ओम प्रकाश उनियाल
'पलायन' शब्द पहाड़ के लिए अभिशाप है। राज्य बनने के बाद निरंतर बढ़ते पलायन को थामने में किसी भी सरकार को कामयाबी नहीं मिली। पहाड़ के लोगों को दिवास्वप्न दिखाकर यहां के राजनीतिज्ञ अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं। केवल विकास की गिनती कागजों पर ही करते रहे। पहाड़ों में कृषि, बागवानी को बढ़ावा देने, लघु एवं मध्यम उद्योग लगाने, उच्च व तकनीकी रोजगारपरक शिक्षा उपलब्ध कराने जैसे मुद्दों को लेकर पहाड़ के भोले-भाले लोगों के हाथों में झुनझुना थमाते रहे उसका परिणाम सबके सामने है। गांव खाली होते जा रहे हैं। घर उजाड़, खेत बंजर हो चुके हैं। कुछ गांवों में तो उम्र के आखिरी पड़ाव पर पहुंच चुके बुजुर्ग ही देखने को मिलेंगे।जो अपने पैतृक निवास नहीं छोड़ना चाहते।
वैसे तो पलायन की शुरूआत सन् सत्तर से ही शुरू हो गयी थी। लेकिन साथ-साथ विराम भी लगता रह। क्योंकि, जो पहाड़वासी इससे पहले से दिल्ली, मुंबई, फरीदाबाद, चंडीगढ़, गाजियाबाद, मेरठ आदि क्षेत्रों में रोजगार करते थे। उनमें से ज्यादातर ने धीरे-धीरे अपने ठिकाने यहीं बना लिए। हालांकि पहाड़ के लोगों की संख्या सेना में अधिक रही है। एक समय था जब सेवानिवृति के बाद उन्होंने अपने गांवों की तरफ रुख जरूर किया। मगर आज सेवानिवृत जवान भी यहां से मुख मोड़ने लगे हैं।
राज्य बनने के बाद से तो उत्तराखंडियों में ऐसी होड़ लगी कि पहाड़ के मैदानी क्षेत्रों की तरफ झुकाव बढ़ गया। देहरादून, हरिद्वार, रुड़की, रामनगर, काशीपुर, रुद्रपुर, पंतनगर, हल्द्वानी जैसे शहरों में बसावट करने लगे। ये वे लोग हैं जो आर्थिक तौर पर सक्षम थे पर पहाड़ में नहीं रहना चाह रहे थे। कई तो ऐसे हैं जो अपने गांवों के नजदीकी कस्बों में किराए तक के मकानों पर रहने लगे हैं। इनसे जब गांव छोड़ने का कारण पूछा जाता है तो यही निराशाजनक जवाब मिलता है- 'क्य धरयूं गंवड़ों मा। वख से भलू त् भैर ही ठिक च। कम से कम बाल-बच्चा पैढ़ी-लेखी त् जाला। जनि भी रौला गुजरू कैरी ही ल्यूला।' ऐसे जवाबों से कई सवाल खड़े होते हैं। पहाड़ में विकास की बयार क्यों नहीं फैल रही है। वहां के विकास के लिए जो बजट स्वीकृत होता है।आखिर वह कहां और किस मद में खर्च होता है? ऐसा नहीं कि योजनाएं न बन रहीं हों। सब कुछ है मगर फाइलों तक सीमित। बजट में बंदरबांट। पर्वतीय इलाकों में आपदाएं हर साल आती ही रहती हैं। आंकड़े जुटाए जाएं तो आपदा पीड़ित हमेशा ही दर-दर भटकते रहते हैं। अनियोजित विकास का ढांचा रचना उत्तराखंड के हित में नहीं होगा। जब तक यह परिपाटी चलती रहेगी तब तक हालात बद से बदतर हो जाएंग अब या तो गरीब तबके के लोग येन-केन प्रकारेण वहां रहकर अपना समय गुजार रहे हैं। या फिर बाहरी लोग जो यहां मजदूरी करने के लिए आते हैं।
प्रदेश के वर्तमान मुखिया कभी खेती तो कभी बागवानी को बढ़ावा देकर पलायन रोकने के हल सुझाते हैं। सरकार पलायन आयोग बनाने जा रही है। सरकार के नीति-नियंताओं की क्या सोच है इस बारे कुछ कहना असंभव है। प्रदेश की नैया अब तक घोषणाओं पर ही खिंचती रही है। विकास का दावा ठोकने वाली केंद्र और राज्य सरकार अब क्या बदलाव लाएगी यह तो आने वाला समय ही बताएगा। पहाड़ का सही विकास तो तभी माना जाएगा जब पलायन रोका जाएगा।
ओम प्रकाश उनियाल
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17.7.17
पहाड़ के लिए अभिशाप है 'पलायन'
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