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10.5.23

आने वाले 50 से 100 वर्षों में पृथ्वी पर जीवन ही नहीं बचेगा!

राजीव थेपड़ा-

पर्यावरण की दुर्दशा और हमारी मासूमियत... हममें से ऐसा कोई नहीं, जो इस पर्यावरण की दुर्दशा से हैरान और परेशान नहीं । लेकिन  हैरान जिस बात से सबको होना चाहिए, उस पर कोई भी हैरान नहीं । बरसों से पर्यावरण पर आए संकट पर सभी रोना रोते हैं। लेकिन उस संकट का कारण कोई भी स्वयं को नहीं मानता, अपितु सब दूसरों पर दोषारोपण करते हैं ।  एक बहुत छोटी सी बात करना चाहता हूं मैं, यदि इसे कोई उसी रूप में समझ ले, जिस रूप में मैं इसे कहना चाह रहा हूं, तो पर्यावरण के संकट की जिम्मेवारी उसी क्षण हम सब ऊपर, हरेक व्यक्ति पर आ जाती है।


सबसे पहले तो यह बात समझी जाए कि पर्यावरण का यह संकट केवल और केवल हमारी अंतहीन भूख के कारण पैदा हुआ है और जैसे-जैसे हमारी यह भूख बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे यह पर्यावरण का संकट बढ़ता जाता है और यह शीघ्र ही हमें पूरी तरह से लील लेगा। क्योंकि हमारी कुकर्मों की वजह से यह पृथ्वी नष्ट हो जाने वाली है और यह कोई  खामखयाली नहीं है, यह कोई कपोल कल्पना नहीं है। आने वाले 50 से 100 वर्षों में पृथ्वी पर जीवन ही नहीं बचेगा। लेकिन इसके जिम्मेवार हम सबों में से किसी में इसका एहसास तक नहीं होगा कि इस संकट में हममें से प्रत्येक की हिस्सेदारी है और जिम्मेवारी है।

तो इसके लिए सबसे पहले यह बात समझ ली जाए कि पर्यावरण और उपभोग एक दूसरे से अन्योन्याश्रित रूप से जुड़े हुए हैं। जब तक इस बात को हम नहीं समझते हैं, तब तक पर्यावरण के बारे में कोई भी बात करना पूरी तरह से मूर्खता है और यह मूर्खता भरी मासूमियत हमें और भी बड़े संकट में डालती चली जाती है। हर वह चीज, जिसे हम उपयोग में लाते हैं। चाहे वह भौतिक चीज हो, चाहे वह ऊर्जा के रूप में बिजली हो । चाहे मोबाइल हो ।  चाहे इंटरनेट हो ।  चाहे कंप्यूटर हो ।  चाहे हमारे द्वारा घरों में और कार्यालयों में बिजली के द्वारा चलाए जा रहे समस्त साधन हों। यानी ऐसी कोई भी वस्तु, जो ऊर्जा के द्वारा बनती है और ऊर्जा के प्रवाह के द्वारा ही चलती है, वह पर्यावरण के संकट का एक निर्बाध कारण है।

हमारे द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली प्रत्येक वस्तु कहीं ना कहीं पैदा होती है, वहां से चलकर ट्रांसपोर्टिंग द्वारा बाजार तक पहुंचती है और बाजार से विभिन्न तरह की पैकिंग के रूप में हमारे पास भी पहुंचती है। किसी भी चीज के बनने की प्रक्रिया धरती के दोहन और खनन से शुरू होती हुई उस खनन की सामग्री के विभिन्न फैक्ट्रियों तक पहुंचने, फिर उस फैक्ट्रियों में उन सामग्रियों द्वारा उन वस्तुओं के बनने, फिर पुन: उनकी पैकिंग होने, फिर उनको तैयार होकर बोरे में या कार्टून में डालकर संसार के विभिन्न बाजारों की विभिन्न दुकानों में पहुंचने और फिर वहां एक बार पुनः पैक होकर रिटेल दुकानदारों तक पहुंचने और फिर वहां पहुंचकर हम तक पहुंचने की प्रक्रिया के प्रत्येक चरण में ट्रांसपोर्टिंग, ढुलाई और ऊर्जा का क्षय व्यापक तौर पर होता है और जितना ज्यादा उपभोग हम करते जाते हैं, उतना ही पर्यावरण पर का क्षय भी होता चला जाता है। लेकिन हमें कभी भी इस बात का एहसास ही नहीं होता, क्योंकि यह हम कल्पना ही नहीं कर सकते कि चीजें कैसे और कहां से बनना शुरू होती हैं। उसका "ओर" कहां है! हम सिर्फ उन चीजों के इस्तेमाल करने के एक "छोर" भर हैं! लेकिन उस ओर से इस छोर तक की एक व्यापक प्रक्रिया में क्या कुछ घट रहा है, कितना कुछ घट रहा है, इसके बारे में हमें तनिक भी नहीं पता होता।

