केपी सिंह-
हाल ही में कोलकता में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दो वयोवृद्ध प्रचारकों की याद में आयोजित कार्यक्रम में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने देश के प्रत्येक हिन्दू का पूरी दुनिया के लिए रोल माडल के रूप में अपने को तराशने का आवाहन पूरे हिन्दू समाज की गौरव ग्रन्थि को छू गया। किसी कोम के चारित्रिक उत्थान में ऐसे उपक्रम का बड़ा योगदान हो सकता है इसलिए संघ प्रमुख का हिन्दू समाज के सकारात्मक मनोबल बढ़ाने का यह तरीका फलदायक है।
वैसे हिन्दू समाज या सनातन समाज की व्यवस्थायें शुरूआती दौर में इतनी उच्च कोटि की रही हैं कि विश्व का कोई भी समाज उनकी सानी नहीं रखता होगा लेकिन समय के साथ हर समाज में उतार चढ़ाव की स्थितियां आना स्वाभाविक है और अतीत में रोल माडल रहा हिन्दू समाज वर्तमान आते-आते तक पतनशीलता की ओर उन्मुख हो गया। संघ प्रमुख के आवाहन से अब एक बार फिर इस समाज को अपने पुराने गौरव के सर्वोच्च सोपान तक पहुंचने की कशिश पैदा होगी लेकिन यह काम आसान नहीं है। इस आदर्श को साकार करने के लिए व्यवहारिक कार्ययोजना होना चाहिए क्या संघ इस हेतु तैयार है।
पूरे विश्व में अग्रणी दर्जा बाहुबल, वैभव और ऐश्वर्य के आधार पर तय होता है लेकिन प्राचीन भारत में समाज में सर्वोच्च दर्जा प्राप्त करना कठिन साधना का पर्याय था। इस स्थान पर विराजमान किये जाने वाले वर्ग को ब्राह्मण की संज्ञा दी जाती थी। ब्राह्मण होने के लिए पवित्र और संयमित जीवन की पराकाष्ठा का व्रत लेना और ज्ञान के शिखर को छूने की हर समय ललक अनिवार्य शर्त थी। संभवतः उस दौर में ब्राह्मण जन्मना नहीं होता था। कड़े अपरिग्रह और त्याग की शर्त के कारण कई बार ब्राह्मण की संताने भी इस वर्ग में पहुंचने से कतरा जाती थी।
ऐसे व्रतधारी ब्राह्मणों को कई विशेषाधिकार सहित किसी भी तरह के दंड से मुक्ति का अधिकार प्राप्त था। राजाओं की सभा में जब कोई ब्राह्मण सदस्य होता था तो बजाय इसके कि राजा के उपस्थित होने पर वह अन्य सभासदों की तरह खड़ा होकर उनका अभिवादन करे, ब्राह्मण सभासद के पहुंचने पर राजा स्वयं खड़ा होकर उनका आदर करता था।
त्याग पुरूष होने के नाते ब्राह्मणों को समाज के उस समय के संविधान के नियमन की निगरानी का अधिकार दिया गया था। इस कारण वे बिना भय के राजा का प्रतिवाद कर सकते थे उसकी किसी उदघोषणा को पलट देने तक का अधिकार रखते थे। सोचिये अगर आज की न्यायिक व्यवस्था में इस परंपरा का अनुशीलन किया जाये तो कितना परिवर्तन आ सकता है। नाममात्र के वेतन में संपत्ति के संचय से परे रहने की बंदिश को मानने वाले विद्वान अगर न्यायधीश नियुक्त हों तो न्याय व्यवस्था के रंग ढ़ंग ही कुछ और हो जायें। क्या किसी समाज में ऐसी व्यवस्था की कल्पना दुनिया में और कहीं की गई होगी, शायद नहीं। क्या तत्कालीन ब्राह्मण पूरी दुनिया के लिए रोल माडल नहीं रहे होंगे।
