अजय कुमार, लखनऊ
अगला वर्ष उत्तर प्रदेश में चुनाव का। 2016 का आगाज यही कहता है। तमाम दलों के नेताओं के बीच विधान सभा चुनाव को लेकर बेचैनी नजर आने लगी है। 2016 में प्रवेश करते ही मनोवैज्ञानिक रूप से भी चुनावी सियासत तेज हो गई है। नेताओं की वाणी में रस घुलने लगा है।नव वर्ष के बहाने सफेदपोश चमचमाती गाड़ी से उतर का गलियों-मोहल्लों की धूल छानते नजर आने लगे हैं। घात-प्रतिघात का दौर चल भी चल पड़ा है।विधायिकी के टिकट के लिये दरबार सजने लगे हैं।किसी को अपने लिये टिकट चाहिए तो कोई अपने घर-परिवार के सदस्य के लिये टिकट की दावेदारी कर रहा है।चुनाव लड़ने के इच्छुक नेताओं को किसी भी तरह से टिकट हासिल करने की चिंता है तो चुनाव लड़ाने वालों को जिताऊ प्रत्याशियों की तलाश के साथ-साथ अपना वोट बैंक मजबूत करने कि फिक्र है।इसी विरोधाभास के चलते कई दलों में बगावत के सुर भी सुनाई पड़ रहे हैं।समाजवादी पार्टी के लिये पंचायत चुनाव तो भारतीय जनता पार्टी के लिये संगठनात्मक चुनाव सिरदर्द साबित हो रहे हैं।
एक तरफ टिकट के दावेदार अपनी ताकत दिखा रहे हैं तो दूसरी तरफ पार्टी आलाकमान मतदाताओं के दिलों में अपनी जगह बनाने को बेचैन हैं।समाजवादी सरकार के मुखिया अखिलेश यादव अपनी सरकार के विकास कार्यो का ढिंढोरा पीट रहे हैं तो केन्द्र पर इल्जाम लगाने से भी नहीं चूक रहे हैं कि मोदी सरकार यूपी का हक मार रही है। बसपा सुप्रीमों मायावती समाजवादी सरकार की खामियां गिना कर उसे कटघरे में खड़ा करने में लगी हैं तो भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अखिलेश सरकार के खिलाफ स्वयं चुनावी मोर्चां संभाल रखा है। उत्तर प्रदेश में भाजपा के अध्यक्ष चुनाव को लेकर चर्चा भी जोरों पर है। ये माना जा रहा है कि इस बार प्रदेश की बागडोर जिसके हाथ में जाएगी, पार्टी विधानसभा 2017 का चुनाव उसी के नेतृत्व में लड़ेगी। आलाकमान प्रदेश भाजपा नेताओं की एक मजबूत टीम खड़ी करना चाहता है। लोकसभा चुनाव 2014 में जिस तरस से प्रदेश में मोदी का जादू चला था, वह बिहार चुनाव के बाद अब उतना प्रभावी नहीं रह गया है,लेकिन इतना तय है कि यूपी में भी मोदी ही भाजपा का चेहरा रहेंगे।यूपी और बिहार में फर्क की बात कि जाये तो मोदी यूपी से सांसद हैं और यहां उनका बाहरी कहकर विरोध नहीं किया जा सकता है।इसके अलावा हाल में जिस तरह से बिहार की कानून व्यवस्था बिगड़ी है और लालू-नीतीश के बीच खटकने लगी है,उसका भी फायदा यूपी में भाजपा उठा सकती है।
बहरहाल,यह कहना अतिशियोक्ति नहीं होगा कि 2015 के अंतिम दिन नोयडा में दिल्ली से मेरठ के बीच 14 लेन के एक्सप्रेस वे की परियोजना के शिलान्यास के बहाने भारतीय जनता पार्टी ने मिशन-2017 का आगाज कर दिया है।कहने को तो मौका शिलान्यास का था,लेकिन इसके बहाने प्रधानमंत्री की जनसभा के लिये भाजपाइयों ने खूब भीड़ जुटाई।पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दिग्गज नेताओं ने भारी भीड़ जुटाकर पार्टी के इरादे साफ कर दिये। ऐसा लग रहा था कि पहले दिल्ली, फिर बिहार में हार के बाद एक्सप्रेस-वे परियोजना के बहाने भाजपा एक बार फिर विकास के मुद्दे पर लौटने को मजबूर हो गई है। अब शायद मोदी टीम विरोधियों की जातिवादी गुगली में न फंसे, जैसा बिहार में देखने को मिला था।30 मिनट के भाषण में प्रधानमंत्री का सारा जोर विकास के इर्दगिर्द ही सिमटा रहा। हालांकि अंत में उन्होंने पांच मिनट तक कांग्रेस को निशाने पर रखा लेकिन सपा व बसपा जैसे दल उनके निशाने से दूर ही रहे।