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31.8.25

मीडिया : सत्ता का प्रहरी या सत्ता का भोंपू..? पत्रकारिता का पतन औरपुनर्जन्म की आवश्यकता

बंटी भारद्वाज-

भारत की पत्रकारिता कभी समाज का वह आईना थी जिसमें जनता अपनीपीड़ा, अपनी आकांक्षाएँ और अपने संघर्षों को साफ़-साफ़ देख पाती थी।पत्रकार की कलम में वह ताक़त थी कि उसका लिखा हुआ एक वाक्यदिल्ली की सत्ता को हिला सकता था। स्वतंत्रता संग्राम इसका सर्वोत्तमउदाहरण है—जब लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने केसरी के माध्यम सेअंग्रेजी हुकूमत को चुनौती दी, महात्मा गांधी ने हरिजन और यंग इंडियाको अपने आंदोलन का हथियार बनाया, पंडित नेहरू, गणेश शंकरविद्यार्थी जैसे क्रांतिकारी लेखकों ने अपने शब्दों से जन-जागरण काबिगुल फूंका। पत्रकारिता तब किसी पेशे से बढ़कर एक "मिशन" थी—राष्ट्र की चेतना को जगाने का मिशन।

लेकिन आज…..

समय का पहिया घूमा, और पत्रकारिता पर व्यवसायिकता का बोझ बढ़तागया। जो कभी समाज और राष्ट्रहित के लिए लड़ती थी, वही अबटीआरपी, विज्ञापन और निजी लाभ के लिए झुकती दिख रही है। आजसमाचार का उद्देश्य सूचना देना कम, सनसनी फैलाना ज़्यादा हो गया है।“फेक न्यूज़” का ट्रेंड सोशल मीडिया से लेकर न्यूज़ चैनलों तक फैल चुकाहै, जिससे पत्रकार की साख पर गंभीर प्रश्नचिह्न लग गया है। जो कललोकतंत्र का चौथा स्तंभ था, वही आज खोखला और संदिग्ध नज़र आनेलगा है।

लोकतंत्र और मीडिया : नींव का स्तंभ

लोकतंत्र एक इमारत है जो विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिकाके तीन मजबूत स्तंभों पर टिकी है। चौथे स्तंभ के रूप में मीडिया उस नींवकी तरह है, जो इस पूरी संरचना को स्थिर रखता है। लेकिन जब यहीस्तंभ भ्रष्टाचार, झूठ और प्रपंच से खोखला हो जाए तो लोकतंत्र की पूरीइमारत हिलने लगती है। मीडिया यदि सत्ताओं, कॉर्पोरेट्स या अपराधजगत के साथ सांठगांठ कर ले तो उसका “वॉचडॉग” वाला रोल खत्म होजाता है। तब वह प्रहरी नहीं, बल्कि सौदागर बन जाता है।

पत्रकारिता : मिशन से पेशा और अब धंधा

 

आज पत्रकारिता के क्षेत्र में दो चेहरे साफ़ दिखाई देते हैं—

 

1. वे पत्रकार, जो आज भी अपने जीवन को मिशन मानकर सच्चाई औरनिष्पक्षता के लिए लड़ रहे हैं। ये लोग कम संसाधनों के बावजूद भ्रष्टाचार, अन्याय और असमानता के खिलाफ अपनी कलम से जंग लड़ रहे हैं।

2. वे तथाकथित पत्रकार, जिन्होंने पत्रकारिता को धंधा बना दिया है।इनकी पहचान चमचमाती गाड़ियों, ‘प्रेस’ लिखे बोर्ड और सत्ता से करीबीसे होती है। ये गाड़ियों पर बिना नंबर प्लेट घुमते हैं, हेलमेट नहीं पहनते, कानून को अपने पैरों तले कुचलते हैं और हर जगह डर का माहौल बनाकरउगाही करते हैं।

 

यही नहीं, कई जगह आपराधिक मानसिकता के लोग पत्रकारिता के नामपर वैधता हासिल कर लेते हैं ताकि अपने अवैध कारोबार को बचा सकें।ये लोग समाज में सच्चे पत्रकारों की छवि को धूमिल कर रहे हैं।

मीडिया और नैतिकता का पतन

पत्रकारिता में पढ़ाई के दौरान "एथिक्स" यानी नैतिकता और निष्पक्षताकी बातें जरूर सिखाई जाती हैं। लेकिन यह पाठ्यक्रम की किताबों तकही सीमित रह गया है। व्यवहारिक जीवन में यह सब वैसा ही है जैसे स्कूलकी नैतिक शिक्षा की किताब—पढ़ ली जाती है, लेकिन अमल में नहींआती।

