20 मई,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,बात चाहे खेल की हो या
राजनीति की जब भी कोई टीम या पार्टी हारती है तो उससे यही अपेक्षा की जाती
है कि वह हार के कारणों की समीक्षा करेगी और कारणों को समझकर उसे दूर करने
के प्रयास करेगी। मगर लगता है कि हमारे देश की विपक्षी पार्टियाँ करारी हार
के बावजूद यह समझ नहीं पा रही है या फिर समझना चाहती ही नहीं है कि जनता
ने मतदान द्वारा क्या संदेश दिया है। अगर वे इसी तरह से नादानी करते रहे तो
हमें कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर निकट-भविष्य में विधानसभा चुनावों में भी
उनको सिर्फ पराजय और निराशा ही हाथ लगे।
मित्रों,कांग्रेस पार्टी का कहना है कि उसकी नीतियाँ तो अच्छी थीं लेकिन भाजपा ने दस हजार करोड़ के प्रचार-बजट से उनको मात दे दी। पता नहीं कांग्रेस वो कौन-सी नीति की बात कर रही है जो अच्छी थीं। क्या उनकी कोयला नीति सही थी,स्पेक्ट्रम नीति अच्छी थी,रक्षा खरीद नीति बेहतरीन थी? वे आजादी के 70 साल बाद आधी रोटी और पूरी रोटी की बात करते हैं और फिर भी अपनी नीतियों पर शर्मिंदा नहीं होते जबकि 70 सालों में 60 सालों तक उनका ही शासन रहा है। उन्होंने सूचना का अधिकार तो दे दिया लेकिन सूचनाएँ दी क्या? जब भी किसी ने राबर्ट वाड्रा से संबंधित जानकारी मांगी तो बहाना करके टाल दिया। लोग इस अपीलीय अधिकारी से उस अपीलीय अधिकारी के यहाँ चक्कर काटते रहते हैं लेकिन राज्य सरकारों का तंत्र सूचना नहीं देता। फिर कैसा सूचना का अधिकार,कौन सा सूचना का अधिकार? केंद्र में शिक्षा का अधिकार तो कागज पर दे दिया लेकिन देश के किसी भी गरीब-भुक्खड़ के बच्चों को इससे कोई लाभ हुआ क्या? फिर यह कैसा अधिकार है जो वास्तव में है ही नहीं?! भारत की जनता को केंद्र सरकार द्वारा भिखारी मान लिया जाना क्या अच्छी नीति कही जा सकती है? यह मुफ्त वह मुफ्त लेकिन रोजगार नहीं देंगे। केंद्र सरकार ने महंगाई को नियंत्रित करने के लिए क्या किया? कौन-सी नीति अपनाई? क्या देश को जानलेवा महंगाई की आग में झोंक देना उसकी अच्छी नीति थी? कल जब कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक थी तो उम्मीद की जा रही थी कि उसमें हार के कारणों की गहराई और विस्तार से समीक्षा की जाएगी और जरूरी कदम उठाएंगे। मगर हुआ क्या माँ-बेटे ने इस्तीफा दिया,कार्यसमिति ने पूर्वलिखित नाटक की तरह नामंजूर कर दिया और कर्त्तव्यों की इतिश्री हो गई।
मित्रों,हमारे विपक्षी दल अभी भी एक-दूसरे के सिर पर हार का ठीकरा फोड़ने में लगे हैं और अपने गिरेबान में झाँक नहीं रहे हैं। समाजवादी पार्टी कहती है कि हम कांग्रेस के कारण हारे जबकि जबसे यह पार्टी उत्तर प्रदेश में सत्ता में आई है तबसे उसने ऐसा कोई भी एक काम नहीं किया है जिससे जनता को अपनी सरकार पर गर्व हो। अभी कल ही उसके मंत्री आजम खान आधी रात में अपने गुर्गों को छुड़वाने के लिए रामपुर जिले के अजीमनगर थाने पर जा धमकते हैं। उनके पूरे गृह जिले रामपुर में किसान नलकूपों को बिजली नहीं मिलने से परेशान हैं मगर उनकी समस्याओं की ओर मंत्रीजी की निगाह नहीं जाती उनका पूरा ध्यान अपने गुंडों को बचाने पर रहता है। पार्टी की बैठक में जनता की समस्याओं और उनके विकास पर चर्चा नहीं होती बल्कि इस बात पर बहस की जाती है कि किस जाति और धर्म के कितने लोगों ने हमें वोट दिया और कितनों ने नहीं दिया मगर लखनऊ में पानी किल्लत पर कोई बात नहीं होती।
