मनोज कुमार
महात्मा, बापू राष्ट्रपिता, किसी भी संबोधन से आप स्मरण करेंगे तो आपके जेहन में उस व्यक्ति की छवि उभर कर आएगी जिसे हम गांधीजी कहते हैं. ये वो व्यक्तित्व हैं जिनके बिना भारत की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. सत्य, अहिंसा, सर्वधर्म समभाव के लिए सम्पूर्ण जीवन जीने वाले इस महान संत के चरणकमल से मध्यप्रदेश एक बार नहीं, कई कई बार स्वयं को गौरवांवित किया है. अविभाजित मध्यप्रदेश में गांधीजी की दस अविस्मरणीय यात्राएं हुई थी. सबसे पहली बार वे 1918 में इंदौर आए थे. मार्च महीने में गांधीजी की यात्रा चार दिनों की थी. तब उन्होंने भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के 8वें अधिवेशन का उद्घाटन किया था और यहीं से हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाये जाने की मांग उठी थी. बाद में उन्होंने एक सार्वजनिक सभा को संबोधित किया था. गांधी की दूसरी यात्रा वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य में कंडेल नहर सत्याग्रह के संदर्भ में हुई थी. कंडेल में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पंडित सुंदरलाल शर्मा के कार्यों से गांधीजी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने पंडित शर्मा को अपना गुरु बना लिया.
गांधी के प्रवास में सबसे महत्वूपर्ण प्रवास छिंदवाड़ा की थी. यह उनकी तीसरी यात्रा थी. इस प्रवास की चर्चा करते हैं तो एक अलग किस्म की अनुभूति होती है. गौरव का भाव अपने भीतर जाग उठता है कि हम उस छिंदवाड़ा की चर्चा कर रहे हैं जहां से गांधीजी ने अपने असहयोग आंदोलन का शंखनाद किया था. गांधीजी के साथ छिंदवाड़ा में नेहरूजी की यादें भी जुड़ी हुई हैं. ऐसी यादें जो दशकों बाद भी अपनी महक बनाये हुए है. इन दशकों में कई नई पीढ़ी ने अपनी दुनिया गढ़ ली है लेकिन उनके मन में भी वह स्मृतियां आज भी ठांठें मार रही है जो उन्होंने कभी अपने दादा से तो कभी पड़दादा से सुना था. किसी के हिस्से में दादी ने उस स्वाधीनता आंदोलन से अपनी नवागत पीढ़ी का परिचय कराया था तो किसी की नानी गांधीजी के प्रवास की बातें सुनाकर रोमांचित हो जाती थीं. इसी नयी पीढ़ी ने अपनी बाद की पीढिय़ों को छिंदवाड़ा के स्वाधीनता आंदोलन में भागीदारी के किस्से सुनते-सुनाते चले आ रहे हैं. महात्मा गांधी के आगमन से छिंदवाड़ा राजनीतिक गतिविधियों का नया केंद्र बनकर उभरा था।
6 जनवरी, 1921 का वह दिन छिंदवाड़ा के लिए स्वर्णिम दिन था. कभी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि भारत को पराधीनता की बेडिय़ों से स्वतंत्र कराने वाले आंदोलन की पृष्ठभूमि छिंदवाड़ा से बनेगी. जो कल्पना नहीं थी, वह साकार हुई. इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है कि अंग्रेजों के खिलाफ गांधीजी के असहयोग आंदोलन का श्रीगणेश छिंदवाड़ा की भूमि से हुआ. इतिहास के पन्नों को पलटने से ज्ञात होता है कि दिसंबर 1920 में नागपुर अधिवेशन में असहयोग आंदोलन के प्रस्ताव को स्वीकृति मिलने के बाद महात्मा गांधी की पहली सभा 6 जनवरी 1921 को छिंदवाड़ा में चिटनवीस गंज (वर्तमान गांधीगंज) में हुई थी। सभा में महात्मा गांधी ने अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों के विरोध में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की अपील की थी। जोश और उमंग से भरे लोगों ने विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी।
छितियाबाई के बाड़े में दूसरी सभा महात्मा गांधी का दूसरी बार 29 नवंबर 1933 को छिंदवाड़ा आगमन हुआ था। उस समय उनकी सभा बुधवारी बाजार में छितियाबाई के बाड़े में हुई थी। आम एवं केले के पत्तों से पंडाल को सजाया गया था। लालटेनों के जरिए पांडल में रोशनी की व्यवस्था की गई थी। लोगों ने बापू को मानपत्र भेंट किया था।सरोजनी नायडू ने 18 अप्रैल 1921 को चिटनवीसगंज में एतिहासिक सम्मेलन की अध्यक्षता की थी। इस सम्मेलन के बाद छिंदवाड़ा प्रदेश की राजनीतिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र बन गया था। छुआछूत और भेदभाव के खिलाफ आंदोलन के दौरान गांधीजी देश के एक कोने से दूसरे कोने का दौरा कर रहे थे, उसी दौरान वे दूसरी बार यानि 29 नवंबर 1933 को छिंदवाड़ा पहुंचे थे. तब बुधवारी बाजार में बापू ने छितिया बाई नाम की एक महिला के बाड़े में एक जनसभा की थी.