 

आज खबरों को "स्लैंट" देकर यानी झुकाव दिखाकर परोसा जाता है।हेडलाइन से ही यह बता दिया जाता है कि खबर किस पक्ष में है। कहींबलात्कार की खबर को जाति-धर्म का रंग दिया जाता है, कहीं अपराध कोराजनीतिक चश्मे से देखा जाता है। जबकि पत्रकारिता का असलीदायित्व है—“तथ्य” प्रस्तुत करना, न कि “मंशा” थोपना।

मीडिया : सत्ता का प्रहरी या सत्ता का भोंपू?

आज मीडिया का काम सिर्फ सत्ता की आलोचना तक सीमित मान लियागया है। लेकिन यह सोच अधूरी है। मीडिया का असली काम है—

तथ्यपूर्ण सूचना देना,

विवेचना करना,

और समाज को सही दिशा दिखाना।

 

लेकिन वर्तमान में मीडिया बाइनरी में फंस चुका है—या तो पूरी तरहसरकार के समर्थन में खड़ा होता है, या पूरी तरह विरोध में। संतुलन औरनिष्पक्षता जैसे शब्द धीरे-धीरे खो रहे हैं।

जिम्मेदारी किसकी है?

मीडिया की गिरती साख का सबसे बड़ा कारण स्वयं मीडिया है।

जब पत्रकार अपनी बैठक में तय करते हैं कि “हिंदू बनाम मुस्लिम वालीखबर ज्यादा बिकेगी”, तभी खबर की मौत हो जाती है।

जब टीआरपी के नाम पर समाज के पूर्वाग्रहों को हवा दी जाती है, तभीपत्रकारिता का नैतिक कर्तव्य खत्म हो जाता है।

और जब बड़े पत्रकार खुद स्वीकारते हैं कि उनका काम अब "एंटरटेनमेंट" भर रह गया है, तो यह लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है।

लोग कहते हैं, “जनता वही देखना चाहती है।” लेकिन सच्चाई यह है किजनता को दिशा दिखाने का दायित्व मीडिया का ही है। जनता दूध पीनेवाली बकरी और 2000 के नोट में चिप जैसे फर्जी किस्सों को देखने नहींआती, बल्कि मीडिया ही यह ठान लेता है कि यही दिखाना है।

समाधान : पत्रकारिता का पुनर्जागरण

 

अगर लोकतंत्र को बचाना है तो पत्रकारिता को अपने मिशन-काल मेंलौटना होगा।

 

1. नैतिकता और निष्पक्षता – पत्रकार को अपनी व्यक्तिगत मान्यताओं सेऊपर उठकर तथ्यों को रखना होगा।

2. एथिक्स की वापसी – मीडिया हाउस को व्यावसायिक दबाव से ऊपरउठकर पत्रकारिता की मूल आत्मा को प्राथमिकता देनी होगी।

3. सोशल मीडिया का संयम – फेक न्यूज की चुनौती का मुकाबला सच्ची, फैक्ट-चेक्ड और जिम्मेदार रिपोर्टिंग से करना होगा।

4. जन-जवाबदेही – मीडिया को समाज को यह भरोसा दिलाना होगा किवह बिकाऊ नहीं, बल्कि जनता की आवाज़ है।

पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। अगर यह स्तंभ खोखला हुआ तोलोकतंत्र की पूरी इमारत धराशायी हो जाएगी। इसलिए आवश्यकता हैकि पत्रकारिता फिर से अपने मूल स्वरूप में लौटे—जहाँ सत्य सर्वोपरि हो, जहाँ खबर बिके नहीं बल्कि समाज को जगाए, जहाँ पत्रकारिता धंधा नहींबल्कि जन-जागरण का माध्यम बने। यह लेख एक चेतावनी भी है औरएक आह्वान भी—यदि पत्रकारिता ने समय रहते आत्ममंथन नहीं किया तोलोकतंत्र की नींव ही हिल जाएगी। लेकिन यदि पत्रकार कलम को फिर सेसमाजहित और राष्ट्रहित का हथियार बना लें तो न सिर्फ पत्रकारिता कापुनर्जन्म होगा, बल्कि लोकतंत्र भी और मजबूत होगा।

 

बंटी भारद्वाज,पत्रकार

पत्रकारिता के क्षेत्र मे 17 साल का अनुभव.

आरा, बिहार

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