मित्रों,अपने को प्रधानमंत्री का सबसे सुटेबल उम्मीदवार माननेवाले नीतीश कुमार की स्थिति भी कुछ अलग नहीं है। उनको लगता है कि प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी से हाथ मिलाने से बेहतर है पद से इस्तीफा दे देना। क्या यह अस्पृश्यता नहीं है? नीतीश जी मानते हैं कि महादलित को मुख्यमंत्री बना देने मात्र से महादलितों की जिन्दगी बदल जाएगी और वे फिर से उनके पाले में आ जाएंगे। क्या महादलितों का विकास सिर्फ एक महादलित ही कर सकता है? क्या उनका दर्द सिर्फ एक महादलित ही समझ सकता है? क्या ईमानदारी और योग्यता की कोई कीमत नहीं होती सबकुछ जाति ही होती है? अगर अभी भी नीतीश ऐसा ही समझते हैं तो वे निश्चित रूप से फिर से मुँह की खानेवाले हैं। दुनिया के सबसे युवा राष्ट्र को जाति नहीं विकास चाहिए,रोजगार चाहिए। चुनाव परिणामों ने आसमान में एक ईबारत लिख दी है कि जाति और संप्रदाय के नाम पर बाँटकर वोट पाने के दिन अब लद गए। समाप्त हो गया वह युग जब जनता के बीच पैसे और सामान बाँटकर वोट बटोर लिया जाता था। वीत गया वह समय जब जनता नंगी-भूखी रहकर भी किसी खास राजनैतिक परिवार के लिए जान तक देने को तैयार रहती थी। उस कालखंड का भी अंत हो गया जब चुनाव-दर-चुनाव एक ही वादा कर करके पार्टियाँ चुनाव जीत जाया करती थी। अच्छा होगा कि हमारे विपक्षी दल इस नए जमाने की नई तरह की राजनीति को यथाशीघ्र समझ लें और उसके अनुसार अपने आपको ढाल लें नहीं तो जनता तो उनको अप्रासंगिक बना ही देगी।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)
मित्रों,कांग्रेस पार्टी का कहना है कि उसकी नीतियाँ तो अच्छी थीं लेकिन भाजपा ने दस हजार करोड़ के प्रचार-बजट से उनको मात दे दी। पता नहीं कांग्रेस वो कौन-सी नीति की बात कर रही है जो अच्छी थीं। क्या उनकी कोयला नीति सही थी,स्पेक्ट्रम नीति अच्छी थी,रक्षा खरीद नीति बेहतरीन थी? वे आजादी के 70 साल बाद आधी रोटी और पूरी रोटी की बात करते हैं और फिर भी अपनी नीतियों पर शर्मिंदा नहीं होते जबकि 70 सालों में 60 सालों तक उनका ही शासन रहा है। उन्होंने सूचना का अधिकार तो दे दिया लेकिन सूचनाएँ दी क्या? जब भी किसी ने राबर्ट वाड्रा से संबंधित जानकारी मांगी तो बहाना करके टाल दिया। लोग इस अपीलीय अधिकारी से उस अपीलीय अधिकारी के यहाँ चक्कर काटते रहते हैं लेकिन राज्य सरकारों का तंत्र सूचना नहीं देता। फिर कैसा सूचना का अधिकार,कौन सा सूचना का अधिकार? केंद्र में शिक्षा का अधिकार तो कागज पर दे दिया लेकिन देश के किसी भी गरीब-भुक्खड़ के बच्चों को इससे कोई लाभ हुआ क्या? फिर यह कैसा अधिकार है जो वास्तव में है ही नहीं?! भारत की जनता को केंद्र सरकार द्वारा भिखारी मान लिया जाना क्या अच्छी नीति कही जा सकती है? यह मुफ्त वह मुफ्त लेकिन रोजगार नहीं देंगे। केंद्र सरकार ने