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31.1.08

मुझे उजाले से ड़र लगता है

उजाले मे नही आती है नीद मुझे
चुभता है यह फिलिप्स आँखों मे
सिकोड़कर बंद कर लू आंखे तो
दिखता है गोधरा का सच मुझे
लाल हो जाती है आंखे मास के लोथरो से
तड़प कर गिरते पशु महोबा के खेत मे
विदर्भ कि फटी धरती पर किसान का खून सना
गोलियों के छर्रे पर नंदीग्राम का सच लिखा
आंखे ढकता ह कपडे से जब मैं
ओखली सा पेट लेकर नगों कि एक फोज खडी
ड़र कर आंखे खोलता हू जब मैं
दिखता है उजला भारत _उदय मुझे
बंद कर लू उंगलियों से जो कान के छेद को
बिलकिस कि चीखो से कान फटता है मेरा
किसानों कि सिस्किया चित्कारती है मुझे क्यो
शकील के घर ही क्यो सायरन का शोर है
फौज का बूट मेरे सर पर है
अब उजाले मे नीद मुझसे उड़ती है

1 comment:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

अब हम लोग बिस्मिल जी की तरह शायरी करें यानि अभिव्यक्ति सिर्फ़ शाब्दिक न हो कर्म मे भी हो .....