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9.7.16

अगर 2017 में प्रियंका नहीं चलीं तो 2019 के लिये कांग्रेस के पास कोई विकल्प न बचेगा

यूपी फतह के लिये राहुल को बहन का सहारा


अजय कुमार, लखनऊ

कांग्रेसियों अपनी ‘सियासी हांडी’ पकाने के लिये कभी किसी चीज/बात  से गुरेज नहीं रहता है। वह अपनी विचारधारा को त्याग सकते है। सियासी फायदे के लिये किसी के भी सामने ‘नतमस्तक’ होने जाने की कांग्रेसी संस्कृति दशकों पुरानी है। इसी संस्कृति की देन है कांग्रेसियों का एक परिवार विशेष के प्रति लगाव। नेहरू से लेकर राहुल गांधी तक यह सिलसिला बद्स्तूर जारी रहा। अब इस सिलसिले को प्रियंका गांधी वाड्रा आगे बढ़ायेंगी। कांग्रेस 2017 में पांच राज्यों में होने वाले विधान सभा चुनाव के लिये प्रियंका को आगे करेगी,यह खबर सुर्खियां बनते ही कांग्रेसी मंशा पर सवाल उठने लगे हैैंं।
राजनैतिक जानकार पूछ रहे हैं कि कांग्रेस ने प्रियंका में ऐसा क्या देखा जो उन्हें लगने लगा कि वह  यूपी सहित पांच राज्यों में कांग्रेस का बेड़ा पार कर देंगीं। प्रियंका अपनी मॉ सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र रायबरेली और भाई राहुल गांधी के संसदीय क्षेत्र अमेठी में तो पहले से ही सक्रिय थीं,परंतु दोंनो ही जगह उन्होंने कोई ऐसा कारनामा नहीं किया जिसके आधार पर तय किया जा सके कि प्रियंका यूपी में कांग्रेस की तस्वीर और तकदीर बदल देंगी।

2012 के विधान सभा चुनाव के समय पूरी कोशिश लगा देने के बाद भी प्रियंका अपनी मॉ सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र रायबरेली में कांग्रेस की करारी हार को बचा नहीं पाईं थीं। पांच में से चार विधान सभा सीटों पर समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी विजयी हुए थे और एक सीट पर निर्दलीय प्रत्याशी को जीत हासिल हुई थी। रायबरेली की तरफ भाई राहुल गांधी के संसदीय क्षेत्र अमेठी पर भी प्रियंका गांधी मेहरबान रहती हैं, लेकिन यहां भी स्थिति रायबरेली से बेहतर नहीं है। 2014 में अमेठी से जीत हासिल करने के लिये राहुल गांधी को गली-गली खाक छानना पड़ गई थी। बात 2012 के विधान सभा चुनाव की कि जाये तो राहुल/प्रियंका अमेठी में भी कांग्रेस की स्थिति औसत ही रही।

दरअसल, कांग्रेसियों को प्रियंका के काम (योग्यता) से अधिक चाम (चेहरा) पर भरोसा है। प्रियंका की छवि एक ‘बार्बी डाल’ जैसी रचि जा रही है। पार्टी में चटुकार टाइप के ऐसे कांग्रेसियों की भी कमी नहीं है जो प्रियंका में उनकी दादी और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का ‘अवतार’ देखते हैं। कांग्रेसी यह समझने के लिये तैयार ही नहीं हैं कि किसी का किसी से चेहरा-मोहरा मिल जाये तो इसका यह मतलब नहीं है कि उसमें उसके गुण भी आ जाते हैं। इंदिरा गांधी एक परिपक्त नेत्री थीं। उन्हें सियासत की बारीकियां पता थीं तो कूटनीति में भी माहिर थीं। वह जनता की नब्ज पहचानती थीं तो सरकार चलाने की काबलियत उनमें कूट-कूट कर भरी हुई थी। कई मायनों में तो वह अपने पिता पंडित जवाहर लाल नेहरू से भी बीस बैठती थीं। ताज्जुब की बात यह भी है कि कांग्रेसियों को ही नहीं कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर औरे यूपी कांग्रेस के प्रभारी बनाये गये गुलाम नबी आजाद को भी प्रियंका में काफी संभावनाएं दिखाई दे रही हैं।  

यूपी सहित 2017 में होने वाले अन्य चार राज्यों में भी प्रियंका को हाईलाइट  करने का मन बना चुकी कांग्रेस, यूपी में अपनी ताकत बढ़ाकर दिल्ली में मोदी सरकार की उलटी गिनती शुरू करने का सपना पाले हुए है। प्रियंका पांचों राज्यों में चुनाव प्रचार करेंगी, लेकिन ज्यादा समय वह यूपी में ही बितायेंगी। दूसरी तरफ विरोधियों का कहना है कि कांग्रेस ने भले ही उत्तर प्रदेश के अगले विधानसभा चुनाव के प्रचार में अपने तुरुप के पत्ते प्रियंका गांधी वाड्रा को उतारने का मन बना लिया है,परंतु उसकी मुश्किलें कम नहीं होंगी।

