कृष्ण चन्द्र दहिया
गुजरात के पटेल , मराठे व जाट किसान आरक्षण मांग रहे हैं जबकि इन्होंने 1980 तक कभी भी ऐसी कोई मांग नहीं की थी। इसका कारण ये था कि उस दौर तक विकास का पैमाना रु नही था और समाज का भाईचारा अहम बात थी। भले ही सरकारी पंचायत थी लेकिन हरियाणें में उनकी कीमत ही नहीं थी और लोग स्थानीय भाईचारा पंचायतों से अपने मामले निपटवाते थे। उससे मामले स्थाई रुप से निपटते थे और कोई पैसा नही लगता था। उस दौर में खाप पंचायत दहेज खत्म करने के आन्दोलन चलाती थी। आज सरकारी पंचायत का प्रधान बनने के लिये लोग 10 लाख तक खर्च करते हैं। जाहिर है भला , ईमानदार , मीठा बोलने वाला , निष्पक्ष आदमी तो ऐसे उटपटांग मामले में पडेगा नही? दूसरे अर्थों में गांव में पैसे वाले विकास के नारे लगा कर समाज पर कब्जा करने की कोशिश में हैं।
मैंने सन 1980 तक बलात्कार जैसे शब्द सुने ही नहीं थे। सन 1972 तक मैंने अपने गांव में किसी आदमी को शराब पीये हुये नहीं देखा। तो क्या इसका मतलब हैं कि वे लोग उज्जड और गवांर थे? आज किसान को जो मूल्य मिलता है वो खेती पर किये खर्च से कम है और इसी लिये स्वामीनाथन आयोग बैठाया था। जिसकी सिफारिशें कांग्रेस ने अलमारी में बन्द करके रख दी। बी जे पी ने कहा कि हम स्वामीनाथन की सिफारशें लागू करेंगे लेकिन चुनाव जीतने के बाद उनकी भी ये इच्छा नही रही। अब किसान किस पर भरोसा करें? यानि विश्वास का संकट बन रहा है और किसान के उफनने का कारण ये है।
प्रश्न है कि 1980 से पहले ऐसा क्यों नहीं था? उसका कारण है कि पहले घर में 5 आदमी थे तो उनका सालाना खर्च मामुली था। मेरे पास दसवीं तक हर साल एक ही कुडता पाजामा होता था और मेरी स्कूल की फीस 5 वीं तक एक आन्ना महीना थी। उसके बाद दसवीं तक अठन्नी ही देता रहा हर महिने। आज गांव में लोग उस स्कूल में पढाते है जहां पहली क्लास से नीचे एल के जी आदि में फीस 800 रु से 3000 रु तक है। ये 3600 रु सालाना कहां से आयेंगे? फिर इनके साथ किताब कापीयां भी स्कूल बेचते हैं , कपडे भी बेचते हैं। परिवार में 5 सदस्य हैं तो पाचों के पास मोबाइल फोन है। कुछ बच्चे नेट का खर्च भी देते हैं। ये काम क्या आता है है देहात में? मेरे घरवाली का फोन ही नहीं रूकता। कभी अपनी लडकी से , कभी अपनी भाभी से , कभी अपनी बहन से पूछती है कि आज तूने दाल कौनसी बनाई है। सारी रिश्तेदारी खत्म हो गई। इस फोन को खर्च कहां से आयेगा? मेरे पास कोई सुंसरा फोन ही नही करता क्योंकि सबको पता है ये मूर्ख फोन को चार्ज ही कभी कभी रखता है और फोन बज भी गया तो बोलने की आवाज की जगह घर्र धर्र की आवाज आयेगी। -उपर से बिजली का खर्च , पानी का खर्च , टी वी को रिर्चाज करवाने का खर्च। बिमारी का खर्च। अब बिमार भी ज्यादा होते हैं। जिसे देखों वही अपने को शुगर बता रहा हैं। शहर में तो उनके कुत्ते भी इस बिमारी के शिकार हो रहे हैं। हां तो ये खर्च कहां से आयेंगे? टी वी बताता है हर ऐप्पीसोड में घर ऐसा हो , उसका रंग ऐसा हो , आपकी मोटर साईकल वो हो , टुथ पेस्ट ये हो। अब घर में तरक्की सिखाने वाला बुद्धू बक्शा है तो लोगों पर उसका असर होना ही है और पडोसी को विकास दिखाना ही धर्म हो गया तो सरकार का हाथ मरोडना जरूरी हो गया ताकि सारी उधार खत्म हो और आगे नये सिरे से उधार करेंगे। जब ये आदत तो डाली ही सरकार की नितियों ने फिर अब किसान हाथ किसका मरोडें? कांग्रेसी चले गये सारी उल्टी आदत डालकर अब तो जो आयेगा ना उसे चैन मिलेगा ना किसान चैन से चुप रहेंगे।
जब हम पढते थे तो घर वालों को ये भी पता नहीं था कि मैं कौनसी क्लास में हूं अब मेरी पोती स्कूल से आई जो पढ रही है के जी , वे जी में , तो उसकी दादी ने पूछा कितने नम्बर आये टैस्ट मे? मैंने कहा भाग्यवान तूु स्कूल के पीछे से भी नहीं गुजरी भला क्या करना है तुमने नम्बरों का? बस फिर क्या था कर्फर्यू आडर हो गया। और मेरा ही कोर्ट मार्शल हो गया। तूु 65 साल का हो गया-सारा दिन कम्पूटर चलाता रहता है-कौन देगा बिजली का बिल-क्या करेगा अब पढकर? दर असल गलती मेरी ही हैं। अपनी गलती मान लेना सबसे बडी विद्वता है लेकिन हिन्दूस्तानी हैं तो श्रेष्ठ है और श्रेष्ठ है तो गलती दूसरे की है। ना सरकार को अहसास है कि अनेकों साल से गलती हो रही है ना किसान अपनी गलतीयों को देखेगा।
12.7.17
किसानों के गुस्से के कारण?
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