महंगाई को नियंत्रित करने के लिए क्या किया? कौन-सी नीति अपनाई? क्या देश को जानलेवा महंगाई की आग में झोंक देना उसकी अच्छी नीति थी? कल जब कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक थी तो उम्मीद की जा रही थी कि उसमें हार के कारणों की गहराई और विस्तार से समीक्षा की जाएगी और जरूरी कदम उठाएंगे। मगर हुआ क्या माँ-बेटे ने इस्तीफा दिया,कार्यसमिति ने पूर्वलिखित नाटक की तरह नामंजूर कर दिया और कर्त्तव्यों की इतिश्री हो गई।
मित्रों,हमारे विपक्षी दल अभी भी एक-दूसरे के सिर पर हार का ठीकरा फोड़ने में लगे हैं और अपने गिरेबान में झाँक नहीं रहे हैं। समाजवादी पार्टी कहती है कि हम कांग्रेस के कारण हारे जबकि जबसे यह पार्टी उत्तर प्रदेश में सत्ता में आई है तबसे उसने ऐसा कोई भी एक काम नहीं किया है जिससे जनता को अपनी सरकार पर गर्व हो। अभी कल ही उसके मंत्री आजम खान आधी रात में अपने गुर्गों को छुड़वाने के लिए रामपुर जिले के अजीमनगर थाने पर जा धमकते हैं। उनके पूरे गृह जिले रामपुर में किसान नलकूपों को बिजली नहीं मिलने से परेशान हैं मगर उनकी समस्याओं की ओर मंत्रीजी की निगाह नहीं जाती उनका पूरा ध्यान अपने गुंडों को बचाने पर रहता है। पार्टी की बैठक में जनता की समस्याओं और उनके विकास पर चर्चा नहीं होती बल्कि इस बात पर बहस की जाती है कि किस जाति और धर्म के कितने लोगों ने हमें वोट दिया और कितनों ने नहीं दिया मगर लखनऊ में पानी किल्लत पर कोई बात नहीं होती।
मित्रों,अपने को प्रधानमंत्री का सबसे सुटेबल उम्मीदवार माननेवाले नीतीश कुमार की स्थिति भी कुछ अलग नहीं है। उनको लगता है कि प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी से हाथ मिलाने से बेहतर है पद से इस्तीफा दे देना। क्या यह अस्पृश्यता नहीं है? नीतीश जी मानते हैं कि महादलित को मुख्यमंत्री बना देने मात्र से महादलितों की जिन्दगी बदल जाएगी और वे फिर से उनके पाले में आ जाएंगे। क्या महादलितों का विकास सिर्फ एक महादलित ही कर सकता है? क्या उनका दर्द सिर्फ एक महादलित ही समझ सकता है? क्या ईमानदारी और योग्यता की कोई कीमत नहीं होती सबकुछ जाति ही होती है? अगर अभी भी नीतीश ऐसा ही समझते हैं तो वे निश्चित रूप से फिर से मुँह की खानेवाले हैं। दुनिया के सबसे युवा राष्ट्र को जाति नहीं विकास चाहिए,रोजगार चाहिए। चुनाव परिणामों ने आसमान में एक ईबारत लिख दी है कि जाति और संप्रदाय के नाम पर बाँटकर वोट पाने के दिन अब लद गए। समाप्त हो गया वह युग जब जनता के बीच पैसे और सामान बाँटकर वोट बटोर लिया जाता था। वीत गया वह समय जब जनता नंगी-भूखी रहकर भी किसी खास राजनैतिक परिवार के लिए जान तक देने को तैयार रहती थी। उस कालखंड का भी अंत हो गया जब चुनाव-दर-चुनाव एक ही वादा कर करके पार्टियाँ चुनाव जीत जाया करती थी। अच्छा होगा कि हमारे विपक्षी दल इस नए जमाने की नई तरह की राजनीति को यथाशीघ्र समझ लें और उसके अनुसार अपने आपको ढाल लें नहीं तो जनता तो उनको अप्रासंगिक बना ही देगी।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)
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