एक किस्सा यूं भी = प्रवास के दरम्यान किसी अनजान व्यक्ति ने महात्मा गांधी को उनकी तस्वीर जड़ा एक चांदी का पानदान भेंट किया था. जिसे उन्होंने छिंदवाड़ा के गोविंदराम त्रिवेदी को ही 501 रुपये में बेच दिया था. छिंदवाड़ा के बुर्जुग बताते हैं कि पानदान बेचने के पहले गांधीजी ने फव्वारा चौक पर उसे नीलामी के लिए रखा था, ताकि उससे मिले पैसे को आंदोलन में लगा सकें, क्योंकि उस पानदान का उनके पास कोई उपयोग नहीं था, लेकिन नीलामी में पानदान की कीमत महज 11 रुपये लगी। इसके बाद गांधी जी ने पानदान को नीलाम करने से मना कर दिया। इस पानदान की खासियत ये थी कि इसमें गांधीजी की प्रतिमा उकेरी गयी थी। बापू को भेंट किया हुआ पानदान खरीदने वाले छिंदवाड़ा के पंडित गोविंदराम त्रिवेदी की बहू मीडिया को बताती हैं कि उनके ससुर गोविंदराम बापू से मिलकर इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने हिंदू महासभा का दामन छोड़ दिया और कांग्रेस के साथ हो लिए। इस दौरान उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा. जिससे उनका स्वास्थ्य बिगड़ता गया और 1945 में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया. त्रिवेदी परिवार आज भी बतौर बापू की यादें उस पानदान की धरोहर सहेज रखा है.
इसके अलावा गांधी जी की मध्यप्रदेश की महत्वपूर्ण यात्राओं में साल 1921 में सिवनी जबलपुर की थी. पांचवी यात्रा खंडवा मेंमई 1921 में हुई थी. छठीं यात्रा में भोपाल और सांची -सितंबर 1929 में पहुंचे थे. गांधीजी की सातवीं यात्रा - 22 नवंबर से 8 दिसंबर 1933 में मध्यप्रदेश के कई शहरों की। आठवीं यात्रा- 20 अप्रैल 1935 को एक बार फिर इंदौर की हुई तो नौवीं यात्रा में गांधीजी एक बार फिर 1941 में जबलपुर के भेड़ाघाट पहुंचे थे. अपनी दसवीं यात्रा में 27 अप्रेल 1942 को बापू मदनमोहन स्टेशन पर उतरे और विक्टोरिया अस्पताल में भर्ती सेठ गोविंददास से मिलने और उनकी तबीयत जानने पहुंचे. 1918 से 1942 तक की गांधी के विभिन्न प्रवास ने मध्यप्रदेश में स्वाधीनता आंदोलन को नई ओज और शक्ति प्रदान की. आज भी महात्मा के रजकमल से सुवासित हो रहा है मध्यप्रदेश.
मनोज कुमार की रिपोर्ट.
