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10.4.24

आक्रांता मानस की चपेट, ढ़ह रहे नैतिक विवेक के कंगूरे

कृष्ण पाल सिंह- 

आक्रांता मानस में मानवीय मूल्यों और नैतिकता के लिए कोई स्थान नहीं होता। ऐसी मानसिकता बर्बरता की ओर उन्मुख करती थी। भारत तो आक्रांताओं की मानसिकता का लंबे समय तक भुक्तभोगी रहा है। लूट के लिए भी आक्रांता धर्म का नकाब ओढ़कर आते रहे जबकि बुनियादी तौर पर सभी धर्मो की मान्यतायें एक जैसी हैं जो कि लूट जैसी असभ्यता को गुनाह यानी पाप घोषित करती हैं। ऐसे तथाकथित धर्म योद्धाओं (जिहादियों) को विजित कौम की महिलाओं से बलात्कार करने में भी पुण्य नजर आया है और न जाने कितने शैतानी कर्म हैं जो इतिहास के काले दौर में बंदगी की एक अदा के बतौर नवाजे गये थे।

ऊपर लिखी पंक्तियों का उद्देश्य किसी धर्म विशेष के समूह को निंदित करना नहीं है। सच तो यह है कि आक्रांता मानस के पीछे मनोवैज्ञानिक विडंबनायें होती हैं जिसका शिकार होने पर किसी भी धर्म का व्यक्ति या समूह विकृत चित बन जाता है। क्या भारत के राजनैतिक समाज में हाल के दौर में आक्रांता मस्तिष्क का प्रत्यारोपण किया जा रहा है। यह भारत के लिए कोई पहला अनुभव नहीं है। जब बाहरी आक्रमणकारी नहीं आये थे उस समय भी अशोक महान जैसे सम्राट इस मानसिकता के वशीभूत हो गये थे। युद्धों में खून बहाने का उन्माद उनके विवेक के हरण का कारण बन गया था। कलिंग युद्ध के बाद लगे झटके से वे इस अमानवीय लोलुपता से बाहर निकले तो प्रायश्चित से भर उठे। इसके बाद उन्होंने शांति और सृजन का नया सूत्रपात किया जिसने एक महान सम्राट के रूप में इतिहास में उनको अभिषिक्त किया।

आज दुनिया अतीत के उस दौर से बहुत आगे निकल चुकी है। सभ्य शासन के सार्वभौम प्रतिमान हर देश के लिए स्थापित किये जा चुके हैं। कट्टर से कट्टर और बर्बर से बर्बर देश आज कमोवेश इन प्रतिमानों की कसौटी पर खरा साबित करने की विवशता में अपने को पा रहे हैं। शरीयत शासित देशों में भी लोकतंत्र की भले ही वह सीमित हो बयार और स्त्रियों को सार्वजनिक जीवन में अवसर देने के मामले में रूढ़ियों से उबरने की कोशिश इसकी गवाह है। भारत के नेतृत्व ने तो आजाद होते ही विश्व बिरादरी का गरिमावान सदस्य बनने के लिए सभ्यता के उन्नत प्रतिमानों में शिखर पर पहुंचने की उत्कंठा प्रदर्शित की थी। वयस्क मताधिकार पर आधारित लोकतंत्रीय शासन का वरण किया था। धर्मनिरपेक्षता के मामले में देश की चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों के बावजूद उसकी निष्ठा विश्व बिरादरी में सराही गई थी। भारतीय संवैधानिक संस्थाओं और शासन-प्रशासन प्रणाली का पेशेवर तौर पर उत्कृष्ट प्रदर्शन विश्व बिरादरी को इस देश की भूरि-भूरि सराहना के लिए प्रेरित करता था।

