनी सीट पर अपनी जीत का परिचम लहराकर करिश्मा स्थापित किया जा सके। अगर ऐसा हो जाता तो विधानसभा के हाल में हुये आम चुनाव में सत्ता छीनने की कोशिश में विफल होने के बाबजूद सीटें बढने से सपा के हौंसले जिस तरह बुलन्द हुये थे उन पर पानी फिर जाता गो कि आजम खांन के गढ रामपुर की लोकसभा सीट न बचा पाने से उसे एक झटका तो लग ही चुका था , मैनपुरी में झटका और लग जाये तो उसकी जो फिजा बन रही थी उसका पूरी तरह सत्यानाश हो जाता ।


मुलायम के निधन के शोक की पृष्ठभूमि के बाबजूद सपा पर नहीं कोई रहम
     
मुलायम सिंह के दिवंगत होने पर भाजपा ने तीखे राजनीतिक मतभेदों के बाबजूद उनके प्रति जो श्रद्धा और सम्मान प्रदर्शित किया था उसके मददेनजर पहले यह भी अन्दाजा लगाया गया था कि शायद उनके देहावसान का शोक अभी ताजा होने से भाजपा उनके लिये अपनी सदभावना को जारी रखते हुये इस सीट पर चुनाव लडने का जोश दिखाने की बजाय औपचारिकता मात्र करते हुये सपा को वाक ओवर दे दे। मैनपुरी में सबसे ज्यादा मतदाता यादव बिरादरी के हैं, इसके बाद शाक्य बिरादरी है। जब भाजपा ने मुलायम सिंह के शिष्य पूर्व सांसद रघुराज सिंह शाक्य को यहां उम्मीदवारी के लिये उतारने की घोषणा कर दी तो इस तरह की अटकले खारिज हो गयी और सपा को भी एहसास हो गया कि भाजपा उसे बख्शने की बजाय उसको पूरी गम्भीरता से चुनौती देने के मूड में हैं। रघुराज सिंह शाक्य की उम्मीदवारी के सम्बन्ध में यह तथ्य भी जुडा था कि वे अखिलेश के चाचा शिवपाल के नजदीकी हैं जो अपने भतीजे से रूठे हुये है इसलिये वे शाक्य को प्रकारान्तर से सहयोग करेगे। यह बात सपा नेतृत्व को इस कारण बहुत विचलित करने वाली थी कि मैनपुरी संसदीय सीट के करहल विधानसभा क्षेत्र में शिवपाल यादव एकछत्र नेता हैं । पहले के यहां के चुनावों में उनके कारण सपा को करहल में बडे अन्तर से बढत मिलती रही है। जबकि भोगांव और मैनपुरी विधानसभा क्षेत्रों  में तो सपा का जलबा हमेंशा कमजोर दिखता ही रहा है इसलिये करहल में ऊंच नींच होना सपा को बहुत भारी पड सकता था ।
चाचा के आगे अखिलेश के नतमस्तक होने से पलटी बाजी  
     
तब डिम्पल के नामांकन के समय चाचा को भाव न देने वाले अखिलेश घबराहट में डिम्पल को लेकर शिवपाल के घर नतमस्तक होने पहुंच गये। शिवपाल को तो इसका इन्तजार ही था इसलिये वे फिर परिवार के लिये भावुक हो उठे । उन्होने अपनी बहू यानि डिम्पल को बडे अन्तर से जिताने का दम भर डाला । फिर भी भाजपा गफलत में रही । उसे लगा कि शिवपाल अखिलेश द्वारा लगातार अपमानित किये जाते रहे है जिससे अखिलेश को लेकर उनके मन में घहरी कसक है जिसका अन्त होना अखिलेश के कितने भी मनुहार करने के बाबजूद सम्भव नहीं है और उनके द्वारा भितरघात किया जाना तय है।
       
किन्तु डिम्पल के लिये सभाओं में जब शिवपाल ने गम्भीरता से व्यक्तिगत तौर पर रघुराज के लिये भी और भाजपा के लिये भी असरकारक ढंग से आग उगलनी शुरू कर दी तो भाजपा बौखला सी गयी। इसकी प्रतिक्रिया में आनन-फानन शिवपाल की सुरक्षा घटाने और सीबीआई द्वारा गोमती रिवर फ्रंट मामले की जांच के लिये जो ठण्डे बस्ते में डाली जा चुकी थी उनसे पूछतांछ की अनुमति मांगे जाने के कदम सामने आ गये ।
शिवपाल के खिलाफ एकदम बडी कार्यवाहियों से झलका सत्ता का ओछापन
     
