जर्मनी के हेमबर्ग यूनिवर्सिटी में आयोजित ‘द विसडम आफ दी आदिवासी’ विषयक संगोष्ठी में जहां दुनिया के अगल-अलग देशों में समाज की मुख्यधारा से बिलग हो कर रहे आदिवासियों की पारंपरिक ज्ञान, रीती रिवाज, जीवनशैली पर मंथन किया जा रहा था, वहां डॉ. राजाराम त्रिपाठी ने बस्तर के आदिवासियों की आर्थिक सामाजिक स्थिति से लेकर उनके पारंपरिक औषधिय व वनस्पतियों से संबंधित ज्ञान की पुरजोर से दुनिया के सामने रखा. डॉ त्रिपाठी से संगोष्ठी को संबोधित करते हुए कहा कि भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर क्षेत्र की पहचान ही जल-जंगल-जमीन और इसके आदिकाल से संरक्षक आदिवासियों को लेकर है. बस्तर के जंगली क्षेत्र में गांडा, मारिया, मुरिया, गोंड, भतरा, हलबा, परजा, दोरला, बाइसन हार्न मारिया जनजातियां निवास करती है. मानव उत्पत्ति विज्ञान के अनुसार बाइसन हार्न मारिया मानव उत्पत्ति काल की सर्वाधिक पुरानी जनजाति है.
उन्होंने कहा कि जंगलों के बनस्पतियों का उपयोग आदिवासी समुदाय खाद्य के रूप में करते हैं. वे भले ही इसके वैज्ञानिक गुणों से अनजान हो लेकिन यह उनकी पारंपरिक खाद्य-सूची में शामिल रही है, जो प्रमाणित करता है कि आदिकाल में इन बनस्पतियों के गुण-दोष से उनके पूर्वज परिचित थे, उसके बाद पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह ज्ञान हस्तानांतरित होती चली आई है और यह उनकी रोजमर्रा की जिंदगी में कायम है.
आज हम देखते हैं कि कथित सभ्य व शिक्षित समाज कई प्रकार की व्याधियों से पीड़ित है, इसका कारण अनियमित जीवनशैली, खान-पान है, लेकिन आदिवासी प्राकृतिक रूप से वनोपज का मुख्य खाद्य के रूप में सेवन करते हैं. नतीजा, जो आज व्यक्ति की औसत जीवन प्रत्याषा 60 वर्ष है, वहीं आदिवासी समुदाय के लोग 80-90 वर्ष तक जीवन जीते है. इतनी उम्र होने के बावजूद मधुमेह, उच्च रक्तचाप, हृदयाघात, कैंसर जैसी बीमारियों की तो बात ही छोड़ दी जाए, उनके बाल तक इस उम्र में भी काले बने रहते हैं साथ ही दांतों की मजबूती भी बरकरार रहती है.
डॉ त्रिपाठी ने जोर देते हुए कहा कि अब समय आ गया है कि हम जंगलों का विनाश विहिन दोहन करें, कारण कि जंगल धीरे-धीरे खत्म होते जा रहे हैं. ऐसे में जंगलों का विनाश विहिन दोहन ही प्रासंगिक हो गया है.
डॉ त्रिपाठी ने कहा कि केवल आदिवासियों की स्थिति में सुधार लाने के लिए सभा-संगोष्ठी करने अथवा प्राधिकरणों का गठन मात्र ही कारगर उपाय नहीं है बल्कि हमें उनके साथ दोस्ताना संबंध स्थापित कर उनके सामग्रिक विकास की दिशा में कदम उठाना होगा. यह मामला केवल बस्तर के ही आदिवासियों का नहीं है, अमेरिका के रेड इंडियन हो या फिर अफ्रीका के आदिवासी. अगल देखा जाए तो दुनिया भर के आदिवासी जो मुख्यरूप से प्रकृति के साथ लेकिन वे वर्तमान की मुख्यधारा से अलग है. उनका ज्ञान विलुप्त हो रही जनजातियों के साथ ही विलुप्त हो रहे हैं. इनके संरक्षण की दिशा में वैश्विक स्तर पर सरकारों से लेकर सामाजिक संस्थानों तक को संयुक्त रूप से जमीनी प्रयास करने होंगे. आज जब हम जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से पीड़ित है, ऐसे में अदिकांश समस्याओं का समाधान इनसे अर्जित ज्ञान से हो सकता है.
संगोष्ठी में आगत अतिथियों के लिए स्वागत वक्तव्य जर्मनी में भारत के काउंसुल जनरल मदन लाल ने दिया. दिल्ली के एकेडमी आफ लेटर्स के सेंटर फार ओरल एंड ट्राइबल लिटरेचर और टोरंटो की सिमोन फ्रासेर यूनिवर्सिटी की प्रो. अनविता अभी ने बीज वक्तव्य दिया. हेमबर्ग यूनिवर्सिटी के गुंटर स्पीटजिंग, डॉ डेनियल नेफ, महात्मा गांधी इंटरनेशनल हिंदी यूनिवर्सिटी के प्रो. गिरिश्वेर मिश्रा, डॉ उषा शर्मा, बीएचयू के प्रो. आनंद वर्धन शर्मा, डेनमार्क के आर्हूस यूनिवर्सिटी के प्रो. उवे स्कोडा, कवि और सांस्कृतिक कार्यकर्ता जैसिंटा केरकेटा, डचलैंड में आदिवासी को-आर्डिनेटर जॉन लेपिंग, डॉ थिओडोर रैथगेबर ने भी संगोष्ठी को संबोधित किया.
संगोष्ठी में भारत सहित दुनिया भर के आदिवासियों के विकास और विलुप्त हो रही जनजातियों और उनके पारंपरिक ज्ञान के संवंर्धन को लेकर रणनीति बनायी गयी.
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