जरा कल्पना कीजिए कि आपके द्वारा कोई भी एक वस्तु, चाहे वह आलपिन ही क्यों ना हो (लेकिन आलपिन तो अब हम कम इस्तेमाल करते हैं! हमारे द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली समस्त चीजों पर हम अपने आसपास नजर दौड़ा लें, चाहे वह निर्जीव वस्तुएं ही क्यूँ ना हों, चाहे वह हमारे द्वारा इस्तेमाल में लाए जाने वाला फर्नीचर हो, चाहे कुछ भी क्यों ना हो। हर एक चीज धरती के दोहन से ही शुरू होती है। उस दोहन में होने वाला पर्यावरण का नाश! उसके पश्चात वहां से ट्रेन या ट्रक में लादकर किसी भी फैक्ट्री तक पहुंचने में हुआ ट्रांसपोर्टिंग के द्वारा हुआ पर्यावरण का नाश! उसके पश्चात फैक्ट्रियों में बनने के दौरान होता पर्यावरण का नाश और उन फैक्ट्रियों की मशीनें भी किसी न किसी कारखाने से बनकर निकली है, उससे होता पर्यावरण का नाश! उस फैक्ट्री में पैकिंग किए जाने वाली समस्त सामग्रियों के बनने में भी पर्यावरण का उतना ही नाश है! फिर उन पैक हुए सामान का बाजार तक पहुंचने में होता ट्रांसपोर्टिंग ढुलाई के दौरान पर्यावरण का नाश और उसके पश्चात होलसेल दुकानदारों से लेकर रिटेल दुकानदारों तक पहुंचना और फिर उसका खरीदने के लिए हमारे द्वारा बाजार जाना और उसे लेकर घर तक आना, इनमें से हर एक प्रक्रिया में पर्यावरण का संकट हर चरण पर प्रवाहित होता है और इन समस्त चरणों में की जाने वाली बिजली की खपत भी पर्यावरण के संकट की उतनी ही जिम्मेदार है और यहाँ तक कि बिजली बनाए जाने में भी पर्यावरण नष्ट होता है। और कोई भी ऐसी चीज जिसके बारे में हम समझ रहे हैं कि यह पर्यावरण के संकट को कम करने में मददगार साबित होगी, उसमें भी वही उर्जा लग रही है, वही साधन लग रहे हैं, जो पर्यावरण के संकट में बराबर सहायक हैं।

इन दिनों बैटरीचालित गाड़ी का बड़ा जोर-शोर हो रहा है कि इससे पर्यावरण का संकट कम होगा। लेकिन बैटरीचालित गाड़ी के प्रत्येक हिस्से को बनने में भी वही उर्जा, उन्हीं वस्तुओं का इस्तेमाल होना है और सबसे बड़ा संकट उनसे जुड़ी हुई बैटरियों का है, जिन्हें नष्ट करने का अभी तक कोई उपाय नहीं सोचा गया है। तो तनिक रुककर उन बैटरियों के अंबार की कल्पना कीजिए, तो आपको जल्द ही उन इलेक्ट्रिक गाड़ियों से द्वारा होने वाला संकट भी दिखाई देने लग जाएगा। अलबत्ता उनके चलने के दौरान पैदा होने वाले धुएँ से तो एकबारगी अवश्य मुक्ति मिलेगी और यह बात हो सकता है कि हम सब के लिए तनिक राहत की बात हो। लेकिन कुल मिलाकर उन बैटरियों के निर्माण से लेकर उनके इस्तेमाल और उनके नष्ट होने तक की प्रक्रिया भी पर्यावरण के संकट में उतने ही बड़ा सहायक बनने वाली है।

