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4.4.24

संपत्ति की जंग!

अश्विनी-

संपत्ति की जंग कितनी ख़तरनाक होती है जानने के लिए किसी ज़िला अदालत में पहुंच जाइए। केस लड़ रहे अधिकतर लोग ऐसी उम्र के मिलेंगे जिनका एक पैर कब्र तो दूसरा पैर कोर्ट परिसर में होता है। ये वो लोग होते हैं जिन्हें हालात अदालत का नियमित आगंतुक बना चुका होता है। महीने दो महीने में पड़ने वाली अनगिनत तारीख़ों का गवाह बनकर ये लोग मान चुके होते हैं कि अब उनके मरने के बाद ही कोई फ़ैसला आएगा। मैं जब भी ऐसे बुज़ुर्गों से मिलता हूं तो सहानुभूति से भर जाता हूं। सोचता हूं बाबा ने ऐसा कौन सा पाप किया होगा कि जवानी के बाद बुढ़ापा भी कोर्ट के चौखट पर काटने को मजबूर हैं। 

ज़िला अदालतों में आने जाने के दौरान मैंने उत्सुकतावश दो चार बुज़ुर्गों से सवाल भी किया तो उनका जवाब चौंकाने वाला ही मिला। पहले बुज़ुर्ग ने बताया कि वो भरोसा करने की सज़ा भुगत रहे हैं। जिस भाई पर भरोसा किया उसी ने भरोसे का खून कर दिया। बुज़ुर्ग ने बताया पहले छोटे भाई ने मान मनौव्वल कर उनकी ज़मीन का टुकड़ा खेती करने के नाम पर लिया लेकिन सालों बाद उसने खेत ही छोड़ने से ही मना कर दिया। यही नहीं ज़मीन वापस मांगने पर वो पत्नी, बच्चों संग मारपीट पर उतारू हो जाता। खसरा खतौनी में नाम होने के बाद भी हारकर कोर्ट का सहारा लिया लेकिन पंद्रह साल बाद भी फ़ैसला नहीं मिल सका है। ये सब सुनकर मुझे बड़ा अजीब लगा सोचने लगा भला ऐसा भी होता है। 

ज़मीन के मालिक को अपनी ही ज़मीन वापस लेने के लिए इतनी जद्दोजहद करनी पड़ती है। बुज़ुर्ग बोले दीवानी का मुकदमा है जाने कितनी तारीखें गई उन्हें तो याद भी नहीं है। कई बार साहब आते नहीं हैं तो कई बार तारीख़ देकर टरका दिया जाता है तो कई बार वकीलों की हड़ताल तो कभी किसी के निधन पर अदालत नहीं लगती। बुज़ुर्ग बहुत मायूसी से बोले अब तो लगता है मेरे मरने के बाद बच्चे ही मुकदमा देखेंगे। एक अन्य बुज़ुर्ग की दास्तान भी धोखे से भरी मिली। बुज़ुर्ग बोले नौकरी के सिलसिले में आधी ज़िंदगी दूसरे शहर में रहा। तनख्वाह मिलती तो बच्चों के लालन- पालन, पढ़ाई-लिखाई पर खर्च करता। 

यही नहीं ज़रुरत पड़ने पर गांव में रह रहे माता-पिता और परिजनों की भी मदद करता रहा। सब कुछ अच्छा चल रहा था, परिवार में शादी जश्न सब मिलकर मनाते थे। खेतीबाड़ी भी ठीक ठाक थी लेकिन वक़्त के साथ बहुत कुछ बदल गया जिस भाई को लक्ष्मण मानता था उसी भाई ने माता-पिता को जाने क्या घुट्टी पिलाई कि वो उसके मोहपाश में उलझ कर संपत्ति के बड़े टुकड़े को ही उसके नाम कर दिया। बुज़ुर्ग ने आगे कहा सोचा था सब मिलकर रहेंगे लेकिन किसी एक के चाहने से थोड़े ही होता है। परिवार के मुखिया की बेरुखी की वजह से परिवार तो टूटा ही ऊपर से मुकदमा अलग हो गया। जो भाई दांत काटी रोटी का रिश्ता रखते थे, एक दूसरे के दर्द का आलिंगन करते थे, अब हालात ये हो गए कि देखकर रास्ता बदल लेते हैं। 

