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14.6.14

नाना -नानी पार्क में दो घडी मिलन

ललित -३
(कुछ अपनी, कुछ उनकी )

नाना -नानी पार्क में दो घडी मिलन

मुंबई के उस पार्क का नाम था तो कुछ और पर सब उसे नाना-नानी पार्क के ही घरु नाम से सम्बोधित करते। जब भी १०-५ दनो के लिए मायानगरी आना होता ,मेरा हस्बे-मामूल पार्क का एकाध चक्कर तो लग ही जाता। रोज सुबह शाम उस पार्क में बूढ़े ही बूढ़े नजर आते थे।किसम -किसम के पके चेहरे. किसी के चेहरे में वक्त की बेतरतीब झुर्रियों का झुरमुट होता तो कोई चिकने चेहरे वाला सुकोमल-क्लांत चेहरा लिए होता। कोई लुंगी में तो कोई मटमैली धोती पर पतला सा कुरता पहने। बुजुर्ग महिलाये ज्यादातर मराठी नौ गजी धोती या सूती बिना कलफ की गुड़ी-मुड़ी साड़ी में दिखतीं। हाँ , इक्का दुक्का पंजाबी-सिंधी शलवार -कुर्ती में भी कुछ बूढी औरतों के झुण्ड दीखते थे जो गुरद्वारे मत्था टेकने और लंगर की कार -सेवा करने के लिए घर से निकली होतीं। उनकी बातचीत के विषयों में बहुधा बहू -बेटों की आलोचना , पडोसी की नयी गड्डी से लेकर खांसी -सर्दी के लिए घर में ही जुशांदा -काढ़ा बनाए की विधि तक के किस्से शामिल रहते। बीच में ही ''उमर पचपन,दिल बचपन'' मार्का कोई शोख मिसेस भल्ला जोर से दूसरी को चिकोटी लेते उच्च स्वर में बोलती सुनाई देती -हए ! किन्ने सोणे लग रेओ तुस्सी अज ! की गल्ल है! फेशियल-वेशियल ! जिस पर सामने से ज्वाब आता -चल स्वा ते मिटटीए ! तुसी वेख्या मैनु कदी मेकअप पाते ! ओ तो अज न ! जरा सुब्बेरे स्टीम लित्ति सी ,जुखाम हो रया सी तो ! इस कर के स्किन जरा चिट्टी दिख रही होग्गी। और फिर समवेत खिल-खिलाने का स्वर तो षोडशियों को भी मात दे जाता।
उसी पार्क में रोज टाइम पास करते एक वृद्ध जोड़े पर मेरी आँखे अनायास टिक जाती थी। वे दोनों ७५ पर के थे। मराठी वेशभूषा। बुजुर्ग पुरुष का पहनावा सफ़ेद झक्क धोती,बुश शर्ट और , चॉकलेटी रंग की बंडी और गले में पतला सा गुलूबंद। पार्क के नियमित आने -जाने वालो से पता चला उनका नाम भास्करराव देशमुख था। गौर वर्ण , माथे पर अष्ट गंध का गोल टीका और सर पर मराठी टोपी लगाये वे बिलकुल विठ्ठल मंदिर के कीर्तनकार लगते। वे रिटायर्ड न्यायाधीश थे। बुद्धि की चमक उनकी कांति को और भी बढ़ा देती। उनसे विपरीत श्रीमती देशमुख ने कृष शरीर और सांवला रंग पाया था। पर नैन -नक्श तीखे थे। नाक में एक हीरे की चमकी और गले में मंगलसूत्र के अलावा वे एक पारम्परिक मोहनमाळ भी पहनती थी,जिसके बारे में पंजाबी महिला टोली का आकलन था कि -कम से कम चार तोले की तो होएगी ही। बड़ी स्नेहिल स्वाभाव की धनी श्रीमती देशमुख