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19.8.25

कंपन में छिपे संकेतों को नज़रअंदाज़ करना होगी बड़ी भूल, आपदा आने से पहले सचेत होना ज़रूरी

डॉ. बृजेश सती

उत्तर हिमालय भूकंप के लिहाज़ से अति संवेदनशील क्षेत्र है। हालांकि लंबे समय से यहां कोई बड़ा भूकंप नहीं आया, लेकिन मध्यम तीव्रता के झटके लगातार दर्ज होते रहे हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि ज़मीन के भीतर हो रहे कंपन दरअसल आने वाले खतरे के संकेत हैं, जिन्हें अनदेखा करना बड़ी भूल होगी। यदि समय रहते मज़बूत आपदा प्रबंधन और भूकंप-रोधी तंत्र विकसित नहीं किया गया तो इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है।

भारत का भूकंपीय मानचित्र बताता है कि उत्तराखंड जोन-5 में आता है, जो सबसे अधिक जोखिम वाला क्षेत्र है। पिछली सदी में यहां कई बड़े भूकंप दर्ज हुए—उत्तरकाशी (1991, 6.9 तीव्रता), चमोली (1999, 6.6 तीव्रता) और उससे पहले धारचूला (1964, 6.2 तीव्रता)। विशेषज्ञ मानते हैं कि टेक्टोनिक गतिविधियां लगातार जारी हैं और भविष्य में किसी बड़े भूकंप की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।

वैज्ञानिकों की राय

वरिष्ठ वैज्ञानिक और पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित डॉ. विजय प्रसाद डिमरी का कहना है कि उपग्रह चित्र और भौगोलिक सूचना प्रणाली (GIS) से मिली जानकारी का सही इस्तेमाल कर हिमालयी क्षेत्र की वास्तविक स्थिति को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। उनका मानना है कि बड़े भूकंप के बाद भूस्खलन, नदियों का अवरोधन और कृत्रिम झीलों का निर्माण आम है। ये झीलें मामूली झटकों या भारी वर्षा से टूटकर भारी तबाही मचा सकती हैं। इसके लिए सभी वैज्ञानिकों को एक मंच पर आकर हिमालय अध्ययन केंद्र बनाने की आवश्यकता है।

पर्यावरणविद् जगत सिंह जंगली चेतावनी देते हैं कि सुरंग निर्माण, भारी मशीनों और विस्फोटों से पहाड़ों की स्थिरता प्रभावित हो रही है। इससे धरती के भीतर की गड़बड़ियां और बढ़ेंगी और भविष्य में उच्च तीव्रता के भूकंप का खतरा और गंभीर हो सकता है।

सरकारी प्रयास

केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) जितेंद्र सिंह के अनुसार, आपदा के समय खोज एवं बचाव कार्यों में मदद के लिए ग्राउंड पेनेट्रेटिंग रडार (GPR) और आधुनिक तकनीकों की तैनाती की जा रही है। इसरो, एनजीआरआई और अन्य संस्थान मिलकर 3-डी सॉफ्टवेयर मॉडलिंग और भू-स्थानिक डेटा से अधिक सटीक मानचित्र तैयार कर रहे हैं।

दुनिया से सीख

जापान, अमेरिका, चिली, न्यूज़ीलैंड और चीन जैसे देशों ने भूकंप-रोधी भवन निर्माण, त्वरित चेतावनी प्रणाली, आपदा प्रबंधन और आधुनिक सेंसर नेटवर्क पर व्यापक कार्य किया है। भारत को भी इसी दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे।

निष्कर्ष

प्राकृतिक आपदाओं को रोका नहीं जा सकता, लेकिन उनके प्रभाव को कम किया जा सकता है। राहत और पुनर्वास की ठोस योजना, आधुनिक तकनीक का उपयोग और स्थानीय स्तर पर मज़बूत आपदा प्रबंधन तंत्र विकसित करना समय की सबसे बड़ी मांग है। उत्तराखंड ने भले ही 2007 में राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण बनाया, लेकिन ज़मीनी स्तर पर इसकी प्रभावशीलता अभी भी सवालों के घेरे में है।

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