(जन्म-1875,मृत्यु-1900)
भारत की आज़ादी के 75 साल का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है। इसी दौरान उन सभी स्वतंत्रता सेनानियों को याद किया जा रहा है जिनका देश को स्वतंत्र कराने में कुछ न कुछ योगदान रहा है। लेकिन वे इतिहास के पन्नों में नहीं हैं। बहुत से स्वतंत्रता सेनानी ऐसे हैं जिनका नाम सदैव लोगों की जु़बान पर रहता है, कहीं न कहीं किसी न किसी तरह से उनका ज़िक्र भी होता है, उनके बारे में कुछ स्वतंत्रता संबंधी कार्यक्रमों में कुछ पढ़ने और सुनने को मिल जाता है, बहुत से बहुचर्चित नामों को सामान्य जनता भी बखूबी जानती है, लेकिन कुछ नाम गुमनामी के अँधेरे में खो गये हैं। हालांकि स्वतंत्रता आंदोलन में उनका योगदान अद्वितीय है और अगर कहा जाए कि उनके योगदान के बिना आज़ादी सम्भव नहीं थी तो इसमें कोई अतिश्योक्ति न होगी। उनके अन्दर भी देशप्रेम का जज्बा कूट-कूटकर भरा था। वे भी अपने भारतदेश पर अंग्रेजों का आधिपत्य बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करते थे। उन्हें अपने देश से भगाने और अपने देश को स्वतंत्र कराने के लिये उन्हांेने अपने तरीके से इस स्वतंत्रता संग्राम को लड़ा और उनकी यह लड़ाई बहुत अहम और महत्वपूर्ण भी थी। ऐसा करते हुए उन्होंने बहुत-सी तकलीफों का भी सामना किया, परन्तु इन सबकी परवाह किये बिना उन्होंने अपने जीवन में इस लड़ाई को बिना रुके लड़ा और कुछ हद तक उसमें कामयाबी भी पाई।
इसी श्रृंखला में एक नाम ‘बिरसा मुंडा’ का भी है। यह वह नाम है जिसे बहुत कम लोग जानते हैं लेकिन वे स्वतंत्रता संग्राम के बहुत बड़े योद्धा थे और उनके योगदान को भुलाना आसान नहीं है।
बिरसा मुंडा आदिवासी जाति के 21वें बिहार के दक्षिणी पहाड़ी इलाको में रहते थे। जमींदारों ने छल-बल से मुंडाओं की ज़मीन हथिया ली थी। मुंडाओं ने इसके विरुद्ध जमींदारों से जो युद्ध किया उसे सरदारी लड़ाई के नाम से जाना जाता है। मुंडा ने लोगों को अंग्रेजों की गलत नीतियांे के बारे में बताया। मुंडाराज की स्थापना की। सरकार को लगान देने से मना कर दिया तथा अंग्रेजीराज समाप्त करने के लिये अंग्रेजों से लोहा लेने लगे।
भगवान बिरसा मुंडा ने भूमि आंदोलन को दिशा दी स्वराज्य प्राप्ति की और सांस्कृतिक, सामाजिक संदर्भों की व्याप्त कई भ्रांतिपूर्ण धारणाओं पर एक वीर योद्धा की तरह सीधा प्रहार किया। आदिवासी क्षेत्र में बिरसा ही ऐसे वीर सेनानी थे, जिन्होंने अंग्रेजों को वापस अपने देश जाने की चेतावनी दी। बिरसा मुंडा के अनुयायियों ने उनकी इस घोषणा को अत्मसात कर लिया था कि ‘‘मैं एक न दिन फिर लौटूँगा।’’ उनके अनुयायी उन्हें स्वर्ग के पवित्र पिता और पृथ्वी के नये राजा मानते थे।
ईश्वर सामान्य रूप में इस संसार के प्रत्येक पदार्थ के कण-कण में विराजमान हैं लेकिन किन्हीं विशेष कारणों से वह विशेष रूप में प्रकट होता है। इसे ही विभूति कहते हैं। श्री कृष्ण ने श्रीमद् भगवद् गीता में कहा है - ‘‘हे अर्जुन इस संसार में जो विशिष्ट है, उसे तू मेरी विभूति ही जान।‘‘ इस मायने में बिरसा मुंडा को भगवान कहना गलत नहीं है।
बिरसा मिसाल हैं इस बात की कि कैसे जंगल से किया गया शंखनाद क्रांति का बिगुल बन जाता है। भगवान बिरसा मुंडा जी का आदर्शपूर्ण जीवन संघर्ष, शौर्य और पराक्रम का प्रतीक है। उन्होंने निःस्वार्थ भाव से आदिवासी समाज के सशक्तिकरण के लिये काम कर समाज को एक नई दिशा दिखाई और अपनी क्रांतिकारी सोच से अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा भी सम्भाला।
बिरसा मुंडा को उनके द्वारा किये गये विशेष कार्यों के कारण उनकी जाति के लोग उन्हें ‘भगवान’ कहते हैं। लोग उनका सम्मान करते हुये उन्हें ‘धरती बाबा’ कहकर पुकारते हैं। छोटी उम्र में ही जब बिरसा ने अपनी जाति के लोगों पर अंग्रेजों को अत्याचार करते देखा तो उनका मन क्रोधित हो उठा। उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजा दिया। अगस्त 1847 में तीर-कमान लिये अपने 400 साथियों के साथ खूंटी थाने पर जब उन्होंने धावा बोला तो अंग्रेज सकते में आ गये। उन्होंने इस संग्राम को कुचलने के लिये बिरसा को गिरफ्तार कर लिया। जून 1900 में राँची के कारागार में इस महान योद्धा ने अन्तिम साँस ली। कुछ विशेष घटनाएँ थीं, जिसने संतहृदय बिरसा को मुखर विद्रोह करने के लिये मजबूर किया। स्वतंत्रता संग्राम करने के लिये उन्होंने अपने जाति के लोगों को संगठित किया। समय-समय पर वे अपने साथियों को बातचीत, भाषण और गीतों द्वारा प्रोत्साहित करते थे। ये सभी उनके व्यक्तित्व की खूबियाँ थीं।
एक साधारण से व्यक्ति में किस तरह क्रांति की ज्वाला भड़की और उन्होंने अंग्रेजों से लोहा लिया। उसके लिये लगातार संघर्षरत रहे और अपनी जाति के लोगों का इकट्ठा कर अपनी क्रांति के ज़ज्बे को उन्होंने मूर्त रूप दिया, यह उनकी अद्वितीय क्षमता एवं साहस ही था। बिरसा मुंडा एक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी थे जो गुमनामियों में कहीं खो गये और उनके द्वारा किये गये स्वतंत्रता संग्राम को लोगों ने बहुत तवज्जो नहीं दी। लेकिन स्वतंत्रता में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।
-डॉ. अलका अग्रवाल
निदेशिका, मेवाड़ ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस
वसुंधरा, ग़ाज़ियाबाद
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