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12.1.18

युवा-दिवस पर विशेष : युवा के ताप में तप का सन्निवेश करना होगा

‘युवा’ संस्कृत शब्द स्रोत से प्राप्त ‘युवन’ शब्द का समासगत रुप है। ‘वृहत् हिन्दी कोश’ में युवा से संबंधित पुरुषवाचक संज्ञा शब्द ‘युवक’ का अभिप्राय तरुण, जवान और सोलह से तीस वर्ष तक की आयु का पुरुष है। और इसी संदर्भ में स्त्री के लिए ‘युवती’ शब्द प्रयुक्त होता है। आयु के अनुरुप शब्द प्रयोग की अपनी विशिष्ट परम्परा है, जिसमें छोटे बच्चों को शिशु अथवा बाल ; दस से पन्द्रह वर्ष तक की आयु वालों को किशोर; सोलह से तीस तक के वय-वर्ग हेतु तरुण और युवक, तीस से ऊपर प्रौढ़, पचास के लगभग अधेड़ और साठ-सत्तर की आयु से व्यक्ति की वृद्ध संज्ञा हो जाती है, किन्तु वर्तमान राजनीतिक संदर्भों में युवा शब्द उपर्युक्त प्रयोग परम्परा का अतिक्रमण कर चालीस से ऊपर के वय वर्ग तक प्रयुक्त हो रहा है जो कि परम्परा-सम्मत नहीं है।