यह मोदी की रणनीति का भी हिस्सा हो सकता है। भाजपा 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में प्रदेश की सत्ता पर काबिज होने की तैयारी कर रही है। बिहार व दिल्ली में विकास के अलावा अन्य मुद्दों को आजमाने के बाद भाजपा को समझ में आ गया है कि विकास के नाम पर ही उसे दिल्ली की सत्ता मिली थी लिहाजा मिशन 2017 में इसे ही केंद्र में रखना होगा। इस मुद्दे पर वापस आने के लिए पार्टी की तरफ से जगह व समय का चुनाव भी सोच समझकर कर किया।बिहार चुनाव से ठीक पहले नोएडा से सटे दादरी में बीफ कांड हुआ। इसे लेकर विपक्षी दल भाजपा का चेहरा साम्प्रदायिक साबित करने में सफल रहे और इसका खमियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा। नोएडा में यह जनसभा इसलिए की गई ताकि एक बार फिर विकास का मुद्दा केंद्र में आ जाए। नोएडा की इस जनसभा में प्रधानमंत्री ने इंफ्रास्ट्रक्चर, सड़क निर्माण, नौकरियों व गरीबों की बात कर पार्टी से सभी वर्ग को जोड़ने की कोशिश की है। इसके साथ ही हाईवे न होने से लोगों को होने वाली परेशानी का ठीकरा भी विपक्षी दलों पर फोड़ने की कोशिश की। जनसभा की तैयारियों से लेकर अंत तक पूरे जिले के कार्यकर्ता एक साथ दिखे। पार्टी की तरफ से नोएडा के छोटे-बड़े पदाधिकारियों को जो जिम्मेदारी दी गई थी उसे बखूबी निभाया भी।पार्टी में गुटबाजी न हो इस लिये मंच पर नोएडा की भाजपा विधायक विमला बाथम और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेयी को जगह नहीं मिली।दोनों को वीआईपी गैलरी में बैठना पड़ा।खैर,जनसभा में स्थानीय विधायक को मंच पर जगह मिलना कुछ लोगों को खराब लगा।इसे परम्परा के खिलाफ भी बताया गया।
बात मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की कि जाये तो इस मौके पर उनका न आना चिंताजनक रहा।पहली बार नोएडा आए प्रधानमंत्री के कार्यक्रम में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने शिरकत नहीं की। बताया जाता है कि नोएडा से जुड़े एक मिथक ने मुख्यमंत्री को इस कार्यक्रम से दूर रखा। अपनी जगह उन्होंने पीएम की आगवानी के लिए प्रदेश के मंत्री शाहिद मंजूर को भेजा था। मिथक यह कि जो भी सीएम नोएडा आया उसकी कुर्सी चली गई या अगली बार उसने सत्ता में वापसी नहीं की। सीएम अखिलेश यादव कई बार कह चुके हैं कि वह इस मिथक को तोड़ने जरूर आएंगे लेकिन वह नहीं आते। इसके पहले भी कई अवसर आए लेकिन उन्होंने नोएडा से दूर रहना ही उचित समझा। नोएडा से जुड़े इस अंधविास के मुताबिक बीते 25 वर्षो में जिस मुख्यमंत्री ने यहां कदम रखा उसे अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी। 2011 में मुख्यमंत्री रहीं बसपा प्रमुख मायावती चुनाव से ठीक पहले नोएडा पहुंची थीं और 2012 के चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा। इससे पहले वीर बहादुर सिंह, नारायण दत्त तिवारी, राम प्रकाश गुप्ता व कल्याण सिंह ऐसे मुख्यमंत्री रहे हैं जिन्होंने नोएडा आने के बाद अपनी कुर्सी गंवाई है।इस सबके बीच एक वर्ग ऐसा भी है जो इस बात से नाराज है कि पढ़े-लिखे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव इस तरह के अंधविश्वासों पर भी भरोसा करते हैं।अगर वह ही ऐसा करेंगे तो जनता को क्या समझायेगें।
अजय कुमार
वरिष्ठ पत्रकार
लखनऊ
1.1.16
अगला वर्ष विधान सभा चुनाव का, अब यूपी में ताकत दिखाने की बारी
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