को सब आज्जी (दादी) कहकर सम्बोधित करतेऔर श्री दशमुख को नाना । आज्जी अपनी थैली से कभी ''उकडलेले शेंगदाने "(उबले मूंगफली के दाने ) तो कभी काजू-किशमिश का प्रसाद तो कभी देशी घी के बेसन के लड्डू मुक्त हाथ से पार्क के स्थाई -अस्थाई सदस्यों को बाँटा करती। एक दिन मेरा नंबर भी लगा। मैं भागवत साहब का नाती हूँ सुनकर बड़ी खुश हुई आज्जी -अहो ऐकले का ! आपल्या श्यामल चा मुलगा आहे हो ! किती एवढा सा होता जेंव्हा मी पाहिले होते तुला। खुप मोठा हो रे बाबा ! फिर थोड़ी देर इधर -उधर की बातचीत कर जब मैं जाने को उठा तो आज्जी ने नाना को कुछ इशारा किया। तुरंत नाना ने पांच सौ रुपये का एक नोट मेरे हाथ में रख दिया। ये किसलिए नाना-मैं संकोच से भर गया। अरे रख रे ! हमारे पोते जैसा है तू। अच्छा ! फिर मिलना कहते हुए दोनों निकल पड़े। …।और मेरे अचरज की सीमा नहीं रही , जब मैंने उन्हें विरुद्ध दिशाओं में मुड़ते देखा। मेरे साथ बेंच पर बैठा मंगेश शायद मेरे विस्मय को भाँप गया। मुँह से ''च्च च्च '' की आवाज निकलता बोला -बेचारे नाना -आज्जी ! इस उम्र में भी साथ नहीं रह सकते। इसलिए पार्क में मिलने आना पड़ता है !.... क्या ?… पर क्यों ! -अरे क्यों क्या बाबा ! एक लड़का -एक लड़की है इनको। दोनों आमने-सामने के फ्लेट में रहते हैं। दोनों चिक्कर पैसा कमाते। मुलगा डॉक्टर है और मुलगी फेमस गायनोकोलॉजिस्ट। मगर दोनों भाई-बहनो में पुणे की प्रॉपर्टी को लेकर जबरदस्त राडा। कोर्ट -कचेरी सब बाप्पा रे बाप्पा ! मंगेश अपनी मुम्बईया हिंदी में बता रहा था। .... इस लिए बाप को मुलगी रखती है और माउली (माँ )को मुलगा नहीं छोड़ता । क्या तो बोले लड़के को बाप का जल्दी उठकर 'श्रीराम जयराम जय जय राम '' का जाप करना पसंद नहीं। उसकी नींद में खलल जो पड़ता है। पोरगी भी कम नहीं है। सारा काम कराती है आई से नौकरों माफिक। पर आज्जी बेचारी सहन कर लेती है। मगर नाना थोड़े गर्म स्वाभाव के हैं और हठी भी। ऊपर से जज्ज का तुर्रा । तो दोनों अलग अलग रहते हैं. पैसा बहुत है नाना साहेब के पास। पर खर्च करें तो किस पर ? इसलिए यहाँ सब पर लुटाते हैं।
मेरी आँखों के सामने ''ग़दर'' ''वीरजारा'' और ''ट्रैन टू पाकिस्तान'' से लगाकर ''बागवान'' तक के कई फ़िल्मी दृश्य घूम गए जिनमे ''विभाजन की त्रासदी '' देखकर कितनी ही बार टाकीज में आँखे नम हुई थी। अपने ही पेट जाये बच्चों की वजह से अपने जीवनसाथी से मिलने की खातिर जीवन की साँझ बेला में किसी को सार्वजनिक पार्क का सहारा लेना पड़े तो वो अभागा अपनी अकूत सम्पदा का क्या अचार डालेगा ? सच है -पूत सपूत तो क्यों धन संचे /पूत कपूत तो क्यों धन संचे?
-विवेक मृदुल