पर ऐसी व्यवस्था के लिए सत्ता के पोषण की बजाय उस पर अंकुश का साहस दिखाना आवश्यक है। संघ की विवशता है कि भाजपा की अपनी मानस संतान सत्ता के नियमन के लिए उसका मोह नहीं छूट सकता। संघ प्रमुख त्यागी हो सकते हैं लेकिन गांव से लेकर देश की राजधानी के स्तर तक ज्यादातर संघ के लोग सत्ता मिलते ही मतवाले हो गये हैं। उनके जीवन में सुख साधन का ढ़ेर नैतिक अनैतिक हर तरीके से लग गया है। संघ उन पर नियंत्रण नहीं कर पा रहा तो भाजपा के मंत्री, सांसद और विधायकों पर नियंत्रण की इच्छा शक्ति कैसे दिखा पाये। संघ के अनुशासन की कसम खाने वाले नगरीय निकाय और पंचायतों के जन प्रतिनिधि भी इसमें पीछे नहीं हैं। किसी की जुवान पर समाज का कोई जोर नहीं है इसलिए कहने को तो संघ और भाजपा के कर्ताधर्ता कह सकते हैं कि दूसरी पार्टियों के लोग सत्ता का दोहन करके मालामाल होने की होड़ में लगे रहते थे लेकिन हमारे कार्यकर्ता ऐसे नहीं हैं। वे तो हरिशचन्द्र के अवतार हैं लेकिन ऐसी लफ्फाजियों से हकीकत पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। भाजपा की सत्ता आने के बाद उनकी हैसियत वैभव में जो उछाल आया है वह अकूत है जो किसी से छिपा नहीं है।
संघ से अपेक्षा यह की गई थी कि भारतीय संस्कृति के मर्म को समझते हुए वह देश के प्राचीन ब्राह्मण कैडर की तरह सत्ता को चाहे वो अपनी क्यों न हो उसकी विपथगामिता पर लताड़ने का साहस दिखायेगा। उत्तर प्रदेश का ही उदाहरण ले तो जब यहां योगी मुख्यमंत्री बने ही बने थे वृन्दावन में भाजपा, संघ की समन्वय बैठक हुई थी जिसमें पार्टी के विधायकों द्वारा पहले ही दिन से लूट खसोट में लग जाने पर संघ के लोगों ने आपत्ति जताई थी तो मुख्यमंत्री ने आश्वासन दिया था कि इस मामले में वे विधायकों को अनुशासित करेंगे लेकिन ऐसा न करके सत्ता की मलाई में संघ के लोगों को भी भागीदार बनाकर नेतृत्व ने अपनी बचत कर ली।
नैतिकता की परीक्षा तो अवसर पर ही होती है। जब तक अवसर न हो हर आदमी अपने ईमानदार होने की डींगे हांकता है। संघ नेतृत्व अपने अनुयायियों को संस्कारों की घुट्टी पिलाता रहा है। लेकिन लगता है कि संस्कारों की उसकी पाठशाला खोखली थी इसलिए सत्ता मिलने के बाद उसके वास्तविक आचरण में जो विचलन देखने को मिल रहा है उसे रोकने के लिए संघ कोई कठोरता नहीं दिखा पा रहा है जो अफसोस का विषय है।
संघ की राष्ट्र के प्रति निष्ठा संदेह से परे है। लेकिन राष्ट्रभक्ति अमूर्त नहीं होती। देश और समाज के प्रति लोगों के जो कर्तव्य हैं अगर उनके निर्वाह का संकल्प उनके आचरण में नहीं है तो उनका आचरण राष्ट्र के प्रति विश्वासघात होगा। लोगों को भ्रष्ट आचरण की छूट से यही हो रहा है। भ्रष्टाचार के वैश्विक सूचकांक में भारत कितने निचले पायदान पर है यह बताने की जरूरत नहीं है। जीडीपी की चिंता के साथ-साथ इसकी भी चिंता की जानी चाहिए। देश और समाज के लिए सर्वोच्च बलिदान तक में न हिचकने की दुहाई देने वाले संघ के कर्ताधर्ता अपनी सत्ता आने के बाद भी इस मामले में निरूपाय क्यों बने हुए हैं यह विचारणीय है।
संघ को अगर सचमुच समाज परिवर्तन करना है तो विराग प्रवृत्ति का परिचय देने की बजाय पुरूषार्थ का परिचय देना होगा और बुद्धि विलास व वाक विलास से आगे जाकर हस्तक्षेपकारी भूमिका दिखानी होगी। भाजपा की सरकार में संघ की वही भूमिका है जो सतयुगीन भारत मंे ब्राह्मण कैडर की थी लेकिन ब्राह्मण कैडर अपनी कृपापात्र सत्ता की खबर लेने में कतई नहीं चूकता था जैसे आज संघ चूक रहा है।