बुज़ुर्ग की बात सुनकर लगा कि क्या ऐसा भी होता है। माता पिता के लिए तो सभी बच्चे बराबर होते हैं तो चूक कहां हो जाती है कि प्रेम किसी एक ही बच्चे पर न्योछावर करने लगते हैं। सोच रहा था कि क्या चूक परदेशी बच्चे से भी हुई थी। क्या वो अपनी ज़िंदगी में इतना मशगूल था कि माता पिता से ही दूर निवास करते हुए उनके दिल से ही दूर हो गया। मेरेे मन में रिश्तों को लेकर उधेड़बीन जारी थी तभी एक ऐसे बुज़ुर्ग दंपति से मुलाकात हुई जो अपने बेटों से ही मुक़दमा लड़ रहे थे। दंपति की फरियाद थी कि वो अपने जिन बेटों को लाड़ प्यार, पालन पोषण में कोई कमी नहीं की उन्हीं बेटों ने सबसे गहरा ज़ख्म दे दिया। 

दंपति ने सोचा कि उनके पास जो भी संपत्ति है क्यों न वो बेटों के नाम कर दें। उस दौरान कुछ नजदीकी रिश्तेदारों ने समझाया भी कि अपने बुढ़ापे का ख्याल रखें अपने लिए भी कुछ रख लें लेकिन दंपति ने बेटों के प्रेमपाश में उलझकर संपत्ति को उन्हें बांट दिया। समय गुज़रा तो बेटों ने रंग दिखाते हुए माता-पिता को ही बेघर कर दिया। आज माता पिता ज़िंदगी की आखिरी मोड़ पर दाने दाने को मोहताज हैं। आप देश के किसी भी कचहरी में एक खोजो तो हज़ार ऐसे बुज़ुर्गों सरीखें किस्से मिल जाएंगे जो इंसानियत पर से भरोसा हटाते हैं। चौथे बुज़ुर्ग ने कहा कई बार कचहरी में तैनात कर्मचारी तो कई बार आपके वकील ही मुकदमा लंबा खींच देते हैं। हुआ यूं कि बुज़ुर्ग के मुकदमे का फ़ैसला बीस साल बाद आने वाला था तभी उनके वकील ने ही गच्चा दे दिया। 

मजिस्ट्रेट महोदय फ़ैसले के लिए वकील साहब से आवश्यक दस्तावेज मांग रहे थे लेकिन वकील साहब इतने धूर्त थे कि पैसों की लालच में महीनों पेपर बनाने में ही लगा दिया। बुज़ुर्ग की मुताबिक फ़ैसला अब ऐसा अटका कि लगता है उनके अंतिम संस्कार के बाद ही सलटेगा। आज रिश्तों में किस तरह खिंचाव आ रहा है उसकी तस्दीक के लिए आखिर में एक और सच्चा किस्सा बताता हूं। घटना करीब दस साल पहले बनारस शहर की है। एक व्यक्ति ने घर में ही फांसी लगाकर जान दे दी थी। वो अपनी पत्नी बच्चों के साथ किराए के घर में किसी तरह गुज़र बसर कर रहा था। 

उसकी मौत के बाद पता चला कि उसके निवास से महज़ एक किलोमीटर दूर उसके माता-पिता का आलीशान घर था। पिता का करोड़ों का कारोबार था लेकिन बाप बेटे में नहीं बनी। बेटा अपने परिवार समेत किराए के घर में रहने को मजबूर था। वो किसी तरह मेहनत मजदूरी कर पति-पत्नी बच्चों को पाल रहा था। बच्चे भी खुद्दार थे किसी तरह मांगी गई पुरानी किताबों से पढ़कर क्लास में अव्वल आते थे। दूर के रिश्तेदार भी तरस खाकर अनाज पानी का इंतजाम कर देते थे । परिवार की ज़िंदगी कट रही थी लेकिन एक दिन परिवार का मुखिया हार गया। पंखे से लटकर अपनी जान दे दी। 

सोचिए पिता के उस करोड़ों की दौलत का क्या काम जो जवान बेटे की जान तक न बचा सके। मेरा ये सब लिखने की पीछे की पीड़ा समझने की कोशिश करें। इंसान नंग धड़ंग, खाली हाथ ही जन्म लेता है और जब धरती से अपनी पारी समाप्त कर निकलता है तब भी उसके साथ कुछ नहीं जाता है। मतलब साफ़ है हर किसी को खाली हाथ ही लौट जाना है फिर ये स्वार्थ का खेल क्यों। जानते सब हैं लेकिन अफ़सोस की बात है चिंतन मनन कम ही लोग करते हैं। 

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