महात्मा, बापू राष्ट्रपिता, किसी भी संबोधन से आप स्मरण करेंगे तो आपके जेहन में उस व्यक्ति की छवि उभर कर आएगी जिसे हम गांधीजी कहते हैं. ये वो व्यक्तित्व हैं जिनके बिना भारत की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. सत्य, अहिंसा, सर्वधर्म समभाव के लिए सम्पूर्ण जीवन जीने वाले इस महान संत के चरणकमल से मध्यप्रदेश एक बार नहीं, कई कई बार स्वयं को गौरवांवित किया है. अविभाजित मध्यप्रदेश में गांधीजी की दस अविस्मरणीय यात्राएं हुई थी. सबसे पहली बार वे 1918 में इंदौर आए थे. मार्च महीने में गांधीजी की यात्रा चार दिनों की थी. तब उन्होंने भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के 8वें अधिवेशन का उद्घाटन किया था और यहीं से हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाये जाने की मांग उठी थी. बाद में उन्होंने एक सार्वजनिक सभा को संबोधित किया था. गांधी की दूसरी यात्रा वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य में कंडेल नहर सत्याग्रह के संदर्भ में हुई थी. कंडेल में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पंडित सुंदरलाल शर्मा के कार्यों से गांधीजी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने पंडित शर्मा को अपना गुरु बना लिया.
गांधी के प्रवास में सबसे महत्वूपर्ण प्रवास छिंदवाड़ा की थी. यह उनकी तीसरी यात्रा थी. इस प्रवास की चर्चा करते हैं तो एक अलग किस्म की अनुभूति होती है. गौरव का भाव अपने भीतर जाग उठता है कि हम उस छिंदवाड़ा की चर्चा कर रहे हैं जहां से गांधीजी ने अपने असहयोग आंदोलन का शंखनाद किया था. गांधीजी के साथ छिंदवाड़ा में नेहरूजी की यादें भी जुड़ी हुई हैं. ऐसी यादें जो दशकों बाद भी अपनी महक बनाये हुए है. इन दशकों में कई नई पीढ़ी ने अपनी दुनिया गढ़ ली है लेकिन उनके मन में भी वह स्मृतियां आज भी ठांठें मार रही है जो उन्होंने कभी अपने दादा से तो कभी पड़दादा से सुना था. किसी के हिस्से में दादी ने उस स्वाधीनता आंदोलन से अपनी नवागत पीढ़ी का परिचय कराया था तो किसी की नानी गांधीजी के प्रवास की बातें सुनाकर रोमांचित हो जाती थीं. इसी नयी पीढ़ी ने अपनी बाद की पीढिय़ों को छिंदवाड़ा के स्वाधीनता आंदोलन में भागीदारी के किस्से सुनते-सुनाते चले आ रहे हैं. महात्मा गांधी के आगमन से छिंदवाड़ा राजनीतिक गतिविधियों का नया केंद्र बनकर उभरा था।
6 जनवरी, 1921 का वह दिन छिंदवाड़ा के लिए स्वर्णिम दिन था. कभी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि भारत को पराधीनता की बेडिय़ों से स्वतंत्र कराने वाले आंदोलन की पृष्ठभूमि छिंदवाड़ा से बनेगी. जो कल्पना नहीं थी, वह साकार हुई. इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है कि अंग्रेजों के खिलाफ गांधीजी के असहयोग आंदोलन का श्रीगणेश छिंदवाड़ा की भूमि से हुआ. इतिहास के पन्नों को पलटने से ज्ञात होता है कि दिसंबर 1920 में नागपुर अधिवेशन में असहयोग आंदोलन के प्रस्ताव को स्वीकृति मिलने के बाद महात्मा गांधी की पहली सभा 6 जनवरी 1921 को छिंदवाड़ा में चिटनवीस गंज (वर्तमान गांधीगंज) में हुई थी। सभा में महात्मा गांधी ने अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों के विरोध में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की अपील की थी। जोश और उमंग से भरे लोगों ने विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी।
छितियाबाई के बाड़े में दूसरी सभा महात्मा गांधी का दूसरी बार 29 नवंबर 1933 को छिंदवाड़ा आगमन हुआ था। उस समय उनकी सभा बुधवारी बाजार में छितियाबाई के बाड़े में हुई थी। आम एवं केले के पत्तों से पंडाल को सजाया गया था। लालटेनों के जरिए पांडल में रोशनी की व्यवस्था की गई थी। लोगों ने बापू को मानपत्र भेंट किया था।सरोजनी नायडू ने 18 अप्रैल 1921 को चिटनवीसगंज में एतिहासिक सम्मेलन की अध्यक्षता की थी। इस सम्मेलन के बाद छिंदवाड़ा प्रदेश की राजनीतिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र बन गया था। छुआछूत और भेदभाव के खिलाफ आंदोलन के दौरान गांधीजी देश के एक कोने से दूसरे कोने का दौरा कर रहे थे, उसी दौरान वे दूसरी बार यानि 29 नवंबर 1933 को छिंदवाड़ा पहुंचे थे. तब बुधवारी बाजार में बापू ने छितिया बाई नाम की एक महिला के बाड़े में एक जनसभा की थी.
