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8.10.23

उपराष्ट्रपति के साथ मुख्यमंत्री के शीतयुद्ध का पटाक्षेप

सत्य पारीक-

        2014 से पहले जब राष्ट्रपति उपराष्ट्रपति राज्यपाल का कहीं कार्यक्रम होता था तो राष्ट्रीय गरिमा से परिपूर्ण होता था । क्योंकि उस समय तक तीनों पदों वाले पद की गरिमा का विशेष ध्यान रखते थे लेकिन 2014 के बाद उक्त पदों पर जातिय आधार पर निर्वाचन होने लगा इस कारण राजनीति में रचे बसे नेताओं को ये पद मिलने लगे । नेताओं के इन पदों पर आते ही पद गरिमा तार तार होने लगी जो गिर कर यहां तक आगई कि पहले उक्त पदों वालों के कार्यक्रमों की शुरुआत व समापन राष्ट्रीय गायन से होता था वो अब राजनीतिक आलोचना से शुरू हो कर उसी पर सम्पन्न हो जाता है , शुक्र इस बात का है कि राष्ट्रपति इससे बचे हुए हैं लेकिन कब तक ! क्योंकि जातियता ने इस पद को लपेटे में ले लिया है ।

          देश के सबसे बड़े दो नम्बर के महामहिम उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ अपनी वफादारी का सबूत प्रधानमंत्री को अपने गृहराज्य राजस्थान में अघोषित रूप से भाजपा की बड़ाई करके चुका रहे हैं । लेकिन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को उनका आनाजाना राजनीति में हस्तक्षेप लगता है इसलिए उन्होंने टिप्पणी कर डाली कि उपराष्ट्रपति बार बार राजस्थान क्यों करतें हैं ? सीधा सवाल धनखड़ से था इसलिए उन्होंने जवाब भी लपेट कर दिया कि मेरे घर आने पर मुख्यमंत्री को आपत्ति क्यों , वे यहीं नहीं रुके क्योंकि हैं तो वे राजनीति से दीक्षित । आगे कहा कि पता नहीं क्यों कुछ लोगों को देश के विकास से पेट मे दर्द क्यों होता है जो सीधे सीधे मोदी सरकार की तारीफ करना है । इस पर न नासमझों ने ताली बजा दी जबकि बुद्धिजीवी समझ गये कि महामहिम का निशाना कहां हैं । वैसे धनखड़ पर एक टिप्पणी जब वे कांग्रेस के विधायक थे तब उस समय के मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत ने करते हुए कहा था जो रिकॉर्ड में दर्ज हैं " मैंने देखा कि माननीय धनखड़ केन्द्र में मंत्री रहें हैं इसलिए इन्हें संसदीय परम्पराओं को ज्ञान होगा , लेकिन ये तो कोरे ही है "

          उपराष्ट्रपति व मुख्यमंत्री दोनों की इस राजनीतिक शीतयुद्ध ने सीधा सा आमंत्रण मीडिया ( गोदी ) को छोड़कर दे दिया है कि उपराष्ट्रपति का राजनीतिक जीवन भी खंगाला जाए । इसी आमंत्रण को स्वीकार करते हुए मैं लिख रहा हूं कि वे सफल वकील रहें हैं लेकिन राजनीति में असफल रहे हैं उनका राजनीतिक जीवन जनता दल से शुरू हुआ चौधरी देवीलाल के आशीर्वाद से । पहली बार झुंझुनूं से लोकसभा सदस्य बने थे , लेकिन जोड़तोड़ की उस समय जनता दल की सरकार में चल रही थी । धनखड़ थे देवी लाल के खेमे में इसलिए जब चो. के आशीर्वाद से चन्द्रशेखर की सरकार बनी तो ये उपमंत्री बन गए । वो सरकार गिरी तो धनखड़ आ गिरे कांग्रेस की गोदी में और किसनगढ़ से विधायक बन गए लेकिन अगले लोकसभा चुनाव में झुंझुनूं से सांसद का चुनाव लड़ा तो इनके कथनानुसार ओलों की मार पड़ गई यानी तिवारी कांग्रेस के शीशराम ओला से मात खा गये , फिर विधानसभा का चुनाव भी हार गए तो सक्रिय राजनीति से सन्यास लेकर वकालत करने लगे और अवसर देख भाजपा के हो गये राज्यसभा में जाने के लिए लेकिन बाजी मार गये पूर्व डीजीपी ज्ञान प्रकाश पिलानियां । उन दिनों राजस्थान में जाट आरक्षण की आंधी चल रही थी जिसमें धनखड़ की जातिय राजनीति नहीं चली ।
 
          समय के साथ राजनीतिक हवा भी बदली जिसमें बंगाल के विधानसभा चुनाव आने वाले थे तब मोदी भरपूर कोशिश में थे कि वहां भाजपा की सरकार बने इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय में वकालत करने वाले धनखड़ को मिशन देकर वहां का राज्यपाल बनाया । लेकिन धनखड़ तृणमूल कांग्रेस की आंधी के चलते मिशन में असफल रहे । उन्हीं दिनों मोदी के बनाये काले कानूनों के विरुद्ध देश भर में किसान आंदोलन शुरू हो गया , जिसमें मोदी की पराजय हुई व काले कानून वापिस लेने पड़े । उसी दौरान किसान नेता व राज्यपाल सतपाल मलिक ने किसानों का पक्ष लेकर मोदी की बगावत कर दी । इसीलिए किसानों को राजनीतिक रूप से खुश करने के लिए धनखड़ को राज्यपाल के पद से पदोन्नत कर उपराष्ट्रपति बनवाया जिन्हें मिशन दिया गया नाराज किसानों को भाजपा के पक्ष में करने का । इसी उद्देश्य से उपराष्ट्रपति बार बार अपने गृह राज्य के किसान बाहुल्य क्षेत्रों के दौरे करतें हैं व घुमा फिराकर मोदी के विकास की बातें करते हैं । जबकि राज्य के किसानों ने लोकसभा व विधानसभा चुनाव में धनखड़ को आईना दिखा रखा है लेकिन नेता का स्वभाव में है कि वोटर उसे कितनी ही दफा ठुकराये लेकिन वो बार बार उनके सामने आता रहता है वही उपराष्ट्रपति कर रहें हैं जो किसान बाहुल्य क्षेत्रों में जातें हैं लेकिन बुद्दिजीवी बुलाये तो आमंत्रण का जवाब भी नहीं देते ।

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