लेखक – नरेश मिश्र
जंगल का राजा शेर शिकार को पेट के हवाले करने के बाद अपनी मांद की ओर जा रहा था । रास्ते में एक नौजवान जिद्दी, गुस्सैल बनैला सुअर मिल गया ।
सुअर ने शेर को ललकारा “तुम जंगल के राजा कहलाते हो अगर ताकत है तो मुझसे लड़ कर राजा होने का दावा साबित करो ।”
शेर का पेट भरा था । उसे नींद सता रही थी । उसने कहा “भाई ! अपने रास्ते जाओ । मुझे तुमसे नहीं लड़ना है ।”
बनैला गुर्राया “तुम डर गये । अपने से ज्यादा ताकतवर जानवर से पाला पड़ता है तो तुम्हारी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती है ।"
शेर ने अपना पिण्ड छुड़ाते हुये कहा “यही समझ लो । अब मुझे अपने रास्ते जाने दो ।”
बनैला छूटते ही बोला “मैं तुम्हें आसानी से छोड़ने वाला नहीं । या तो तुम हार मानलो या फिर मेरा मुकाबला करो ।"
शेर ने जवाब दिया “मुझसे लड़ना ही चाहते हो तो किसी और दिन आना मैं तुम्हारी यह इच्छा भी पूरी कर दूंगा ।"
बनैला ललकारते हुये बोला “ठीक है । आज तो तुम्हें छोड़ देता हूँ । अगले हफ्ते इसी दिन, इसी जगह मिलना । फैसला हो जायेगा कि जंगल का राजा कौन है ।"
एक हफ्ते बाद भूखा, गुस्साया
शेर उसी जगह चट्टान पर खड़ा बनैले की राह देख रहा था । बनैला ठीक वक्त पर
झाड़ी से निकल कर सामने आया । उसे देखते ही शेर का गुस्सा सातवें आसमान पर
पहुंच गया । उसने दहाड़ मारी तो बनैला डर से थर थर कांपने लगा । उसके होश
उड़ गये । शेर उसकी ओर लपका तो बनैला जान बचाने के लिये जंगल की ओर झाड़़ी
फलांगता भाग खड़ा हुआ । शेर उसका पीछा छोड़ने वाला नहीं था ।
बनैला पहाड़ की चोटी पर चढ़ गया । नीचे एक बहुत बड़ा गड्ढा था। वनवासी साधु
संत उसमें मल-मूत्र त्याग करते थे । बनैला उस गड्ढे में कूद पड़ा और चुनौती
के स्वर में चीखने लगा “हिम्मत है तो आ जाओ, मैं तुमसे निपट लूंगा ।"
शेर की ऑंखे फटी की फटी रह गयीं । उसने कहा “जिस नीचता के दलदल में तुम खड़े हो वहॉं मैं नहीं आ सकता । तुम जीत गये मैं चला ।"
जातक की यह कहानी चुनावी जंग में मुल्क को राह दिखाती है, सबक देती है । झूठ, घमण्ड, आरोप-प्रत्यारोप, घटिया जबान, तरह-
तरह के नाटक नौटंकी और सेकुलर पाखण्ड का यह बदबूदार गड्ढा राजनीति के
रणक्षेत्र में कूदने वाले खास नेता और उसके सहयोगियों क पनाहगाह है ।
विकासपरक राजनीति, सुशासन और सबको खुशहाली देने की चिंता करने वाला कोयी शेरदिल नेता इस बदबूदार, बदनुमा
गड्ढा में उतर कर खास तरह के सियासी प्राणियों को चुनौती नहीं दे सकता ।
माना की झूठ का घटाटोप अंधेरा वोटरों को सही राह नहीं देखने देता लेकिन हर
अंधेरी रात की सुबह जरूर होती है । सूरज निकलता है तो सारे सियासी चमगादड़
अंधेरे की तलाश करते हुये किसी कंदरा में उलटे लटक जाते हैं ।
सभी चित्र : साभार फेसबुक
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