तो इस संकट से कैसे बचा जा सकता है, इसके बारे में हमने कभी सोचा ही नहीं है। इसे बचने का एक ही तरीका है कि हम साधनों का, किसी भी साधन का कम से कम उपयोग करें। अपनी जरूरतों को घटाएं, तभी इसका इस संकट को किसी हद तक कम किया जा सकता है। किंतु तुर्रा यह है कि हम सब यह सोचते हैं कि हम अपने कमाए हुए पैसों से सभी चीज खरीदते हैं, हमें रोकने की ज़ुर्रत किसको है? हमें रोकने का साहस किसको है? मैं चाहे ये करुं, मैं चाहे वो करुं मेरी मर्जी!! इस तर्ज पर चलता हुआ मानव समाज क्या कभी किसी पर्यावरण के संकट को कम कर सकता है? मेरे हिसाब से किसी भी हालत में नहीं! तो फिर तनिक भी देर नहीं करते हुए अभी से हमारी वर्तमान एवम अगली पीढ़ी को इस बात का ध्यान दिलाया जाना बहुत जरूरी है कि वह अनावश्यक चीजों के उपभोग से बचे और किसी भी वस्तु या साधन या ऊर्जा अनावश्यक उपयोग अथवा उनकी बर्बादी के प्रति सजग रहते हुए भी पर्यावरण के संकट को कम करने में अपनी भूमिका का उचितरूपेण निर्वाह कर सकते हैं। कुल मिलाकर हमारी सजगता ही हमें दिशा दिखा सकती है और हमारी संवेदनशीलता ही हमें भटके हुए रास्ते से वापस लौटा सकती है।


यह धरती तुम्हारी है ,तुम को तय करना है
इसे कैसे अपने चुंगल में बनाए रखो तुम
किस को जीने देना है और किस को मार डालना
यह भी तुम्हें ही तय करना है !
कौन सा धर्म श्रेष्ठ है और कौन सा नकारा
इस बात के लिए तुम्हें लड़ते ही रहना है !
अपनी जीभ के स्वाद के लिए
बेजुबान जानवरों को मार देना है
किसको जीने देना है और किसको मार डालना
यह तो सिर्फ तुम ही ने तय करना है
जबसे हुए हो तुम,अपनी मर्जी से तय करते रहे हो
अपने अलावा दूसरे जीवों का मरना और जीना !!
किसने दिया यह अधिकार तुम्हें,यह कोई नहीं जानता
लेकिन तुम ने समझ लिया खुद को धरती का
एकमात्र प्रभुसत्ता संपन्न प्राणी खुद को
यह धरती तुम्हारे बाप की न थी
यह धरती तुम्हारे दादा परदादा की न थी
तुम्हारा हर पूर्वज यहां आया है मेहमान की तरह
इसी धरती का खा-पहन और ओढ़कर चला गया है इस जहां से
 लेकिन इस बीच न जाने कितने धतकर्म किए हैं हम सबने
मुझे मालूम नहीं कि यह धरती को अच्छा भी लगता है या नहीं
लेकिन मैं हर रोज धरती को इसकी तनहाई में
इसके रुदन को महसूस करता हूँ,पल-पल
यह धरती है जो तुम्हारी मां की तरह
किस तरह इस बेज़ुबाँ को भी तुमने अपने
मज़बूत और क्रूर अंकुश में धर दबोचा है !!
जैसे धरती नहीं हो ,यह कोई एक निरीह स्त्री हो !!
यह धरती,जिसकी नदियों को ,जिसके समंदर को
जिसके आसमां तक की हर चीज को
कुचला है तुमने अपने पैरों तले अपनी इच्छाओं तले
अपने द्वारा भोगे जाने की खातिर हर चीज को रौंदा है तुमने
धरती को पाताल तक खंगालकर बिल्कुल नंगा कर डाला है इसे
और धरती की सतह को इतना गंदा कर दिया है तुमने
कि जीने लायक भी नहीं बची है ये और ना मरने लायक !!
अपनी जिन संतानों से इतना प्रेम करते हैं हम
उनके लिए न जाने कौन सी धरती छोड़कर जा रहे हैं !!
हम तो यह तक नहीं जानते कि उनका क्या होगा !!
किस तरह जीएंगे वो याकि मरते-मरते एक दिन मर जाएंगे !!
यह धरती ; कि किस तरह इसको स्वर्ग से सुंदर बनाए हुए रखें
हम ना तय कर पाए यह तक कभी
और आज हमने इसको बना डाला है नरक से भी बदतर !!
इतना बदतर कि नरक कहते ही धरती का एहसास होता है !!
नरक के लिए अब हमें किसी जहन्नुम में जाने की जरूरत भी नहीं
वो तो स्वयम् अपनी धरती को ही हमने बना रखा है ।

राजीव थेपड़ा
रांची, झारखंड

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