संघ को इस मामले में अपनी गिरेबान में झांकना होगा और कम से कम भाजपा के संगठन मंत्रियों से लेकर संघ से निचले स्तर तक जुड़े जिम्मेदारों को पाबंद करना होगा कि वे न केवल सादगी और त्याग के जीवन को जीने की शपथ लें वरन लोगों को यह प्रदर्शित भी करें कि वे सचमुच ऐसा कर रहे हैं। भोग के दर्शन में यकीन रखने वाले पहले के सत्ता दलों के नेताओं की तरह आज के संघ के कृपा पात्र सत्ताधारी भी शादी, विवाह, बच्चों के जन्मदिन और मुंडन आदि कार्यक्रमों में भारी तामझााम दिखाते हैं तो दुनिया के लिए रोल माडल कैसे बन सकते। सही बात यह है कि फिजूल खर्ची हराम की दौलत होने पर ही संभव है। मेहनत और ईमानदारी की कमाई से नहीं इसलिए अगर भाजपा व संघ के लोगों के यहां विवाह समारोह और त्रयोदशी आदि कार्यक्रमों में हजारों लोगों को भोजन कराया जाता है तो मतलब साफ है।
लोकतंत्र की व्यवस्था क्यों अपनाई गई है ताकि कुछ-कुछ समय के अंतराल पर सत्ता के नये-नये विकल्प अपनाकर सटीक व्यवस्था की मंजिल प्राप्त की जा सके। अगर सटीक व्यवस्था की मंजिल मिल जाये जिसके कर्ताधर्ता वंशवाद से दूरी बना चुके हों तो हर पांच वर्ष में चुनाव कराने की बाध्यता को टाला जा सकता है। इसलिए भाजपा पर यह आरोप लग रहा है कि वह लोकतंत्र को खत्म करने की कोशिश कर रही है तो यह प्रासंगिक और जायज बन सकता है अगर उसकी सत्ता द्वारा संघ के घोषित उद्देश्यों के अनुरूप हो।
तब तो आदर्श व्यवस्था को स्थायी करने के लिए भाजपा को लंबे समय तक सत्ता में बने रहने का वरदान औचित्यपूर्ण ही रहेगा लेकिन आज तो लोग यह मान रहे हैं कि पिछली सरकारों और वर्तमान सरकार की नीतियों व नीयत में कोई अंतर नहीं है। इससे तो बेहतर भौतिकतावादी पश्चिमी देश हैं जहां काफी हद तक नियम कानून के अनुसार काम होते हैं और हर तरह के अनुशासन के पालन के लिए नागरिक प्रतिबद्ध रहते हैं। जहां संपन्न लोग गरीबों की तकलीफों को बटाने में सहयोग के लिए कल्याणकारी कामों को प्रवृत्त रहते हैं। कोई देश विकास दर और जीडीपी बढ़ाने से महान नहीं बनता इसके लिए जरूरी है कि वहां के समाज का चरित्र उत्कृष्ट हो। पश्चिम में भारतीयों के लिए संस्कारों की कोई पाठशाला नहीं लगती लेकिन वही भारतीय जो अपने देश में आगे जाने के लिए हर कानून और नैतिकता को धता बताने को लालायित रहते हैं वही विदेश में रहने वाले भारतीय उच्च संस्कारों के कारण निष्ठापूर्वक दायित्व निभाने के गुण को प्रदर्शित कर रहे हैं। बहरहाल संघ प्रमुख ने जो कहा उसके लिए उनके मुंह में घी शक्कर बशर्ते उनका उदबोधन भाषणों का अलंकार मात्र न हो बल्कि लोगों के जीवन में ऐसे संकल्प को उतारने की कटिबद्धता भी दिखाने के लिए वे तत्पर हों।
K.P.Singh
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1 comment:
Achchi bakwaas hai, jo sangh khud hi Mansa wacha karmna ke prachin bhartiy sanskaar ko apnaanit karta aaya h, uske in bolo pe to yhi kaha ja sakta hai, nau sau chuhe khaskar billi haz ko chali....
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