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30.3.16

पुरस्कार 'सेनेटरी पेड' तो नही हैं... संदर्भ : असाहित्यकार सोनी सोरी को साहित्यिक पुरस्कार मिलना

गुजरी होली पर खबर हिमाचल प्रदेश के गांव से आई जहां सामुदायिक मिलन समारोह में पुरस्कारस्वरूप, महिलाओं को सेनेटरी-पेड बांटे गए। विवाद बढ़ा तो उनके पतियों ने खासा बवाल मचाया और अंतत: आयोजकों के माफी मांगने के बाद मामला रफा-दफा हुआ। मगर यही गलती जब देश के प्रमुख राजनीतिक दल आम आदमी पार्टी से हो तो सवाल खड़े होना लाजिमी है। दिल्ली सरकार द्वारा दिया जाने वाला संतोष कोली साहित्यिक पुरस्कार बस्तर की आदिवासी नेता सोनी सोरी को दिया गया है, जिनकी पहचान एक एक्टिविस्ट और आप पार्टी की नवांकुर नेता से ज्यादा कुछ नही है।


अफसोस कि साहित्यकारों के हक  और लेखनी पर थानेदारी रखने वाली संस्था हिंदी अकादमी संचालन समिति-जिसकी उपाध्यक्ष प्रख्यात महिला साहित्यकार मैत्रेयी पुष्पा हैं-ने इस फैसले पर अपनी मुहर लगाई जो मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की अध्यक्षता में काम करती है। हालांकि इस निर्णय ने पार्टी की नैतिकता और पुरस्कार की गरिमा पर सवालिया निशान तो खड़े कर ही दिये हैं। दरअसल दिल्ली की सत्ता में काबिज होने के बाद मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपनी पार्टी के कार्यकर्ता संतोष कोली के नाम से दो लाख रूपये का एक साहित्यिक पुरस्कार प्रांरभ किया। कोली, आम आदमी पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता थे ना कि साहित्यकार। फिर भी मैं इसे गलत नही मानता क्योंकि अकसरहां हर राजनीतिक दल मौका और मजबूरियों के चलते ऐसा करते आया है। 1990 के दशक तक देश की हर गली और सरकारी योजना का नाम गांधी परिवार के सदस्यों के नाम ही रखा जाता रहा। फिर क्या कांग्रेस, क्या भाजपा, क्या समाजवादी और क्या आम आदमी पार्टी, जिसे जब जहां मौका मिला, पुरस्कार या नामकरण के नाम पर अपने महापुरूषों या पुरूषों को महिमामंडित करते आए हैं।
गर्वभरी खुशी के साथ यह कहने में हर्ज नहीं कि आदिवासी महिला सोनी सोरी, बस्तर की नई पहचान बनकर उभरी हैं। गुजरे लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने उन्हें बस्तर लोकसभा सीट से अपने उम्मीदवार के तौर पर उतारा था लेकिन वे तीसरे स्थान पर रहीं थी। उन पर लाख इल्जाम होंगे लेकिन मैं उन्हें एक ऐसी साहसी महिला के तौर पर जानता हूं जिन्होंने पारिवारिक गरीबी के साथ-साथ माओवाद, पुलिसिया आतंक और खुद की जिंदगी से लोहा लेते हुए खुद को स्थापित किया है। वे बड़ा दिल रखती हैं क्योंकि क्योंकि ताजा साहित्यिक पुरस्कार में मिली दो लाख की राशि जिस तरह आदिवासियों के नाम की, अच्छे-खासे यह दरियादिली नहीं दिखा पाते, इसलिए सोनी सोरी के प्रति मेरे मन में गहरा और बड़ा सम्मान जुड़ा है।

