मित्रों,आज सुबह आजतक पर मैंने भी आशाराम का एक स्टिंग ऑपरेशन देखा जिससे यह प्रमाणित हो जाता है कि आशाराम एक निहायत लंपट और कामुक ड्रैकुला है। इस वीडियो में उसने सचमुच अपनी पोती की उम्र की महिला पत्रकार को अपने साथ में अकेले जंगल जाने और सोने का आमंत्रण दिया है। प्रश्न उठता है कि क्या आशाराम को आदमी की श्रेणी में रखा जा सकता है? क्या वो राक्षस नहीं है? क्या कोई शैतान,अपराधी,नरपिशाच केवल संत का बाना धारण कर लेने से संत हो जाता है? क्या हम हिन्दुओं को अपना गुरू चुनने और उससे दीक्षा लेने में पूरी सावधानी नहीं रखनी चाहिए? क्या ईश्वर हमारे बाहर हैं,हमारे भीतर नहीं हैं जो हम उसे दर-दर ढूंढते फिरते हैं? क्या कोई दूसरा व्यक्ति किसी के ग्रह-नक्षत्रों को ठीक कर सकता है? क्या ईश्वर और भक्त के बीच किसी बिचौलिये की उपस्थिति अनिवार्य है? क्या भक्ति पूर्णतया व्यक्तिगत मामला नहीं है?
मित्रों,आजकल एक बार फिर से निर्मल बाबा के कृपा बेचने का धंधा चल निकला है। हमारे टीवी चैनलों की धनलोलुपता से फायदा उठाकर यह शैतान फिर से जनता को ठगने में सफल होने लगा है। जिस दिन हम हिन्दू यह समझ लेंगे कि सफलता को कोई शॉर्ट कट नहीं होता और परिश्रम का कोई विकल्प नहीं होता उसी दिन चाहे आशाराम हों या निर्मल बाबा या फिर कोई और इन सभी ठगों,साधू के वेश में छिपे राक्षसों की दुकानों पर ताला लग जाएगा। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में स्वयं कहा है कि सर्वधर्मपरित्यज्यमामेकंशरणंब्रज फिर हम क्यों किसी हाड़-मांस के पुतले को भगवान मान लेते हैं?
मित्रों,मुझे महनार में गंगा तट पर एक बार कोई ढाई दशक पहले परम संत स्वामी सच्चिदानंद सरस्वती के साक्षात्कार का अवसर मिला था। सरस्वती जी प्रत्येक मनुष्य,प्रत्येक जीव को साक्षात् नारायण समझते थे और नारायण कहकर ही संबोधित भी करते थे। अति विनम्र और मृदुभाषी थे सरस्वती जी। पूरी तरह से निराभिमानी। उनके मन में न तो कभी मुख्यमंत्रियों से मिलने की अभिलाषा जागी और न तो ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जीने की। उनके मन में काम या अर्थ वासना के लिए तो दूर-दूर तक कोई स्थान ही नहीं था। किसी ने कुछ दे दिया तो खा लेते वरना भूखे सो जाते। किसी भक्त की दी हुई एक नाव ही उनका घर और सबकुछ था। लोग उनको नैया वाला बाबा कहते। उन्होंने किसी को दीक्षा नहीं दी और न तो शिष्य ही बनाया। जो हर इन्सान को नारायण समझेगा वह भला ऐसा कर भी कैसे सकता है?
मित्रों,संत ऐसे होते हैं। संन्यासी का मतलब होता है पूर्ण त्यागी। जिसके सैंकड़ों आश्रम हों,जिसके पास हजारों एकड़ महँगी जमीन हो,राजाओं की तरह जिसके हजारों सेवक-सेविकाएँ हों और जो एकांत में किशोर-युवा लड़कियों के साथ कथित साधना करता हो वह कैसे संत या संन्यासी हो सकता है? सवाल यह भी उठता है कि आशाराम तो लगातार विवादों में घिरे रहे हैं। उन पर कभी जमीन हड़पने तो कभी तंत्र-साधना के दौरान मासूम बच्चों की बलि देने तो कभी किसी श्रद्धालु को लात मारने और गालियाँ देने के आरोप लगातार लगते रहे हैं। अब जबकि उनका सबसे विकृत और घिनौना रूप भी अनावृत हो गया है तब भी उनके करोड़ों कथित भक्तों की आँखें क्यों नहीं खुल रही हैं? धिक्कार है ऐसे अंधे भक्तों पर,धिक्कार है ऐसे धर्म पर भी जिसके करोड़ों अनुयायी ऐसे महामूर्ख हों,आदमी नहीं भेड़ हों।
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