जनमानस में इन कार्यवाहियों को भाजपा के हद दर्जे के ओछेपन के रूप देखा जा रहा है। सवाल यह नहीं है कि शिवपाल की जेड श्रेणी की सुरक्षा देने लायक खतरा है या नहीं । शिवपाल को उस समय भी इतना खतरा नहीं था कि उन्हें जेड श्रेणी की सुरक्षा मुहैया कराने की घोषणा की जाती । लेकिन उनके महिमा मण्डन के लिये ऐसा किया गया था क्योंकि अखिलेश के साथ उनकी जबरदस्त ठनी हुयी थी और भाजपा चाहती थी कि चाचा और भतीजे के बीच जो खाई तैयार हुयी है उसे इतना गहरा किया जा सके कि फिर कभी वह पट न पाये।
     
इसी तरह यह भी सवाल नहीं है कि अखिलेश के कार्यकाल में गोमती रिवर फ्रंट परियोजना में क्या सचमुच भ्रष्टाचार हुआ था या नहीं । यह तो सर्व विदित है कि उक्त सरकार ने विभिन्न परियोजनाओं में सरकारी धन की लूट मची रही थी और गोमती रिवर फ्रंट परियोजना में भी सरसरी तौर पर ऐसी ही लूट होेने का अन्दाजा लगता है लेकिन तब अखिलेश के खिलाफ इस्तेमाल के लिये भाजपा को एक अच्छे टूल के रूप में शिवपाल हाथ लगे हुये थे जिससे शिवपाल के प्रति उसका साफ्ट कार्नर हो गया था और इसलिये गोमती रिवर फ्रंट की जांच में ढील ला दी गयी थी । सुप्रीम कोर्ट में मुलायम सिंह और उनके परिवार के खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति की जांच और कार्यवाही के लिये याचिका दायर करने वाले विश्वनाथ चतुर्वेदी का आरोप है कि मुलायम सिंह की सम्पत्तियों का मूल्यांकन में  भाजपा के दबाव में सीबीआई ने  बेईमानी की जिससे उन्हें सुप्रीम कोर्ट से क्लीनचिट मिल गयी । यह भी आरोप कमोबेश सही ही हैं और इन दृष्टांतो से जाहिर होता है कि भाजपा के कार्यकाल में शासन निरपेक्ष होकर काम करने की बजाय उसकी राजनीतिक सुविधा के हिसाब से बेहया होकर स्याह को सफेद और सफेद को स्याह करने की कारस्तानी दिखाकर अपनी विश्वसनीयता का दिवाला निकालता जा रहा है ।
लोक लाज से बचते हुये कुटिलतायंे होती थी कांग्रेस में
       
ऐसा नहीं है कि उसके पहले की कांग्रेस या अन्य पार्टियों की सरकारें इस मामले में पूरी तरह दूध की धुली रही हों लेकिन क्रांग्रेस की सरकारें काफी हद तक लोक लाज की परवाह करती रही थी इसलिये वे कोई भी बदमाशी संभल संभल ही कर पाती थी आज की तरह नहीं कि उधर मैनपुरी में शिवपाल ने परिवार के खिलाफ  भाजपा का मोहरा बने रहना गवारा नहीं किया और उधर उन पर गाज गिरायी जाने लगी। मोदी योगी युग की भाजपा के पूर्वज नेताओं ने राजनीति में कुटिलता के कांग्रेस द्वारा इस्तेमाल को लेकर लोगो में उसके प्रति उपजी वितृष्णा को परखकर पार्टी विद ए डिफरेंस का नारा अपने लिये लगाया था जिससे उसकी गरिमा में निखार आया था लेकिन अब जबकि भाजपा विपक्षियों से बहुत आगे है उसके लिये गरिमा और बडप्पन का लगता है कि कोई मूल्य ही नहीं रह गया है।
     