लेकिन यहां सवालों को तहाते हुए भूलना नही चाहिए कि कानून की नजर में सोनी सोरी एक संदिगध नक्सली ही हैं। उनके साथ एक काला अध्याय यह भी जुड़ा है कि वे नक्सलियों के लिए एस्सार से लेवी वसूलते पकड़ी गई थीं। यह ठीक है कि आने वाले समय में अदालत से निर्दोष बरी हो सकती हैं मगर दिमाग को मथने वाला सवाल यह है कि क्या सोनी सोरी साहित्यकार हैं? छत्तीसगढ़ में सक्रिय पत्रकारिता करने के कारण मैं और बाकी लोग भी यह बखूबी जानते हैं कि कोई पुस्तक तो छोड़ दीजिए, उन्होंने कहानी तक नहीं लिखी। साफ है कि जिस तरह सेना का वीरता पदक एैरे-गैरे, नत्थू-खैरों को नही दिया जा सकता, उसी तरह साहित्यिक सम्मान पर भी पहला दावा या अधिकार तो साहित्य-साधक का ही बनता है ना। देश तो छोड़ दीजिए, अकेले दिल्ली में ही कई ऐसे साहित्यकार होंगे जिन्होंने साहित्य की सेवा में जिंदगी खफा दी मगर उन्हें आज तक कोई पुरस्कार नही मिल सका।

दु:ख की बात यह कि जिस पार्टी में प्रशांत भूषण, आशुतोष और कुमार विश्वास जैसे बुद्धिजीवी हों, जिन्होंने हिन्दी के नाम की रोटी खाकर अपना वजूद तैयार किया हो, वे भी इस मामले में दुचित्तापन दिखाने से बाज नही आए। ये सब महानुभाव आपत्ति दर्ज कराते तो हो सकता है पुरस्कार सही हाथों में जाता लेकिन इसे सत्ता की अंधी अभिलाषा कह लीजिए या शीर्ष पर पहुंच जाने के बाद खुद ब खुद आ धमकने वाला अंधत्व कि सब धृतराष्ट्र की तरह आंख पर पट्टी बांधे चीरहरण होता देखते रहे। आशंका बलवती है कि हो सकता है आम आदमी पार्टी ने यह सोचा हो कि सोनी सोरी को पुरस्कार देने के बाद जो साहित्यिक जमूरे विवाद खड़ा करते हुए हो-हल्ला करेंगे, उसके चलते सोरी को प्रसिद्धि मिलेगी और पार्टी उसे अगले चुनाव में भुना सकेगी।

अफसोस कि अपने आकाश पे परायों की जिंदगी रोशन करने जैसे इस प्रयोग पर जो उंगलियां उठनी चाहिए थी, वह शांत कैसे बैठी हैं? गुजरे महीनों में जिन नौ साहित्यकारों ने असहिष्णुता से दु:खी होकर अपने अवार्ड्स वापस लौटाए, वे अपनी बिरादरी के साथ होते अन्याय पर अब मौनी बाबा क्यों बन गए? आपके हिस्से का पुरस्कार ऐसे शख्स को दिया गया, जिसकी उपलब्धि साहित्यिक-सेवा के नाम पर शून्य ही है। वह भी दिल्ली जैसे बुद्धिजीवी शहर में-जहां छद्म आवरण ओढक़र, मंत्रियों की सिफारिशें कराकर पुरस्कार हासिल किए जाते हों, वहां सुविचारित और सुचिंतित धैर्य के साथ सरकार के इस अन्याय पर साहित्यकार कैसे नही बिलबिलाए, यह आश्चर्यजनक है।

साहित्यकार विष्णु खरे ने एक बार कहा था कि यह हिन्दी की चीखती टिटहरियां हैं जिन्हें यह मुगालता है कि आसमान उन्हीं के पैरों पर टिका हुआ है। लेखकों के दिमाग में किसी की थानेदारी स्वीकार नहीं की जानी चाहिए या कुपात्रों को पुरस्कार बांटने के प्रयासों को धिक्कारना ही होगा। आम आदमी पार्टी की सरकार ने यदि इसकी शुरूआत की है तो इसके खिलाफ साहित्यकारों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों सभी को बिगुल फूंकना चाहिए। देश की साहित्यिक बिरादरी के अगुआ नामवर सिंह, अशोक बाजपेयी, काशीनाथ सिंह, अरूंधति रॉय, मृणाल पाण्डे या हमारे अंचल के ख्यातिलब्ध गिरीश पंकज सरीखे विद्वान-जिन्होंने मेरे जैसे कई पाठकों का भरोसा जीता हुआ है-को भी चाहिए कि वह ऐसे प्रयोगों के खिलाफ उतरें अन्यथा देश किसी दिन यह भी देखेगा कि वीर सैनिक का वीरता पदक किसी राजनेता को मिलने जा रहा है।

अनिल द्विवेदी
(लेखक रिसॅर्च स्कॉलर हैं)
09826550374

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