     लोकमान्यता है कि लगभग सभी महत्वपूर्ण कार्य युवकों ने ही सम्पन्न किए हैं। एक सीमा तक यह सत्य भी है। आदि शंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद, सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद , महारानी लक्ष्मी बाई, जयशंकर प्रसाद , प्रेमचंद आदि असंख्य युवाओं का स्वक्षेत्रानुरुप  विशिष्ट अवदान इस तथ्य का साक्षी है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि समाज के लिए प्रौढ़ों और वृद्धों का योगदान कहीं कम रहा है। रामायण, महाभारत और रामचरितमानस जैसे ग्रंथों के रचनाकार युवा नहीं थे। अस्सी वर्ष के रणबाँकुरे योद्धा कंुवर सिंह ने प्रथम स्वतंत्रता संगा्रम में घोड़े की पीठ पर बैठकर अपनी सेना का संचालन किया। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, महात्मा गाँधी, महामना मदनमोहन मालवीय आदि ने प्रौढ़ वय में भी देश का सफल नेतृत्व किया। अभिप्राय यह है कि महत्त्वपूर्ण कार्यों के निष्पादनार्थ आयु से अधिक सामथ्र्य, प्रतिभा, संकल्प, उत्साह और पूर्ण विकसित व्यक्तिगत तेजस्विता की आवश्यकता होती है। इसीलिए महाकवि कालिदास ने ‘रघुवंश’ में लिखा है - ‘‘तेजस्विनाम् हि वयः न समीक्ष्यते।’’ अर्थात तेजस्वियों की आयु नहीं देखी जाती। उनका कार्य ही महत्त्वपूर्ण होता है, आयु वर्ग नहीं। कदाचित् तेजस्विता से उद्दीप्त प्रतिभाएं अत्यधिक श्रम अथवा आवश्यक त्याग-बलिदान के कारण अल्पवय में ही देह त्याग कर जाती हैं। इसीलिए यह अवधारणा दृढ़ हुई है कि युवा ही महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पादित कर पाते हैं। यहाँ यह भी रेखांकनीय है कि उनके कार्य निष्पादन में उनकी अल्पआयु से अधिक उनकी प्रतिभा और दृढ़संकल्पित कत्र्तव्य-निष्ठा का योगदान होता है।
      सामान्यतः आयु-आधारित ‘युवा’ संज्ञा वय के अनुरूप सबके लिए सर्वस्वीकृत है किन्तु यह भी विचारणीय है कि क्या केवल वय-वर्ग के आधार पर किसी की युवा संज्ञा सार्थक हो सकती है ? देश में करोड़ों युवा हैं किन्तु क्या वे सभी युवा-क्रान्तिकारियों के सदृश देश के लिए समर्पित हैं ? क्या वे सभी आदि शंकराचार्य, स्वामी विवेकानन्द सदृश चिन्तन-मनन से समृद्ध हैं ? यदि नहीं, तो उनकी युवा संज्ञा महापुरूषों के समतुल्य नहीं हो सकती। केवल वंश-परम्परा से नेतृत्व पाकर अथवा समूह विशेष के हित में उत्तेजक भाषण देने भर से युवा की सार्थकता सिद्ध नहीं होती। यदि किसी युवा की सार्थकता का सही मूल्यांकन करना है तो उसके आचार-विचार और सामाजिक प्रदेय का भी समुचित आकलन किया जाना अत्यावश्यक है। आजकल देश के राजनीतिक गलियारों में जिस कथित युवा-नेतृत्व का बाजार गर्म है उसने देश और समाज की उन्नति में अब तक क्या योगदान दिया है ? सत्ता की वागडोर उन्हें सौपते समय यह भी मूल्यांकित किया जाना चाहिए।
       युवा वेगवती नदी की उफनती धारा है ; सागर की सतह पर उमड़ता ज्वार है। यदि उसकी दिशा सकारात्मक है ; उसकी ऊर्जा लोककल्याण के प्रति प्रतिबद्ध है ; उसमें नैतिक-मूल्यों से निर्मित अनुशासन के मर्यादित तटबंधों में बहने का संयम है तब ही उसकी सार्थकता है अन्यथा आतंक और अपराध की भयानक दुनियाँ का अंधकार भी युवाशक्ति के दुष्प्रयोग की ही देन है। दुर्योधन जैसे उद्दण्ड और नारी का अपमान करने वाले युवा समाज के लिए अभिशाप बनते हैं। आतंकवादियों, अपराधियों में बड़ी संख्या युवाओं की है। ऐसा युवापन जो मनुष्यता के लिए घातक सिद्ध हो, निश्चय ही निन्दनीय है। उसे महान युवाओं के समकक्ष स्थान नहीं दिया जा सकता।
       पिछले दिनों एक कथित युवा नेता ने बयान दिया कि देश के वर्तमान प्रधानमंत्री को हिमालय पर चला जाना चाहिए। देश की सत्ता उन्हें और उनके अन्य युवा मित्रों को सौंप दी जानी चाहिए। कदाचित सत्ता पर काबिज होने की यह उत्कट लालसा ; ऐसी बयानवाजी द्वापर के कंस और मध्यकाल के औरंगजेब की याद दिलाती है जिन्होंने अपने पिता को बंदी बनाकर सत्ता पर अधिकार किया। एक जाति विशेष के लिए आरक्षण माँगकर सीमित वर्ग का हित चाहने वाले, दलित-सवर्ण की विघटनकारी राजनीति करने वाले सारे देश का नेतृत्व संभालने की दुरभिलाषाएं पाल रहे हैं ; समाज को अस्थिर और अराजक बनाने के षडयंत्र रच रहे हैं और युवा महापुरूषों का उदाहरण देकर अपने युवापन की दुहाई दे रहे हैं। यह दुखद है। विचारणीय है कि अपनी दुरभिलाषाओं की पूर्ति के लिए सारे समाज को विनाश के पथ पर धकेलने वाली दूषित मानसिकताग्रस्त युवासंज्ञा की देशहित में क्या सार्थकता है ?
           आज के युवा में ऊर्जा का ताप चरम पर है, किन्तु चिन्तन का तप लगभग शून्य है। वह आत्म केन्द्रित है ; आत्ममुग्ध है। उसे अपनी चिन्ता है ; अपने कथित कैरियर की चिन्ता है। विदेशी कंपनियों की नौकरी, प्रवासी जीवन उसका स्वप्न है। ‘यूज एण्ड थ्रो’ की दूषित मानसिकता में पला-बढ़ा एक बड़ा युवावर्ग भ्रमित है ; श्रमित है और अपनी सांस्कृतिक भावभूमि से हटकर अपनी परम्पराओं से दूर जा रहा है। माता-पिता का अपमान, गुरूजनों का निरादर, जरा-जरा सी बात पर आत्मघात इस तथ्य के साक्ष्य हैं। आज के युवा को इस नकारात्मक और निराशाजनक स्थिति बचाना होगा।
    देश का युवा हमारे वर्तमान की आशा है; भविष्य का स्वप्न है। उसके यौवन की सार्थकता में हमारी शक्ति, हमारा वैभव और हमारी सुखशान्ति सन्निहित है। उसके सदुपयोग से ही देश के विकास-रथ को प्रगति-पथ पर अग्रसर किया जा सकता है। अतः युवा के यौवन को सार्थकता देने के लिए उसके उचित निर्देशन की आवश्यकता है। उसके ताप में तप का सन्निवेश करने की आवश्यकता है। विद्यार्जन, अपनी परम्पराओं का ज्ञान, सद्ग्रंथों का स्वाध्याय, स्वस्थ-बलिष्ठ तन की प्राप्ति और युगानुरूप लोक हितकारी चिन्तन का विकास युवा का तप है। इस तप के माध्यम से उसके विवेक को जागृत करना होगा तभी वह आनन्द प्राप्त कर विवेकानन्द बन सकेगा, अपने युवा रूप को सार्थकता दे सकेगा और तब ही युवादिवस भी अर्थवान होगा। 
डा. कृष्णगोपाल मिश्र
विभागाध्यक्ष-हिन्दी
शासकीय नर्मदा स्नातकोत्तर महाविद्यालय
होशंगाबाद म.प्र.
drkrishnagopalmishra@yahoo.com

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