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4.1.08

विकास का बाई-प्रॉडक्डट -- आतंकवाद !

कभी सुना था , पर आज सोचने को विवश हूँ , कि क्या वाकई आतंकवाद अंधाधुंध अव्यवस्थित विकास का बाई-प्रॉडक्डट है ? हाल ही में दैनिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित श्री दिनेश पाठकजी द्वारा प्रेषित ख़बर ने एक बार फिर इस बात की पुष्टि ही की है। ख़बर यह थी कि सत्तावन साक्षात्कार के बावज़ूद नौकरी हासिल करने में असफल युवक ने क़र्ज़ चुकाने की ग़रज़ से उग्रवादी संगठन सिमी को मानव-बम बनने की अर्ज़ी दी है। वाकई, यदि सत्तावन साक्षात्कार इम्तिहां थी, तो युवक द्वारा सिमी को दी अर्ज़ी उस इम्तिहां का अपेक्षित परिणाम होना ग़ैर-मुनासिब नहीं लगा। अब तमाम सरकारें जो भी प्रयास कर लें, भले ही उस युवक को बुलाकर बिना साक्षात्कार के ही उसे अनापेक्षित पद ही दे दे किन्तु एक सूत्र तो बाकियों के हाथ लग ही गया है।
आतंकवाद एक ऐसी समस्या है जो किसी सीमा से परे है और जिसका उद्देश्य सिर्फ दहशत फैलाना है, कभी किसी अनचाहे मुराद के लिए तो कभी यूँ हीं अपने अस्तित्व को दर्शाने के लिए। आत्मघाती दस्तों में महिलाएँ तो सक्रिय काफी पहले से रही हैं, अब इन आतंकियों ने अबोध शिशुओं के इस्तेमाल की नई परिपाटी शुरू की है। पाकिस्तान में श्रीमती बेनज़ीर भुट्टो के स्वागत समारोह से शुरू इसकी एक बानगी देखने को मिली है। अचरज़ नहीं होना चाहिए कल को यदि ऐसे हमले के नमूने भारत सहित अन्य देशों में भी देखने को मिले।
गत तेईस नवम्बर को उत्तर प्रदेश के तीन शहरों में हुए सीरियल बलास्ट एक साथ कई संदेश देते हैं। पहला यह कि ये हाई-टेक आतंकवादी किसी संगठन-समाज-व्यक्ति समूहों से ज़्यादा संगठित हैं और बारीकी से अपने काम को अंज़ाम देने में कहीं ज़्यादा माहिर। अपने स्रोतों-तकनीकों के बावज़ूद ये छोटे-से-छोटा बनकर बड़े-से-बड़ा अंजाम देने में हर दिन बेहतर होते जा रहे हैं।
दूसरा संदेश यह है, कि हमारी व्यवस्था तमाम कोशिशों के बावज़ूद लचर और जंग खाई हुई है जिसे किसी धमाके से दुरूस्त नहीं किया जा सकता है।
तीसरा यह कि हमारी सारी कमियों व खूबियों पर आतंकियों की गिद्ध दृष्टि होती है जबकि हम उनकी मोटी-बड़ी हरक़तों तक को भांप पाने में अब तक अक्षम हैं। शायद इसकी एक वज़ह यह है कि ये आतंकी कभी अपनी गलतियों को दुहराने की गलती करते और हमारे तथाकथित रक्षक अपने गलतियों के लीपा-पोती में कहीं ज़्यादा माहिर।
चौथी, जनसंख्या के अनुपात में हमारी सुरक्षा तंत्र व संगठन कहीं ज़्यादा कम होने के साथ खोखली भी है तथा आज़ादी के साठ सालों के बाद भी स्वतंत्र निर्णय लेने में असमर्थ भी।
पाँचवी और सबसे अहम वज़ह हैं हम और हमारा रहन-सहन। हमलोगों को बहाना चाहिए मिलने-जुलने और भागती ज़िन्दगी से राहत के लिए, जिसका फायदा उठाने में ये हाई-टेक आत्मघाती आतंकवादी शायद ही कभी चूकते हों। नित-नए तरीक़े ईज़ाद कर अपने काम को अंजाम देने वाले आतंकवादियों की पूँजी है उनकी काली रचनात्मकता और सत्तावन साक्षात्कारों में असफल युवक । किसी हमले में यदि उस युवक के सत्तावन साक्षात्कर्त्ताओं में से एक भी बे-मौत मारा जाता है (भगवान न करे) तो सत्तावन साक्षात्कारों की असफलता पर मानव-बम की अर्ज़ी की सफलता न जाने कितनों को आतंक की भट्ठी में झोंकने में सफल हो जाएगी, आपको अंदाज़ा है !
अभिषेक पाटनी ,
बी – 13, सेक्टर – 15,
नोएडा. उ० प्र० – 201 301 .

1 comment:

दिनेशराय द्विवेदी said...

यह अंधाधुन्ध विकास पूंजीवाद के साम्राज्यवादी युग का आवश्यक तत्व है जिस के बिना वह जीवित नहीं रह सकता है।