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10.1.08

....क्या ज़िंदगी एक मिसफिट इंट्रो है जिसे डिलीट कर दिया जाना है?

अब लो..., टाटा की लखटकिया कार आई तो जैसे तूफान मच गया। हर साल जाने कितनी कारें आती हैं और बिकती हैं। ये भी आई। बिकेगी। चलेगी। दौड़ेगी। सड़क पर ट्रैफिक थोड़ा और जाम होगा। बस, और क्या? लेकिन साहब नहीं, खलिहर हैं हम सभी। मीडिया वाले पगलाये हैं, हर ओर मुंह बाये मुंह चलाये खड़ा हांफता भागता मिडिल क्लास, लोअर मिडिल क्लास को चाहिये क्या? अपने मतलब की चीज। कहां क्या इनाम है, कहां क्या लाभ है, कहां क्या जुगाड़ है, कहां क्या नया है..ये लोग, एक और मतलब की चीज आ गई। चूंकि मिडिल और लोअर मिडिल क्लास से बड़ा इस देश में कोई तबका नहीं है सो इनकी आवाज, इनका दर्द हर जगह नुमाया होता है। तो भई इनके मतलब की, इनके हिसाब की, इनके बजट की कार आ गई है तो सब पगलायेंगे ही। हर चैनल वाले, हर अखबार वाले, हर पत्रकार भाई, हर गैर पत्रकार भाई....जिसके पास कार है वो भी, जिसके पास नहीं है वो भी.....सोचे विचारे बताये समझाये जा रहे हैं। लखटकिया के बारे में।

अमां यार। अब बस भी करो ना। और तो और अपने भड़ासी भी बहे जा रहे हैं हवा के संग। ठीक है बड़ी खबर है। आप से जुड़ी खबर है। बस, आपके करीब है। पर इसमें इतने उत्तेजित काहें हैं। ये उत्तेजना हालांकि जेनुइन है। जैसे मुझे भी हुई थी जब मैंने पहली बार कलर टीवी लेने का प्लान बनाया था। रोज अखबार और मैग्जीन में टीवी के विज्ञापनों को बहुत सीरियसली देखा करता था और उन्हे काटकर रख लेता था। टेक्सला से लेकर वीडियोकान तक और अकाई से लेकर एलजी तक। हर माडल के सारे डिटेल पता करता, लोन के बारे में जानकारी जुटाता, तुरंत दी जाने वाले वन टाइम पेमेंट के बारे में जानकारी लेता....और कई महीनों के वन टाइम प्रोग्राम के बाद आखिर ले ही लिया बड़ी वाली कलर टीवी।

कुछ इसी उत्तेजना और उधेड़बुन में मोबाइल फोन, स्कूटर और फिर कार भी लिया। शायद अब मकान खरीदने के बारी है लेकिन पता नहीं मकान को लेकर मेरे मन में कभी कोई जेनुइन उत्तेजना नहीं पैदा हुई। अभी तक तो आवारा बंजारा माफिक झोला बस्ता बोरा उठाकर किसी शहर से किसी शहर निकल लेता हूं और आबोहवा व जगह बदलने से जो मजा मिलता है उस मजे का लुत्फ लेता हूं लेकिन जब स्थाई ठौर बन जाएगा तो वही दीवारें और वही पड़ोसी काटने दौड़ने लगेंगे। लेकिन इस फंतासी से जीवन तो नहीं चलेगा। बच्चे बड़ो हो रहे हैं और बीवी का प्रेशर मकान लेने के लिए मेरे उपर बढ़ता जा रहा है सो टाल टूल के साल दो साल में ले ही लूंगा।

पर ये इतनी निजी चीजें होती हैं कि इन्हें कोई सबसे बड़ा मुद्दा बनाकर हाइप दिया जाना समझ में नहीं आता। टाटा की लखटकिया चाहें जितनी स्पीड में दौड़े और चाहें जब बाजार मं आए, एक बात तो तय है कि जिस तरीके से इस कार की शक्ल दिखने के बाद बवाल मचा है वो हमारे भयंकर उपभोक्तावादी चेहरे की शिनाख्त कराता है। विरोध करने का कोई मतलब नहीं क्योंकि टेकनालजी को आप रोक नहीं सकते। नयेपन को आप नकार नहीं सकते। समर्थन में उतर जाने का कोई मतलब नहीं क्योंकि खाने, पहनने और चलने के सामान के लांच होने पर आंदोलित नहीं हुआ जा सकता। जमाने में और भी गम हैं मुहब्बत के सिवा। क्या साला दिमाग बन गया है हम लोगों का। अपने जीवन, समाज, देश, विदेश, ब्रह्वांड....आदि के पेंचोखम को समझने बूझने बताने गुनने और सुनने सुनाने की रवायत कहां गई? अब क्या नए ब्रांड के गुलाब जामुन, नई कंपनी की पैंटी-अंडरवीयर, कम पैसे की कार, मोबाइल व गाड़ियों के वीवीआईपी नंबर....यही सब बतियाने, आंदोलित होने और सुनने सुनाने के लिए रह गया है।

