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1.1.08

अबूझ पहेली, पत्रकारिता हुआ धराशायी !

पिछले साल, हां मैं इसे पिछले साल ही कहूँगा कि तमाम भडासी और ब्लॉगर के साथ ब्लॉग पाठक से एक पहेली पूछी थी, तमाम पत्रकार और पत्रकारिता के भीष्म ब्लॉग पढ़ते हैं सो कहने की बात नही कि ये प्रश्न सबसे पहले इन्ही पत्रकारिता के पैरोकार से था जो नि:शब्द कि भांति लाला जी की दूकान के माप तौल करने वाले छोकरे से ज्यादा नही हैं।


जरा फ़िर से गौर से देखिये इन महाशय को और कोशिश कीजिये पहचानने की, नही पहचाना ना........... पहचानेंगे भी नही क्यूँकी लाला जी की पट्टी आंखों पर बंधी है और लाला जी कि हिदायत भी कि इसे मत पहचानो, पहचाना तो पत्रकारिता छोरनी होगी और नि:संदेह हमारे देश में पत्रकारिता तो कोई करता ही नही, व्यवसायिक संस्थान से व्यावसायिकता जो सीख कर आए हैं।

ये महाशय सेना में थे और सेना में लडाई भी लड़ी, फ़िर कानून पढा और बन गए कानूनविद। काबिलियत के बूते न्यायालय के न्यायधीश भी और निष्ठा कानून के साथ न्याय व्यवस्था में के साथ सीमा पर लड़े गए लड़ाई के बाद कानून में शामिल हो कर कानून के विभीषणों के ख़िलाफ़ छेडी एलाने जंग।

आगरा में ये महाशय जज थे जब अपने वरिष्ठ से अधिकार के लिए लड़ बैठे, और अधिकार के लिए लड़ना इन्हें इतना महंगा पड़ा कि देश का सबसे भ्रष्टतम जुड़ीसियरी के अनैतिकता का एक अचूक उदाहरण बन गया। जस्टिस आनंद सिंह को पाँच साल के लिए सपरिवार सलाखों के पीछे डाल दिया गया मगर मीडिया आँख मूंद कर बम के धमाके और हिंदू मुसलमान के वैमनष्यता का बीज रोपता रहा, पॉँच साल बाद जब आनद सिंह जीत के साथ वापस आए तो जुड़ीसियरी के ख़िलाफ़ जंगे जेहाद यानी कि इन्साफ कि लड़ाई छेड़ दी मगर यहाँ भी जुड़ीसियारी की गंदगी ने इन्साफ के सारे रास्ते बंद कर दिया और इन्साफ के मन्दिर यानी की उच्चतम न्यायालय में जस्टिस साहब को प्रवेश ही नही करने दिया गया।

आज भी जस्टिस आनंद सिंह का परिवार इन्साफ के लिए, कानून के लिए, न्याय के लिए लड़ रहा है भले ही फांके की हालत क्योँ न हो मगर लड़ाई जारी है, मगर हमारे देश के अंधे गूंगे और बहरे पत्रकारिता से कोसो दूर क्यूँकी पत्रकारिता के दूकान के छोकरे अभी भी लाला जी के कहे अनुसार बम के धमाके और हिंदू मुसलमान के नाम के वाट जो तौल रहे हैं।

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