सबसे बड़ी समस्या यही है कि उ0प्र0 में प्रियंका को कांग्रेस का चेहरा बनाया जाए या नहीं इसको लेकर पार्टी के भीतर ही मतभेद है। पार्टी का एक गुट प्रियंका को यूपी कांग्रेस का चेहरा बनाने के लिए हाईकमान पर दबाव बना रहा है तो दूसरी तरफ कांग्रेस में चिंता  इस बात को लेकर भी चल रहा है कि उप्र में ही प्रियंका के करिश्मे को पूरी तरह से दांव पर लगाना कितना फायदे का सौदा रहेगा। अगर 2017 में प्रियंका नहीं चली तो 2019 के लिये कांग्रेस के पास और कोई विकल्प भी नहीं बचेगा। इसीलिये कोशिश यही की जा रही है कि ‘सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे।’ कांग्रेस आलाकमान चाहता है कि प्रियंका के राजनीतिक करिश्मे को बचाए रखकर ही मैदान में उतरा जाये।

कांग्रेसी पिछले चुनावी अनुभवों को देखते हुए सिर्फ राहुल गांधी के सहारे 2019 में नहीं उतरना चाहते हैं। इसी लिये आम चुनाव में कांग्रेसी प्रियंका को पार्टी के लिए अपरिहार्य मान रहे हैं। रणनीतिकारों का कहना है कि उप्र और देश की सियासत की लड़ाई में लौटने के लिए कांग्रेस को कम से कम विधानसभा में 70 से 100 सीटें जीतनी होंगी। उप्र के मौजूदा नेताओं की अगुवाई में इस लक्ष्य तक पहुंचना बेहद कठिन है। अभी तक हाईकमान का रुख यही है कि अगले लोकसभा चुनाव तक प्रियंका की राजनीतिक अपील को बचाए रखते हुए ही उन्हें उप्र के प्रचार में लगाया जाएगा।

कहा तो यह भी जा रहा है कि प्रियंका की चमक को बरकरार रखने के प्रति सजग दस जनपथ प्रियंका का नाम बार-बार मीडिया में उछाले जाने से नाराज है। गांधी परिवार  को लगता है कि इससे सुर्खियां तो मिलती हैं, लेकिन पार्टी की इमेज को नुकसान पहुंचता है। ऐसा संदेश जाता है कि पार्टी किसी फैसले पर नहीं पहुंच पा रही। यही वजह है प्रियंका को पूरी तरह से राजनीति में उतरने और इस बाबत कांग्रेस की तरफ से बड़े ऐलान की खबर आने के बाद भी प्रियंका गांधी की तरफ से यही कहा गया कि अभी कोई अंतिम फैसला नहीं लिया गया है।

कांग्रेस पार्टी के मीडिया इंचार्ज रणदीप सुरजेवाला भी कह रहे हैं कि पार्टी, प्रियंका गांधी को लेकर कोई भी अंतिम फैसले पर पहुंचेगी तो मीडिया को सूचित किया जाएगा। प्रियंका की छवि को लेकर सजग आलाकमान की मंशा को भांप कर उत्तर प्रदेश इकाई के जिस नेता ने प्रियंका गांधी की डेढ सौ रैलियों की बात कही, उसे  मुंह बंद रखने की सलाह दी गई। बात आगे बढ़ाई जाये तो प्रशांत किशोर को पार्टी के रणनीतिकार के तौर पर कांग्रेस लेकर आयी है। गांधी परिवार उनके सुझावों को पूरी अहमियत दे रहा है और उस हिसाब से आगे बढ़ने की कोशिश भी कर रहा है। यहां तक की किशोर को रणनीति बनाने के लिए ‘फ्री हैंड’ भी दिया गया है। पार्टी और गांधी परिवार को चर्चा में बनाए रखने की प्रशांत किशोर की रणनीति से भी दस जनपथ को कोई परेशानी नहीं है। लेकिन इसकी एक लक्ष्मण रेखा होनी चाहिए, इसकी जरूरत भी समझी जा रही है।

प्रियंका को आगे करने से कांग्रेस को फायदे ही फायदे नजर आ रहे हैं, लेकिन कांग्रेस नेतृत्व प्रियंका के पूरी तरह मैदान में उतरने की स्थिति में राबर्ट वाड्रा के विवादित जमीन सौदों की जांच की आड़ में राजनीतिक प्रहार को लेकर भी सतर्क है। वह यह भी नहीं चाहता है कि प्रियंका किसी भी स्थिति में राहुल गांधी का विकल्प नजर आएं। राबर्ट वाड्रा की सियासी महत्वाकांक्षा किसी से छिपी नहीं है और वह कभी भी दस जनपथ के लिये मुश्किल खड़ी कर सकते हैं।

लेखक अजय कुमार लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं. 

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