योगी सरकार चाहती तो शिवपाल की सुरक्षा बीच चुनाव में घटाने का उतावलापन दिखाने की बजाय कुछ महीने इन्तजार कर सकती थी और इसके बाद पूरी तसल्ली से पुर्नमूल्यांकन का अभिनय कर सुरक्षा घटाने के फैसले पर पहुंचती तो उस पर आक्षेप बेमानी हो जाता । मैनपुरी सीट पर जीतने के लिये भाजपा को हर मर्यादा ताक पर रखने की कोई जरूरत है भी नहीं क्योंकि सभी जानते हैं कि यह सीट मुलायम सिंह की यादों से जुडी होने के कारण सपा के मजबूत किले की तरह है। इसके अलावा उसका लोक सभा में पर्यात बहुमत है इस कारण विपक्ष की इक्का दुक्का सीटों को भी न बचने देने के लिये अपनी पूरी जान लगा देने की कोई तुक भी उसके लिये नहीं है। पर भाजपा खास तौर से हरेक चुनाव जीतने पर आमादा दिखाई देने लगी है ताकि  विपक्ष को शून्य किया जा सके इसके लिये उसे कोई भी हथकण्डा अपनाना अनुचित नहीं लगता ।

सर्वसत्तावादी मानसिकता से लोकतंत्र के लिये खतरे की आहट
     
खुद गडकरी जैसे आज भी मौजूद भाजपा नेता ऐसे है जो स्वस्थ लोकतंत्र के लिये विपक्ष के मजबूत वजूद की पैरवी करते है। पूर्ण बहुमत वाली सरकार उप चुनाव को सहज तरीके से फेस करती है न कि आम चुनाव की तरह उन्मत्त होेकर । यह सर्व सत्तावादी मानसिकता की झलक देने वाला है जिसमें लोकतंत्र के लिये खतरे की आहट सुनाई देने लगती है। वैसे मतदाताओें को भी इसके अनुकूल मानसिकता में ढाल लिया लगता है। लोग यह मानने लगे है कि  वर्तमान संविधान और लोकतंत्र धर्म विशेष का देश भारत को बनाने में बाधक है और इस मन्सूबे की पूर्ति भाजपा के सरकार में रहते हुये सम्भव है। इस कारण चुनाव का केवल नाटक होना चाहिये और भाजपा को जायज नाजायज हर तरीके से सत्ता पर अपना कब्जा बनाये रखने के लिये तत्पर रहना चाहिये। अपने पीछे इस तरह के जनमत के समर्थन के एहसास से ही भाजपा नेतृत्व की सोच  शायद बेपटरी हुयी है।
मतदाता भी लोकतांत्रिक एजेन्डे से जा चुके हैं दूर
         
लेागों के इस तरह विचार बन जाने के पीछे परिस्थितियों की पृष्ठभूमि है। एक धर्म विशेष के लोग जो देश में बहुसंख्यक है उन्होंने सदियों तक आक्रमणों और दमन को झेला है, उनके स्वाभिमान को बहुत ज्यादा कुचला गया है। इस कारण इतिहास के प्रतिशोध का पे्रत उन पर हावी होना स्वाभाविक ही है। इसके अलावा बटवारे की पृष्ठभूमि में जो आजादी मिली उसके बाद उसके द्वारा यह सोचा जाना अन्यथा नहीं था कि अब देश में उसकी मर्जी ऊपर रहेगी पर जब तत्कालीन सत्ताधीश देश के संसाधनों पर अमुक कौम के अधिकार की बात कहने लगे तो वह बिफर गया। एकतरफा राजनीति जिसे भाजपा तुष्टिकरण की राजनीति कहती है उसके कारण भी वह लगातार आहत होता रहा । इस बीच अमेरिका की साजिश से जिहाद और इस्लाम की अवधारणाओं की गलत व्याख्या का प्रचार होने के बाद एक वर्ग विशेष में हठधर्मिता और अलगाव की जो लहर चली उससे देश भी अछूता नहीं रहा। क्रिकेट में शत्रु देश की टीम के जीतने पर आतिशबाजी दागने जैसी रवायतें , मजहब के नाम पर देश के लिये अवमाननाकारी उदगारों की श्रृंखला आदि ने बहुसंख्यक वर्ग में धैर्य का पैमाना पूरी तरह छलकाने का काम किया और आज जब उसे खुलकर अवसर मिल रहा है तो उसे सिद्धान्तों के नाम पर कोई रियायत मंजूर नहीं है। राजनीति में मूल्यों और नैतिकता की स्थापना की ललक लोग कबकी भूल चुके हैं और अब उनके जेहन में एक ही बात है अपनी मनमानी का अधिकार व बदला ।
धार्मिक भावनायें मजबूत करने के प्रयासों से क्यों फलीभूत नहीं हो रही सात्विकता
     