मैं यह सब कह कर किसी को गलत या खुद को सही नहीं साबित कर रहा पर पता नहीं मैं आज पूरे दिन, वो चाहें आफिस हों, दोस्त हों, ब्लाग हों, अखबार हों, टीवी हों, सड़क हो, पड़ोसी हों....हर जगह लखटकिया कार के बारे में ही सुनता रहा। अगर बहुमत एक तरफ है तो लोकतंत्र के हिसाब से संख्याबल जीता और मेरी सोच हारी। मैं अपने सोच के अल्पमत में होने के कारण लोकतांत्रिक हार स्वीकार करता हूं पर मेरे मन में जो सवाल थे वो आपके इस ब्लाग पर लिखकर खुद को हलका पा रहा हूं।

मन में जो कुलबुला रहा था, दिमाग में जो कीड़े रेंग रहे थे...उनको निकालने से तसल्ली हुई। पर इस तसल्ली के पीछे एक दर्द है जो शायद कह रहा है... बेटा यशवंत, या तो तू इस दुनिया के लिए नहीं बना है या फिर दुनिया तेरे हिसाब से नहीं है। अब अगर ऐसा है तो मुझे क्या करना चाहिए। थोड़ा एडजस्ट। और वही कर रहा हूं। मन को समझा रहा हूं। क्या पड़ा है यह सब सोचने और लिखने में। जैसे सब जी रहे हैं, भागते हुए, जीभ लपलपाते हुए, गंड़ासा चलाते हुए, अगल बगल वालों को धक्का मारते हुए, खुद को कथित शीर्ष पर ले जाते हुए, दिन को दिन और रात को रात न समझते हुए जी जान से जुटे हुए....वैसे तू भी करता रहा। वरना...मिसफिट कहा जायेगा, हारा हुआ माना जायेगा, किनारे कर दिया जायेगा......। और एक दिन पराये तो पराये, अपने भी गाली देंगे।

तो आप लोगों के सुर सुर में मिलाते हुए, चलो मैं भी कहता हूं....टाटा की लखटकिया कार जिंदाबाद, बाटा के हजार के सैंडल जिंदाबाद, बिड़ला के अरबों के प्रोजेक्ट जिंदाबाद, अंबानी के पैसे के अंबार जिंदाबाद, अपने मालिक का अखबार जिंदाबाद, अपने सपने का चैनल जिंदाबाद, अपनी पांच अंकों की मासिक सेलरी जिंदाबाद, छह अंकों की मासिक सेलरी के लिए लगे रहो, सफलता की अंधाधुंध दौड़ में सफल होने के लिए जुटे रहो, मकान और कार के साथ अच्छा खासा बैंक बैलेंस बनाने के लिए भागते रहे, धंधा और पर्सनाल्टी चमकाने के लिए डटे रहो.....:):)


मिसफिट इंट्रों फार डिलीट नीचे की ब्रैकेट की लाइनें पहले इस पोस्ट का इंट्रो बनाया था, मतलब पहला पैरा, लेकिन पूरा लिखने के बाद लगा कि यह तो मिसफिट हो रहा है तो इसे उड़ा दूं, पर लगा कि जब लिख ही दिया है तो उड़ाऊं क्यों...चलो इसे लास्ट में डाल देते हैं और इसका नाम रख देते हैं मिसफिट इंट्रों फार डिलीट

((ज़िंदगी के एक एक दिन यूं गुजरते जाते हैं कि पता ही नहीं चलता किस तरह हफ्ते महीने साल और फिर साल दर साल बीते जा रहे हैं। नौकरी, बेरोजगारी, पढ़ाई, लड़ाई, बहस, बकचोदी, बरजोरी...इतने सारे काम हैं कि ठहर कर सोचने का वक्त नहीं मिलता किसी को। इसी में अलग अलग वेश और मुखौटों को संभालने, दिखाने, पेश करने में परेशान है हर आदमी। आज का आदमी जो है न वो दिमाग लगाने लायक बचा ही नहीं। वो जो है, जो होना चाहता है, जो हो रहा है, इसी के बीच पिसते घिसते एक एक दिन बिताये जा रहा है। और रोज कोई न कोई मुद्दा। कोई न कोई बात। कोई न कोई शगल।))

जय भड़ास
यशवंत

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