सपाट और सीधी भाषा में कहें तो "जैसा बोयेगा वैसा काटेगा " अर्थात हम अपने खेत में जो और जिस तरह का बीज बोएँगे उसी तरह की फसल काटेंगे । छोटे से बच्चे को जिस तरह के संस्कार देंगे वो आगे उसी तरह का नागरिक बनेगा। बात अच्छाई की हो या बुराई की उसकी उपज का कोई न कोई आधार जरूर होता है. पिछले कई दिनों से वाहनों के आगे और पीछे लिखी इबारत पर ध्यान दे रहा हूँ . ज्यादातर वाहनों के आगे (चाहे वह ट्रक हो बस या ऑटो अथवा अन्य वाहन ) "बुरी नज़र वाले तेरा मुहं काला लिखा मिला ". वाहनों के पिछले हिस्से में आवाज़ दो , जगह मिलने पर साइड दी जाएगी , ... दी गड्डी जैसी कई पंकितियाँ पढ़ने को मिलीं . बस ट्रक सहित अन्य व्यावसायिक वाहनों के आगे उल्टा जूता भी लटका मिलता है . साथ ही यह भी लिखा रहता है ' बुरी नज़र वाले तेरे लिए ' कुछ वाहनों पर उल्टे जूते का चित्र बना रहता है . एक ट्रक पर लिखा था ' २४ के फूल ८४ की माला बुरी नज़र वाले तेरा मुंह काला ' और भी बहुत सी ऐसी इबारत जो कि उन वाहनों को देखने वाले हर व्यक्ति की नज़र पर एक चांटा होती हैं.क्या समाज के हर व्यक्ति की नज़र ख़राब है ? क्या उसका मुहं काला ही होना चाहिए ? मुझे लगता है इस तरह की इबारत वो बीज है जो कि नज़र और नज़रिया दोनों को बुरा बनाती है. क्यों नहीं हम जूते की जगह गुलाब का फूल लगा देते ? क्यों नहीं देखने वाले को गुलाब , उगता सूरज और खूबसूरत चेहरा दिखाते. इससे उसके ज़हन में ख़राब ख़याल ही न आए. यह बात सिर्फ ट्रक और बसों के लिये ही नहीं है बल्कि सम्पूर्ण समाज के संदर्भ में है. मेरे एक मित्र नें मेरे इस ख़याल पर टिपण्णी करते हुए कहा 'यार ! तू गुलाब की बातें कर रहा है ...गुलाब में भी तो कांटे होते हैं. बात तो सच है , लेकिन जब आप गुलाब का फूल जहन में लाते हैं क्या तब कांटे भी साथ होते हैं ? क्या गुलाब चुनते वक़्त आप कांटे भी चुनते हैं ? गुलदस्ते मैं सजे फूलों में आप कांटे और टहनी देखते है या फूल ? राष्ट्रकवि माखन लाल चतुर्वेदी ने ' पुष्प की अभिलाषा ' को ही केन्द्र में क्यों रखा ? इन सभी बातों का एक टूक जवाब है कि हम जैसा देखेंगे वैसा ही सोचेंगे. आइये हम सब मिल कर चाँद देखें अमावस नहीं , सुनहरी भोर की कल्पना करें , आसमान देखें बादल नहीं और देखें वो सपने जो उर्जा प्रगति और विकास का संचार करते हों . मरुस्थल में दरिया , अमावस में चांदनी , काँटों में फूल और पहाड़ों में रास्ता तो बना ही लेंगे. मुझे जगजीत सिंह की गाई एक ग़ज़ल का शेर याद आता है -
'याद आये तो दिल मुनव्वर हो,
दीद हो जाए तो नज़र महके ! - आशेन्द्र सिंह singh.ashendra@gmail.com
14.1.08
...तो नज़र महके
Labels: ख़याल
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment