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17.8.14

सफलता के लिए गीता अध्ययन करे

सफलता के लिए गीता अध्ययन करे 

श्रीमद भगवत गीता को धार्मिक ग्रन्थ मानकर हम उसे पढ़ते नहीं है जबकि
अन्य विदेशी लेखकों के अपूर्ण ज्ञान की ढेरों किताबें पढ़ लेते हैं। सँस्कृत
साहित्य की घोर उपेक्षा आजादी के बाद हुयी जब देश के ओछे राजनीतिज्ञ
इन शास्त्रों के ज्ञान को केवल हिन्दुओं से जोड़कर देखने लगे जबकि ज्ञान तो
सबका कल्याण करता है पर स्वार्थियों और मूढ़ों को क्या कहे।

संसार का हर मनुष्य सफल होना चाहता है और वह प्रयासरत भी रहता है
परन्तु फिर भी असफल हो जाता है ,क्यों ? इसी प्रश्न का उत्तर श्री कृष्ण गीता
के माध्यम से दे चुके हैं।

कार्य को कैसे शुरू करे 

हम जब भी कोई काम करते हैं तो उसका लक्ष्य जरूर बनाते हैं और उसे प्राप्त
करने का प्रयास भी शुरू करते हैं मगर कुछ दिनों के बाद जब वांछित फल
दिखाई नहीं देता है तो हम विषाद और निराश हो जाते हैं और काम को करने
की गति को कम कर देते है या रोक देते हैं या ध्येय बदल लेते हैं या अन्य लोगों
का अनुसरण करने की कोशिश करते हैं इनका सबका परिणाम शुभ नहीं आता
और अंत में हम पराजय को स्वीकार कर लेते हैं।

  श्री कृष्ण कहते हैं कि हम इस पद्धति को बदल डाले। मनुष्य को अपना लक्ष्य
बहुत सोच समझ कर तय करना चाहिए ,उसका रोडमेप तैयार करे,संभावित
बाधाओं को रेखांकित करे,आवश्यक ज्ञान और उपयोगी सामग्री एकत्रित करे
और उस लक्ष्य को स्थापित कर दें ,लक्ष्य बनाने के बाद लक्ष्य को बदलना
पराजय को वरण करना है या मन में लक्ष्य को पाने में खुद को छोटा समझना
खुद को अयोग्य समझना भी पराजय को स्वीकार करना कहा जायेगा।

हमें लक्ष्य तय करने के बाद अपने मन में संकल्प को मजबूत करना होगा ,यदि
हमारा संकल्प मजबूत होगा ,शंका रहित होगा ,स्पष्ट होगा तो हमारा आत्म विश्वास
मजबुत होता जायेगा। अब हमें लक्ष्य की ओर चलना है और इस मार्ग पर ढेरो
बाधाएं रहेगी। बाधाओं से लड़ने के लिए धीरज चाहिए ,सकारात्मक नजरिया
चाहिये,कर्तव्य को पूरा करने की तत्परता चाहिए अगर हम लक्ष्य की उपेक्षा
कठिनाइयों को देख कर करेंगे तो पराजय और अपयश निश्चित है। श्री कृष्ण
का सन्देश है कि सफलता के मार्ग पर आप हानि और लाभ,जय या पराजय
के बोझ को सिर से उतार कर केवल प्रयास रत रहे ,थोड़ा -थोड़ा ही मगर आगे
बढ़ते जाये ,यहाँ पर आत्महीनता या कुशंका मन में ना लाये। ओलम्पिक दौड़
में सभी मैडल नहीं पाते हैं मगर दौड़ते तो सभी हैं और लक्ष्य को किसी ना किसी
समय में छूते जरूर हैं। अंतिम दौड़वीर को भी हारा हुआ नहीं माने क्योंकि उसने
भी कुछ ज्यादा समय भले ही लिया हो मगर लक्ष्य को छुआ तो है। हमे सफलता
अन्य लोगों के मुकाबले देरी से मिल रही है यह सोच के निराश ना हो बस दौड़
चालू रखे,बंद ना करे ,यह सफलता के लिए पर्याप्त है।

हम प्राय: दौड़ पूरी करके वांछित फल ना पाकर उदास हो जाते हैं और नई दौड़
में भय के कारण भाग नहीं लेते ,यह उदासी ही अकर्म है ,अकर्तव्य है। श्री कृष्ण
यही कहते हैं कि काम को काम की भावना से करो उसको असफलता या सफलता
से तत्काल मत जोड़ो। किसी भी परीक्षा में जब हम असफल हो जाते हैं इसका अर्थ
यह नहीं कि हम अयोग्य हैं ,इसका मतलब यह भी है कि उस परीक्षा के लिए और
अधिक ज्ञान बढाने या मेहनत करने की समय द्वारा माँग है जिसे हमें एकाग्र मन
बुद्धि से पूरा करना है। मन की एकाग्रता ही कार्य कौशल है।कर्म को सावधानी
पूर्वक निरंतर करते रहने से सफलता आती ही है ,शंका का कोई स्थान नहीं है।

श्री कृष्ण कहते हैं कि लक्ष्य के मार्ग पर बढ़ते समय आलस्य ना करे ,स्वामित्व के
दावे के बिना काम करे ,लाभ हानि के पचड़े को छोड़कर काम करें। प्राय:जब भी हम
कोई काम करते हैं तब अहँकार के प्रभाव में आ जाते हैं यह अति आत्म विश्वास
भयावह है ,इससे बचे। सफलता के लिए तीन बातों को छोड़ देना है १. फल की
आसक्ति 2. भय या निराशा 3. क्रोध। इस रोडमेप पर चलकर हम सफल हो सकते
हैं ,बाधाओं से झुंझना सीख सकते हैं ,जीवन रूपी नौका को सहजता से लक्ष्य
तक पहुँचाना सीख सकते हैं।

 
         

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