योगी की सरकार इन जनभावनाओं की दिशा में मोदी की केन्द्र सरकार से भी बढ चढ कर काम कर रही है। इसके लिये उत्तर प्रदेश के बजट का सबसे बडा अनुपात धार्मिक प्रतीकों को भव्य और दिव्य बनाने पर खर्च किया जा रहा है। यह अलग बहस का विषय है कि धार्मिक भावनायें मजबूत की जाने से जिस तरह के आदर्श समाज की रचना का स्वप्न दिखाया जाता है वस्तुस्थिति उससे बिलकुल अलग है जो धन लोलुपता की पराकाष्ठा और परोपकार शून्यता में परिलक्षित होता है। सारे विश्व के धनाढ्यों में जन कल्याणकारी कार्यो के लिये भारी दान यहां तक कि अपनी सारी सम्पत्ति तक दान करने की जो प्रवृत्ति दिखाई देती है भारत के धनाढ्य उससे सर्वथा दूर हैं। यहां तक कि इस देश के उद्योगपति सीआरएस में मुनाफा खर्च करने की बाध्यता को चकमा देने में भी कसर नहीं छोडते । दुहाई अपने टैक्स के पैसे से देश चलने की देते है और इस नाम पर गरीबों को किसी भी अनुदान की व्यवस्था की जाने पर भृकुटियां तानने लगते है लेकिन सही बात यह है कि यह धनाढ्य नाम मात्र का इनकम टैक्स देकर भारी इनकम टैक्स की चोरी कागजी हेरा फेरी के जरिये करने में माहिर है। यही बात जीएसटी के बारे में है। उस पर तुर्रा यह है कि सरकार आम लोगो की डिपोजिट का पैसा इन्हें बडा बैंक लोन उपलब्ध कराकर इनके हवाले कर रही है और अपने मन्सूबे पूरे करने के लिये उन करों को बढा रही है जिनका बोझा आम लोगों को उठाना पडता है और उनके लिये इसमें चोरी करने का भी कोई रास्ता नहीं होता ।

गोरखनाथ क्यों थे आडम्बरवाद के विरोधी
     
योगी आदित्यनाथ की पीठ के प्रेरणाश्रोत गुरू गोरखनाथ ने पाण्डित्य का बहुत विरोध किया था । यह कहते हुये कि इसके जरिये आडम्बर में भटकाकर लोगों को अध्यात्म के तात्विक लक्ष्यों से भटकाया गया है। दूसरी ओर गोस्वामी तुलसीदास ने अपने समय में इन्हीं बातों के मददेनजर यह कह डाला था कि नाथेंा और सिद्धों ने धर्म के साथ अनर्थ किया है क्योंकि वे निर्गुण पद्धति के प्रचारक थे जिसमें आम आदमी रम नहीं पाया और उससे सगुण भक्तिधारा की डोर भी छूट गयी । दोनों पन्थो में विरोधाभास है लेकिन दोनो अपनी जगह सही हैं। धर्म का उददेश्य अध्यात्म के तात्विक लक्ष्यों की ओर अग्रसर होने से ही प्राप्त किया जा सकता है लेकिन पहली पायदान पर ही यह होने पर आम आदमी उचाट की ओर चला जाता है। इसलिये उसे अध्यात्म की ओर उन्मुख करने के लिये प्राथमिक चरण में  सगुण भक्तिधारा का प्रचलन उपयुक्त माना गया। इसके बाद वह उत्कर्ष की ओर जैसे जैसे बढे उसे धर्म के मर्म यानि तत्व ज्ञान के प्रति जागरूक किया जाये ताकि उसमें सदगुणों का विकास हो । क्या योगी सरकार को प्रदेश में धार्मिक राज्य बनाने की अपेक्षा की पूर्ति के लिये उत्साह दिखाते हुये अध्यात्म के इन चरणों और उसकी अन्तिम मंजिल का ख्याल है।

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