एक किस्सा यूं भी = प्रवास के दरम्यान किसी अनजान व्यक्ति ने महात्मा गांधी को उनकी तस्वीर जड़ा एक चांदी का पानदान भेंट किया था. जिसे उन्होंने छिंदवाड़ा के गोविंदराम त्रिवेदी को ही 501 रुपये में बेच दिया था. छिंदवाड़ा के बुर्जुग बताते हैं कि पानदान बेचने के पहले गांधीजी ने फव्वारा चौक पर उसे नीलामी के लिए रखा था, ताकि उससे मिले पैसे को आंदोलन में लगा सकें, क्योंकि उस पानदान का उनके पास कोई उपयोग नहीं था, लेकिन नीलामी में पानदान की कीमत महज 11 रुपये लगी। इसके बाद गांधी जी ने पानदान को नीलाम करने से मना कर दिया। इस पानदान की खासियत ये थी कि इसमें गांधीजी की प्रतिमा उकेरी गयी थी। बापू को भेंट किया हुआ पानदान खरीदने वाले छिंदवाड़ा के पंडित गोविंदराम त्रिवेदी की बहू मीडिया को बताती हैं कि उनके ससुर गोविंदराम बापू से मिलकर इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने हिंदू महासभा का दामन छोड़ दिया और कांग्रेस के साथ हो लिए। इस दौरान उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा. जिससे उनका स्वास्थ्य बिगड़ता गया और 1945 में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया. त्रिवेदी परिवार आज भी बतौर बापू की यादें उस पानदान की धरोहर सहेज रखा है.
इसके अलावा गांधी जी की मध्यप्रदेश की महत्वपूर्ण यात्राओं में साल 1921 में सिवनी जबलपुर की थी. पांचवी यात्रा खंडवा मेंमई 1921 में हुई थी. छठीं यात्रा में भोपाल और सांची -सितंबर 1929 में पहुंचे थे. गांधीजी की सातवीं यात्रा - 22 नवंबर से 8 दिसंबर 1933 में मध्यप्रदेश के कई शहरों की। आठवीं यात्रा- 20 अप्रैल 1935 को एक बार फिर इंदौर की हुई तो नौवीं यात्रा में गांधीजी एक बार फिर 1941 में जबलपुर के भेड़ाघाट पहुंचे थे. अपनी दसवीं यात्रा में 27 अप्रेल 1942 को बापू मदनमोहन स्टेशन पर उतरे और विक्टोरिया अस्पताल में भर्ती सेठ गोविंददास से मिलने और उनकी तबीयत जानने पहुंचे. 1918 से 1942 तक की गांधी के विभिन्न प्रवास ने मध्यप्रदेश में स्वाधीनता आंदोलन को नई ओज और शक्ति प्रदान की. आज भी महात्मा के रजकमल से सुवासित हो रहा है मध्यप्रदेश.
मनोज कुमार की रिपोर्ट.
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