लेकिन हाल के वर्षों में जो उथल-पुथल शुरू हुई है वह इस श्रेय को तितर-बितर करने वाला है। इन वर्षों में भारत के दृढ़ शासन और द्रुतगामी विकास तो अत्यंत प्रशंसा योग्य है लेकिन लोकतंत्र में मनमानी और ज्यादती के जिस नये युग को देखा जा रहा है उससे अधोपतन की ऐसी तस्वीर तैयार हो रही है जो देश की अभी तक की तमाम उज्जवल उपलब्धियों को चकनाचूर कर सकती है। विपक्षी दलों को आर्थिक और वित्तीय तौर पर पंगु बनाना, चुनाव के समय दिग्गज विपक्षी नेताओं को जेल में डालने का अभियान, विमत वाले राज्यों की सरकारों को काम न करने देना, उन्हें उखाड़ फेंकने के लिए हार्स ट्रेडिंग करना, धनबल के तौर पर सत्तारूढ़ पार्टी को ड्रेगन बनाने के लिए धृष्टतापूर्वक घोटाले, चंदाखोरी और कमीशन खोरी को अंजाम देना और उनकी कोई जांच न होने देना आदि ऐसे कृत्यों का तांता लगा हुआ है जिससे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर प्रश्न चिंह लग गया है। अंतरराष्ट्रीय जगत और सोशल मीडिया पर इसके लिए हमारे नेतृत्व की आलोचना हो रही है लेकिन तानाशाहों की तरह उसे इनकी परवाह करने की कोई जरूरत महसूस नहीं हो रही।

सत्ता प्रतिष्ठान को लोकलाज से विचलित होने की जरूरत तब होती है जब इसके कारण जनमत विरोधी दिशा में मुड़ता दिखायी दे। लेकिन इतिहास के प्रेत और बदले की भावना ने आक्रांताओं की तरह देश के जनमत का नैतिक विवेक समाप्त कर दिया है। सत्तारूढ़ पार्टी तक के कार्यकर्ताओं को अब इस मामले में हो रही आलोचनाओं के जबाव नहीं सूझ रहे। इन पंक्तियों के लेखक की सत्तारूढ़ पार्टी के लोगों से रोज बात होती है जिसमें वे यह मानने में गुरेज नहीं करते कि उनकी पार्टी तो वाशिंग मशीन में तब्दील हो चुकी है जिसमें आकर हर बदनाम नेता के भ्रष्टाचार के दाग आसानी से धुल जाते हैं। लेकिन इस पर लोगों को आपत्ति नहीं है तो चंद लोगों की आलोचना से क्या होता है। सत्तारूढ़ पार्टी समर्थक कुछ लोग जिनके जमीर जिंदा हैं वे कहने लगे हैं कि इतनी ज्यादती ठीक नहीं है लेकिन इसके कारण वे पार्टी के प्रति अपना समर्थन खत्म करने की सोचने को तैयार नहीं हैं।

लोगों के सरोकार उनके पूर्वजों पर इस्लामिक बादशाहों के शासन काल में हुए अत्याचारों का बदला लेने तक सिमट कर रह गये हैं। लेकिन आक्रांता मानस का विस्तार केवल यहां तक सिमटा नहीं है। उन्हें आजादी के बाद के दशकों में संविधान के समतावादी निर्देशों के कारण सामाजिक प्रभुत्व में आ रहे घाटे की क्षतिपूर्ति का अवसर बदले हुए हालात में सुलभ होने से भी अलग तरह के संतोष का अनुभव हो रहा है। जिस धार्मिकता के आवेश में समाज गिरफ्तार हो रहा है उसमें समता के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। यह धार्मिकता उपनिवेशवादी सामाजिक व्यवस्था के स्रोत का काम कर रही है। आजादी के बाद के भारत में देश की धार्मिक व्यवस्था को मानवाधिकारों पर आधारित वल्र्ड आर्डर के अनुरूप समंजित करने का जो प्रयास आगे बढ़ा था वह बैक फायर की जद में है। अनुदारवादी पुनरूत्थान की भट्टी में दहक रहा यह नया भारत दुनिया को क्या दिशा देने वाला है यह सोचनीय है।

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